ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 14
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अव॑ ते॒ हेळो॑ वरुण॒ नमो॑भि॒रव॑ य॒ज्ञेभि॑रीमहे ह॒विर्भिः॑। क्षय॑न्न॒स्मभ्य॑मसुर प्रचेता॒ राज॒न्नेनां॑सि शिश्रथः कृ॒तानि॑॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । ते॒ । हेळः॑ । व॒रु॒ण॒ । नमः॑ऽभिः । अव॑ । य॒ज्ञेभिः॑ । ई॒म॒हे॒ । ह॒विःऽभिः॑ । क्षय॑न् । अ॒स्मभ्य॑म् । अ॒सु॒र॒ । प्र॒चे॒त॒ इति॑ प्रऽचेतः । राज॑न् । एनां॑सि । शि॒श्र॒थः॒ । कृ॒तानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः। क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि॥
स्वर रहित पद पाठअव। ते। हेळः। वरुण। नमःऽभिः। अव। यज्ञेभिः। ईमहे। हविःऽभिः। क्षयन्। अस्मभ्यम्। असुर। प्रचेत इति प्रऽचेतः। राजन्। एनांसि। शिश्रथः। कृतानि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे राजन् प्रचेतोऽसुर वरुणास्मभ्यं विज्ञानप्रदातो भगवन् यतस्त्वमस्मत्कृतान्येनांसि क्षयन् सन्नवशिश्रथस्तस्माद्वयं नमोभिर्यज्ञेभिस्ते तव हेळोऽवेमहे मुख्यप्राणस्य वा॥१४॥
पदार्थः
(अव) क्रियार्थे (ते) तव (हेळः) हिड्यते विज्ञायते प्राप्यते यः सः (नमोभिः) नमस्कारैरन्नैर्जलैर्वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) जलनामसु वा। (निघं०१.१२) (अव) पृथगर्थे (यज्ञेभिः) कर्मोपासनाज्ञाननिष्पादकैः कर्मभिः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (ईमहे) बुध्यामहे (हविर्भिः) दातुं ग्रहीतुमर्हैः। अत्र अर्चिशुचिहुसृपि० (उणा०२.१०४) अनेन हु धातोरिसिः प्रत्ययः। (क्षयन्) विनाशयन् (अस्मभ्यम्) विद्यानुष्ठातृभ्यः (असुर) असुषु रमते तत्सम्बुद्धौ स वा (प्रचेतः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ स वा (राजन्) प्रकाशमान (एनांसि) पापानि (शिश्रथः) विज्ञानदानेन शिथिलानि करोतु (कृतानि) अनुचरितानि॥१४॥
भावार्थः
यैर्मनुष्यैर्यथा परमेश्वररचितसृष्टौ विज्ञापितेन बोधेन कृतानि पापकर्माणि फलैः शिथिलायन्ते तथानुष्ठातव्यम्। यथा ज्ञानरहितं पुरुषं कर्मफलानि पीडयन्ति तथा नैव ज्ञानसहितं पीडयितुं समर्थानि भवन्तीति वेद्यम्॥१४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह वरुण कैसा है, इस का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (राजन्) प्रकाशमान ! (प्रचेतः) अत्युत्तम विज्ञान (असुर) प्राणों में रमने (वरुण) अत्यन्त प्रशंसनीय (अस्मभ्यम्) हमको विज्ञान देनेहारे भगवन् जगदीश्वर ! जिसलिये हम लोगों के (कृतानि) किये हुए (एनांसि) पापों को (क्षयन्) विनाश करते हुए (अवशिश्रथः) विज्ञान आदि दान से उनके फलों को शिथिल अच्छे प्रकार करते हैं, इसलिये हम लोग (नमोभिः) नमस्कार वा (यज्ञेभिः) कर्म उपासना और ज्ञान और (हविर्भिः) होम करने योग्य अच्छे-अच्छे पदार्थों से (ते) आपका (हेळः) निरादर (अव) न कभी (ईमहे) करना जानते और मुख्य प्राण की भी विद्या को चाहते हैं॥१४॥
भावार्थ
जिन मनुष्यों ने परमेश्वर के रचे हुए संसार में पदार्थ करके प्रकट किये हुए बोध से किये पाप कर्मों को फलों से शिथिल कर दिया, वैसा अनुष्ठान करें। जैसे अज्ञानी पुरुष को पापफल दुःखी करते हैं, वैसे ज्ञानी पुरुष को दुःख नहीं दे सकते॥१४॥
विषय
फिर वह वरुण कैसा है, इस का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे राजन् प्रचेतः असुर वरुणः अस्मभ्यं विज्ञानप्रदातः भगवन् यतः त्वम् अस्मत् कृतानि एनांसि क्षयन् सन् अवशिश्रथः तस्मात् वयं नमोभिः यज्ञेभिः तव हेळः अव ईमहे मुख्य प्राणस्य वा॥१४॥
पदार्थ
हे (राजन्) प्रकाशमान= प्रकाशमान ! (प्रचेतः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ स वा=अत्युत्तम मन का विज्ञान है जिसका, (असुर) असुषु रमते तत्सम्बुद्धौ स वा=जिसकी बुद्धि में प्राणों में रमते हैं, (वरुणः)=श्रेष्ठ परमेश्वर. (अस्मभ्यम्) विद्यानुष्ठातृभ्यः=विद्या का अनुष्ठान करने वाले हम लोगें के लिये, (विज्ञानप्रदातः)=विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले हम लोगें के लिये, (भगवन्)=परमेश्वर, (यतः)=जिस कारण से, (त्वम्)=आप, (अस्मत्)=हमारे, (कृतानि) अनुचरितानि= किये हुए, (एनांसि) पापानि= पापों को, (क्षयन्+सन्) विनाशयन्= विनाश करते हुए, (अव) पृथगर्थे= पृथक्-पृथक् (शिश्रथः) विज्ञानदानेन शिथिलानि करोतु=विशिष्ट ज्ञान के दान से शिथिल करें, (तस्मात्)=इसलिये, (वयम्)=हम, (नमोभिः) नमस्कारैरन्नैर्जलैर्वा=अन्न या जल से नमस्कार करते है, (आदर), (यज्ञेभिः) कर्मोपासनाज्ञाननिष्पादकैः कर्मभिः=कर्म उपासना और ज्ञान के निष्पादन से, (तव)=आपके, (हेळः) हिड्यते विज्ञायते प्राप्यते यः सः=जोआपके प्रति अनादर का भाव प्राप्त होता है, वह, (वा)=और, (अव) पृथगर्थे=पृथक्-पृथक्, (ईमहे) बुध्यामहे=जानते हैं, (मुख्य)= मुख्य, (प्राणस्य)=प्राण के॥१४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जिन मनुष्यों ने परमेश्वर के रचे हुए संसार में पदार्थ करके प्रकट किये हुए बोध से किये पाप कर्मों को फलों से शिथिल कर दिया जाता है, वैसे ही अनुष्ठान करने चाहिए। जैसे अज्ञानी पुरुष को कर्मों के पापफल दुःखी करते हैं, वैसे ज्ञानी पुरुष को दुःखी करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं॥१४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (राजन्) प्रकाशमान ! (प्रचेतः) मन का विज्ञान अत्युत्तम है, जो (असुर) बुद्धि और प्राणों में रमते हैं। (वरुणः) श्रेष्ठ परमेश्वर, (अस्मभ्यम्) विद्या का अनुष्ठान करने और (विज्ञानप्रदातः) विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले हम लोगें के लिये (त्वम्) आप (भगवन्) परमेश्वर (यतः) जिस कारण से (अस्मत्) हमारे (कृतानि) किये हुए (एनांसि) पापों का (क्षयन्+सन्) विनाश करते हुए (अव) पृथक्-पृथक् (शिश्रथः) विशिष्ट ज्ञान के दान से उन पापों को शिथिल करें। (तस्मात्) इसलिये (वयम्) हम (नमोभिः) अन्न या जल से नमस्कार करते है। (यज्ञेभिः) कर्म, उपासना और ज्ञान के निष्पादन से (तव) आपके प्रति (हेळः) यदि कोई अनादर का भाव उत्पन्न होता है (वा) और (मुख्य) मुख्य (प्राणस्य) प्राण की विद्या को (अव) पृथक्-पृथक् रूप से (ईमहे) हम जानते हैं ॥१४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अव) क्रियार्थे (ते) तव (हेळः) हिड्यते विज्ञायते प्राप्यते यः सः (नमोभिः) नमस्कारैरन्नैर्जलैर्वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) जलनामसु वा। (निघं०१.१२) (अव) पृथगर्थे (यज्ञेभिः) कर्मोपासनाज्ञाननिष्पादकैः कर्मभिः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (ईमहे) बुध्यामहे (हविर्भिः) दातुं ग्रहीतुमर्हैः। अत्र अर्चिशुचिहुसृपि० (उणा०२.१०४) अनेन हु धातोरिसिः प्रत्ययः। (क्षयन्) विनाशयन् (अस्मभ्यम्) विद्यानुष्ठातृभ्यः (असुर) असुषु रमते तत्सम्बुद्धौ स वा (प्रचेतः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ स वा (राजन्) प्रकाशमान (एनांसि) पापानि (शिश्रथः) विज्ञानदानेन शिथिलानि करोतु (कृतानि) अनुचरितानि॥१४॥
विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे राजन् प्रचेतोऽसुर वरुणास्मभ्यं विज्ञानप्रदातो भगवन् यतस्त्वमस्मत्कृतान्येनांसि क्षयन् सन्नवशिश्रथस्तस्माद्वयं नमोभिर्यज्ञेभिस्ते तव हेळोऽवेमहे मुख्यप्राणस्य वा॥१४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यैर्मनुष्यैर्यथा परमेश्वररचितसृष्टौ विज्ञापितेन बोधेन कृतानि पापकर्माणि फलैः शिथिलायन्ते तथानुष्ठातव्यम्। यथा ज्ञानरहितं पुरुषं कर्मफलानि पीडयन्ति तथा नैव ज्ञानसहितं पीडयितुं समर्थानि भवन्तीति वेद्यम्॥१४॥
विषय
प्रभु के क्रोध से बचना व पापों से दूर होना
पदार्थ
१. हे वरुण - सब बन्धनों के निवारण करनेवाले प्रभो ! (ते हेळः) - आपके क्रोध को (नमोभिः) - नमस्कारों के द्वारा अथवा नम्रता - धारण के द्वारा अब (ईमहे) - दूर हुआ - हुआ चाहते हैं अथवा दूर करते हैं ।
२. (यज्ञेभिः) - देवपूजा , संगतीकरण व दानों के द्वारा (अव) [ईमहे] - आपके क्रोध को दूर करते हैं तथा
३. (हविर्भिः) - सदा दानपूर्वक अदन की वृत्तियों से (अव) - आपके क्रोध को हटाते हैं ।
४. हे (क्षयन्) - हमारे अन्दर निवास करते हुए सब गतियों के करनेवाले प्रभो ! हे (असर , अस्मभ्यम्) - हमारी सब बुराइयों को परे फेंकनेवाले प्रभो ! अथवा प्राणशक्ति का हममें सञ्चार करनेवाले प्रभो ! [असून राति] (प्रचेतः) - प्रकृष्ट चेतनावाले प्रभो ! (राजन्) - हमारे जीवनों को व्यवस्थित करनेवाले प्रभो ! (कृतानि) - अभ्यस्त (एनांसि) - पापों को (शिश्रथः) - शिथिल करने की कृपा करिए । वस्तुतः पापों को ढीला करने के लिए आवश्यक है कि हम [क] गतिशील बनें [क्षयन्] , [ख] प्राणशक्ति - सम्पन्न हों [असुर] , [ग] ज्ञान को बढ़ाने का प्रयत्न करें [प्रचेतः] , [घ] जीवन को व्यवस्थित करने का प्रयत्न करें [राजन्] ।
भावार्थ
भावार्थ - हम नम्रता , यज्ञ व हवि द्वारा प्रभु के क्रोध को दूर करें । गतिशील , प्राणशक्ति सम्पन्न , ज्ञानी व व्यवस्थित जीवनवाले बनकर हम अपनी पाप करने की आदत को दूर करें ।
विषय
शुनःशेप अर्थात् सुखाभिलाषी मुमुक्षु बद्ध जीव की प्रार्थना
भावार्थ
हे (वरुण) सबों से वरणीय, दुःखवारक परमेश्वर ! हम ( ते हेळ: ) तेरे प्रति अनादर, अवज्ञा और उपेक्षा द्वारा किये अपराध को ( नमोभिः ) नमस्कारों, ( हविर्भिः ) देने और स्वीकार करने योग्य उत्तम अन्नादि पदार्थों को देकर और ( यज्ञेभिः ) दान, उपासना आदि कर्मों से ( अव, अव ईमहे ) दूर करते हैं। हे ( प्रचेतः ) उत्कृष्ट ज्ञान वाले हे ( राजन् ) राजा के समान तेजस्विन् ! हृदय और संसार भर के राजन् ! हे ( असुर ) सबके प्राणों में रमने, प्राणों के देने और दुःखों के उखाड़ फेंकने वाले तू ( कृतानि ) हमारे किये कर्मों का ( क्षयन् ) भोग द्वारा क्षय कराता हुआ, तप द्वारा ( एनांसि शिश्रथः ) सब पाप कर्मों को भी शिथिल करदे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी परमेश्वरनिर्मित संसारात निर्माण केलेले पदार्थ पाहून पापकर्माचे फल शिथिल होईल असे अनुष्ठान करावे. जसे अज्ञानी पुरुषाला पापफळ दुःखी करतात, तसेच ज्ञानी पुरुषाला दुःख देत नाहीत. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Varuna, self-refulgent lord of omniscience, giver of knowledge, life of our breath, we pray for the gift of your light and favour with acts of homage, yajnas and holy offerings. Reducing and destroying our sins as you are, we pray, be kind and gracious to loosen the bonds of our actions performed.
Subject of the mantra
Then, what kind of that Vauņa (The supreme God) is, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (rājan)=resplendent, (pracetaḥ)=the specific knowledge of mind is excellent, [jo]=who, (asura)=feel delighted in wisdom and vital breath, (varuṇaḥ)=the Supreme God, (asmabhyam)=provider of specific knowledge, [aur]=and, (vijñānapradātaḥ)=for us being observers of the knowledge, (tvam)=you, (bhagavan)=God, (yataḥ)=due to which reason, (asmat)=our, (kṛtāni)=done, (enāṃsi)=sins, (kṣayan+san)=destroying, (ava)=separatelty, (śiśrathaḥ)=slacken with the endowment of specialized knowledge, (tasmāt)=therefore, (vayam)=we, (namobhiḥ)=respect with food or water. (salutation), (yajñebhiḥ)=By the performance of deeds worship and knowledge, (tava)=against you, (heḻaḥ)=If any disrespect arises against you, (vā)=and, (mukhya)=main, (prāṇasya)=the knowledge of vital breath, (ava) =separately, (īmahe)=we know.
English Translation (K.K.V.)
O Resplendent! The specific knowledge of mind is excellent, who feel delighted in wisdom and vital breath. The Supreme God, provider of specific knowledge and being the observers of the knowledge for us. You God! Due to which reason you destroy our sins, slacken with the endowment of specialized knowledge, separately. Therefore, we respect with food or water. If any sense of disrespect arises towards you by the performance of karma, worship and knowledge and we know separately the knowledge of main life breath.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those who have committed their sinful deeds by the realization manifested by revealing the material in the world created by the God, are pacified by the rewards, similarly rituals should be performed. Just as the sinful results of actions make an ignorant man sad, similarly they cannot be able to make a wise man sad.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of Varuna is taught further in the fourteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Resplendent Omniscient God dwelling in our Pranas or vital breaths, O Giver of knowledge to us, as Thou loose nest the bonds of the sins committed by us (by giving true knowledge) therefore, we desire to acquire Thy knowledge by homages, by Yajnas (noble deeds consisting of knowledge, communion with God and good actions) and by putting in fire the articles worthy of being given and taken.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(हेड:) हिड्यते विज्ञायते प्राप्यते यः सः । Knowledge—that which is known or attained. नमस्कारैः, अन्नै, जलैर्वा नम इत्यन्ननामसु पठितम् (निघ० १.७ ) नम इति जलनामसु ( निघ० १.१२ ) (यज्ञेभिः) कर्मोपासनाज्ञाननिष्पादकैः कर्मभिः अत्र बहुलं छन्दसीतिभिस ऐस् न । By actions producing noble deeds, communion with God and knowledge. (हविर्भिः) दातुंग्रहीतुम हैं: । अत्र अर्चिशुचिहसृ पिछादिछर्दिभ्य इसिः ।। ( उणादि २.१०९ ) इति हु-दानादनयोः आदाने च इति धातोः इसिप्रत्यय: ( असुर ) असुषु रमते तत्सम्बुद्धौ = Dwelling in breaths. ( शिश्रथ:) विज्ञानदानेन शिथिलानि करोतु = May loosen by giving knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should act in such a way that the sinful acts done by them may become loose by the enjoyment of their fruits and by the acquisition of knowledge. Men should also know that the fruits of actions trouble more an ignorant person than a man of wisdom.
Translator's Notes
Sayanacharya, Wilson, Griffith and other commentators or translators of this Hymn have translated the words हेड: used here as क्रोधम् (सायण:) wrath (Wilson) anger (Griffith) but Rishi Dayananda has taken it in the sense of knowledge. The verb root from which the word हेड: is derived has got two meanings हिडि-गत्यनादरयो: Going and disregarding. Rishi Dayananda has taken the first meaning of which includes ज्ञान, गमन, प्राप्ति therefore he has explained it as हिड्यने विज्ञायते प्राप्यते यः सः that which is known or obtained. (यज्ञेभि:) has been interpreted by Rishi Dayananda in the wise sense of कर्मोपासनाज्ञाननिष्पादकै: कर्मभिः as is यज-देवपूजासंगतिकरणदानेपु derived from and therefore includes all the three elements of knowledge, action and communion. Karma is included in संगतिकरण ( association with others for bringing about the welfare of society) and दान (Charity). ज्ञान is implied by देवपूजा respect for the wise who impart knowledge and then acquiring knowledge from them as the first daily Yajna ब्रह्म यज्ञ includes संध्या (Meditation on or communion with God) and the study of the Vedas or Holy Scriptures. Thus Rishi Dayananda's interpretation is substantiated by the root-meaning of यज and by the verses of the Bhagavad Gita etc. where explaining various kinds of Yajnas, it is stated-द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञाः, योगयज्ञास्तथाऽपरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ 7 (गीता अ० ४.२८)
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