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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 60
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - स्वराट ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    दे॒वान् दिव॑मगन् य॒ज्ञस्ततो॑ मा॒ द्रवि॑णमष्टु मनु॒ष्यान॒न्तरि॑क्षमगन् य॒ज्ञस्ततो॑ मा॒ द्रवि॑णमष्टु पि॒तॄन् पृ॑थि॒वीम॑गन् य॒ज्ञस्ततो॑ मा॒ द्रवि॑णमष्टु॒ यं कं च॑ लो॒कमग॑न् य॒ज्ञस्ततो॑ मे भ॒द्रम॑भूत्॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वान्। दिव॑म्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मा॒। द्रवि॑णम्। अ॒ष्टु॒। म॒नु॒ष्या᳖न्। अ॒न्तरि॑क्षम्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मा॒। द्रवि॑णम्। अ॒ष्टु॒। पि॒तॄन्। पृ॒थि॒वीम्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मा॒। द्रवि॑णम्। अ॒ष्टु॒। यम्। कम्। च॒। लो॒कम्। अ॒ग॒न्। य॒ज्ञः। ततः॑। मे॒। भ॒द्रम्। अ॒भू॒त् ॥६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवान्दिवमगन्यज्ञस्ततो मा द्रविणमष्टु मनुष्यानन्तरिक्षमगन्यज्ञस्ततो मा द्रविणमष्टु पितऋृन्पृथिवीमगन्यज्ञस्ततो मा द्रविणमष्टु यङ्कञ्च लोकमगन्यज्तो मे भद्रमभूत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवान्। दिवम्। अगन्। यज्ञः। ततः। मा। द्रविणम्। अष्टु। मनुष्यान्। अन्तरिक्षम्। अगन्। यज्ञः। ततः। मा। द्रविणम्। अष्टु। पितॄन्। पृथिवीम्। अगन्। यज्ञः। ततः। मा। द्रविणम्। अष्टु। यम्। कम्। च। लोकम्। अगन्। यज्ञः। ततः। मे। भद्रम्। अभूत्॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 60
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - जो (यज्ञ:) यज्ञ सर्वांसाठी करणीय आहे, (दिवम्) जो विद्येचा प्रकाश देतो आणि (देवाम्) दिव्य भोगांची प्राप्ती करवितो आणि ज्या यज्ञास विद्वानांनी प्राप्त केले (यज्ञापासून नाभान्सि झाले) (तत:) त्या यज्ञापासून (मा) मला (गृहस्थाला) (द्रविणम्) विद्या आदी गुण (अष्टु) प्राप्त व्हावेत (अशा मी इच्छा करतो) तसेच जो यज्ञ (अन्तरिक्षम्) मेघमंडळापर्यंत जातो आणि (मनुष्यान्) मनुष्यांना प्राप्त होतो (लाभ देतो) तसेच ज्या यज्ञाचे भद्रजण (अगन्) आयोजन करतात, (तत:) त्या यज्ञापासून (मा) मला (गृहस्थाला) (द्रविणम्) धन आदी पदार्थ (अष्टु) प्राप्त व्हावेत. जो यज्ञ (पृथिवीम्) पृथ्वी आणि (पितृन्) वसंत आदी ऋतूंना प्राप्त होतो, (यज्ञामुळे ऋतू फलदायी होतात) आणि ज्या यज्ञाला आप्तजनांनी (अनग्) प्राप्त केले आहे, (तत:) त्या यज्ञापासून (मा) मला (द्रविणम्) प्रत्येक ऋतूचा आनंद (अष्टु) प्राप्त करता येतो (अशी इच्छा मी करीत आहे) (यज्ञ:) जो यज्ञ (कम्) कोणत्याही (च) (लोकम्) लोकाला (पृथ्वी व्यतिरिक्त अन्य लोकांना) प्राप्त होतो (यज्ञाचा प्रभाव लोकांपर्यंत पोहचतो) आणि (यम्) ज्या यज्ञाला धर्मात्माजन (अगन्) प्राप्त करतात, (तत:) त्यापासून (मे) माझे (भद्रम्) कल्याण (अभूत) व्हावे, (अशी मी गृहस्थ इच्छा करीत आहे. त्या इच्छेच्या पूर्ततेसाठी विद्वान धर्मात्माजनांप्रमाणे मी देखील यज्ञाचे आयोजन करीन) ॥60॥

    भावार्थ - भावार्थ - ज्या यज्ञामुळे सर्व सुखांची उपलब्धी होते, त्याचे अनुष्ठान सर्व मनुष्यांनी का बरे करूं नये ॥60॥

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