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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श॒तं ते॑ राजन्भि॒षजः॑ स॒हस्र॑मु॒र्वी ग॑भी॒रा सु॑म॒तिष्टे॑ अस्तु। बाध॑स्व दू॒रे निर्ऋ॑तिं परा॒चैः कृ॒तं चि॒देनः॒ प्र मु॑मुग्ध्य॒स्मत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । ते॒ । रा॒ज॒न् । भि॒षजः॑ । स॒हस्र॑म् । उ॒र्वी । ग॒भी॒रा । सु॒ऽम॒तिः । ते॒ । अ॒स्तु॒ । बाध॑स्व । दू॒रे । निःऽऋ॑तिम् । परा॒चैः । कृ॒तम् । चि॒त् । एनः॒ । प्र । मु॒मु॒ग्धि॒ । अ॒स्मत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु। बाधस्व दूरे निर्ऋतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। ते। राजन्। भिषजः। सहस्रम्। उर्वी। गभीरा। सुऽमतिः। ते। अस्तु। बाधस्व। दूरे। निःऽऋतिम्। पराचैः। कृतम्। चित्। एनः। प्र। मुमुग्धि। अस्मत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ यौ राजप्रजापुरुषौ स्तस्तौ कीदृशौ भवेतामित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे राजन् प्रजाजन वा ! यस्य भिषजस्ते तव शतमौषधानि सहस्रसंख्याता गम्भीरोर्वी भूमिरस्ति, तां त्वं सुमतिर्भूत्वा निर्ऋतिं भूमिं रक्ष, दुष्टस्वभावं प्राणिनं दुष्कर्मणः प्रमुमुग्धि, यत्पराचैः कृतमेनोऽस्ति तदस्मद्दूरे रक्षैतान् पराचो दुष्टान् स्वस्वकर्मानुसारफलदानेन बाधस्वास्मान् शत्रुचोरदस्युभयाख्यात् पापात् प्रमुमुग्धि सम्यग् विमोचय॥९॥

    पदार्थः

    (शतम्) असंख्यातान्यौषधानि (ते) तव राज्ञः प्रजापुरुषस्य वा (राजन्) प्रकाशमान ! (भिषजः) सर्वरोगनिवारकस्य वैद्यस्य (सहस्रम्) असंख्याता (उर्वी) विस्तीर्णा भूमिः (गभीराः) अगाधा (सुमतिः) शोभना चासौ मतिर्विज्ञानं यस्य सः (ते) तव। अत्र युष्मत्तत्ततक्षु० (अष्टा०८.३.१०३) अनेन मूर्द्धन्यादेशः (अस्तु) भवतु (बाधस्व) दुष्टशत्रून् दोषान् वा निवारय (दूरे) विप्रकृष्टे (निर्ऋतिम्) भूमिम्। निर्ऋतिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (पराचैः) धर्मात् पराङ्मुखैः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस्भावः कृतः (कृतम्) आचरितम् (चित्) एव (एनः) पापम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (मुमुग्धि) त्यज मोचय वा। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात्॥९॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यौ राजप्रजाजनौ पापसर्वरोगनिवारकौ पृथिव्याधारकावुत्कृष्टबुद्धि-प्रदातारौ धार्मिकेभ्यो बलप्रदानेन दुष्टानां बाधनहेतू भवतस्तावेव नित्यं सङ्गन्तव्यौ नैव कस्यचित् पापं भोगेन विना निवर्त्तते, किन्तु यद्भूतवर्त्तमानभविष्यत्काले च पापं कृतवान् करोति करिष्यति वा तन्निवारणार्थाः खलु प्रार्थनोपदेशपुरुषार्था भवन्तीति वेदितव्यम्॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब जो राजा और प्रजा के मनुष्य हैं, वे किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (राजन्) हे प्रकाशमान प्रजाध्यक्ष वा प्रजाजन ! जिस (भिषजः) सर्व रोग निवारण करनेवाले (ते) आपकी (शतम्) असंख्यात औषधि और (सहस्रम्) असंख्यात (गभीरा) गहरी (उर्वी) विस्तारयुक्त भूमि है, उस (निर्ऋतिम्) भूमि की (त्वम्) आप (सुमतिः) उत्तम बुद्धिमान् हो के रक्षा करो, जो दुष्ट स्वभावयुक्त प्राणी के (प्रमुमुग्धि) दुष्ट कर्मों को छुड़ादे और जो (पराचैः) धर्म से अलग होनेवालों ने (कृतम्) किया हुआ (एनः) पाप है, उसको (अस्मत्) हम लोगों से (दूरे) दूर रखिये और उन दुष्टों को उनके कर्म के अनुकूल फल देकर आप (बाधस्व) उनकी ताड़ना और हम लोगों के दोषों को भी निवारण किया कीजिये॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि जो सभाध्यक्ष और प्रजा के उत्तम मनुष्य पाप वा सर्वरोग निवारण और पृथिवी के धारण करने, अत्यन्त बुद्धि बल देकर दुष्टों को दण्ड दिलवानेवाले होते हैं, वे ही सेवा के योग्य हैं और यह भी जानना कि किसी का किया हुआ पाप भोग के विना निवृत्त नहीं होता और इसके निवारण के लिये कुछ परमेश्वर की प्रार्थना वा अपना पुरुषार्थ करना भी योग्य ही है, किन्तु यह तो है जो कर्म जीव वर्त्तमान में करता वा करेगा, उसकी निवृत्ति के लिये तो परमेश्वर की प्रार्थना वा उपदेश भी होता है॥९॥

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    विषय

    अब जो राजा और प्रजा के मनुष्य हैं, वे किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे राजन् प्रजाजन वा ! यस्य भिषजः ते(तव) शतम् औषधानि सहस्रसंख्याता गम्भीरा उर्वी(भूमिः) अस्ति तां त्वं सुमतिः भूत्वा निर्ऋतिं (भूमिम्) रक्ष दुष्टस्वभावं प्राणिनं दुष्कर्मणः प्रमुमुग्धि, यत् पराचैः कृतम् एनः अस्ति तत् अस्मद् दूरे रक्ष एतान् पराचः दुष्टान् स्वस्व कर्मानुसार फलदानेन बाधस्व अस्मान् शत्रुचोरदस्युभयाख्यात् पापात् प्रमुमुग्धि सम्यग् विमोचय॥९॥

    पदार्थ

    हे (राजन्) प्रकाशमान राजा (वा)=अथवा, (प्रजाजन)= प्रजाजनों ! (यस्य)=जिनके, (भिषजः) सर्वरोगनिवारकस्य वैद्यस्य= सर्व रोग निवारण करनेवाले वैद्य के, (ते) तव राज्ञः प्रजापुरुषस्य वा=आप राजपुरुष या प्रजाजन की, (शतम्) असंख्यातान्यौषधानि औषधानि=असंख्यात औषधि और (सहस्रम्) असंख्याता= असंख्यात, (गभीराः) अगाधा=अगाध, (उर्वी) विस्तीर्णा भूमिः अस्ति= विस्तारयुक्त भूमि है, (ताम्)=उस, (त्वम्)=आप को, (सुमतिः) शोभना चासौ मतिर्विज्ञानं यस्य सः=उत्तम बुद्धिमान् (भूत्वा)=हो के, (निर्ऋतिम्) भूमिम्=भूमि की, (रक्ष)=रक्षा करो, (दुष्टस्वभावम्)= दुष्टस्वभाव के, (प्राणिनम्)=प्राणि को, (दुष्कर्मणः)=बुरे कर्म करने वालों के, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (मुमुग्धि) त्यज मोचय वा=दुष्ट कर्मों को छुड़ादे, (यत्)=जो, (पराचैः) धर्मात् पराङ्मुखैः=धर्म के विपरीत, (कृतम्) आचरितम्=आचरण करता है, (एनः) पापम्=पापी, (अस्ति)=है, (तत्)=उसको, (अस्मद्)=हमसे, (दूरे) विप्रकृष्टे=दूर रखते  हुए, (रक्ष)=उनसे रक्षा कीजिये, (एतान्)=इन, (पराचः)=धर्म के विपरीत कार्य करने वाले, (दुष्टान्)=दुष्टों को, (स्वस्व)=अपने-अपने, (कर्मानुसार)=कर्मानुसार, (फलदानेन)=फल देने से, (बाधस्व) दुष्टशत्रून् दोषान् वा निवारय=दुष्ट शत्रुओं के दोषों का भी निवारण कीजिये, (अस्मान्)=हमें, (शत्रुचोरदस्युभयाख्यात्)=शत्रु, चोर और दस्यओं नाम के  भय से और (पापात्)=पाप से, (प्र) प्रकृष्टार्थे=अच्छी तरह से, (सम्यग्)=अच्छी तरह से, (मुमुग्धि) त्यज मोचय वा=छुड़ादें या निवारण कर दीजिये ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा जो राजा और प्रजाजनों के पाप और सर्वरोग निवारक, पृथिवी के धारण करनेवाले, उत्कृष्ट बुद्धि प्रदान करनेवाले धार्मिकों को बल प्रदान करके और दुष्टों को रोकने हेतु दोनों तरफ से उनकी तरह से संगति करते हैं और किसी पाप का फल भोगे विना अत्यन्त बुद्धि बल देकर दुष्टों को दण्ड दिलवानेवाले होते हैं, वे ही सेवा के योग्य हैं और यह भी जानना चाहिए कि किसी का किया हुआ पाप भोग के विना नहीं रुकते हैं। किन्तु जो भूत में पाप किये हुए हैं, वर्त्तमान में पाप कर रहे है और भविष्यत् काल में भी पाप करेंगे। उसके निवारण के लिए निश्चय ही प्रार्थना, उपदेश और पुरुषार्थ होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (राजन्) प्रकाशमान राजा (वा) अथवा (प्रजाजन) प्रजाजन ! (यस्य) जिस (भिषजः) समस्त रोग निवारण करनेवाले वैद्य के (ते) आप राजपुरुष या प्रजाजन की (शतम्)  असंख्यात औषधि और (सहस्रम्) असंख्यात (गभीराः) अगाध (उर्वी) यह विस्तारयुक्त भूमि है। (ताम्) उसको (त्वम्) आप (सुमतिः) उत्तम बुद्धिमान् (भूत्वा) हो के (निर्ऋतिम्) भूमि की (रक्ष) रक्षा करो। (दुष्टस्वभावम्) दुष्टस्वभाव के (दुष्कर्मणः) बुरे कर्म करने वालों (प्राणिनम्) प्राणियों के (प्र) प्रकृष्ट रूप से (मुमुग्धि) दुष्ट कर्मों को छुड़ादें। (यत्) जो (पराचैः) धर्म के विपरीत (कृतम्) आचरण करता है और (एनः) पापी (अस्ति) है। (तत्) उसको (अस्मद्) हमसे (दूरे) दूर रखते  हुए (रक्ष) उनसे रक्षा कीजिये। (एतान्) इन (पराचः) धर्म के विपरीत कार्य करने वाले (दुष्टान्) दुष्टों को (स्वस्व) उनके अपने-अपने (कर्मानुसार) कर्मानुसार (फलदानेन)  फल देने से (बाधस्व) दुष्ट शत्रुओं के दोषों का भी निवारण कीजिये। (अस्मान्) हमें (शत्रुचोरदस्युभयाख्यात्) शत्रु, चोर और दस्यओं के नाम से  भय और (पापात्) पाप (प्र) अच्छी तरह से (मुमुग्धि) छुड़ादें या निवारण कर दीजिये ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (शतम्) असंख्यातान्यौषधानि (ते) तव राज्ञः प्रजापुरुषस्य वा (राजन्) प्रकाशमान ! (भिषजः) सर्वरोगनिवारकस्य वैद्यस्य (सहस्रम्) असंख्याता (उर्वी) विस्तीर्णा भूमिः (गभीराः) अगाधा (सुमतिः) शोभना चासौ मतिर्विज्ञानं यस्य सः (ते) तव। अत्र युष्मत्तत्ततक्षु० (अष्टा०८.३.१०३) अनेन मूर्द्धन्यादेशः (अस्तु) भवतु (बाधस्व) दुष्टशत्रून् दोषान् वा निवारय (दूरे) विप्रकृष्टे (निर्ऋतिम्) भूमिम्। निर्ऋतिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (पराचैः) धर्मात् पराङ्मुखैः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस्भावः कृतः (कृतम्) आचरितम् (चित्) एव (एनः) पापम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (मुमुग्धि) त्यज मोचय वा। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात्॥९॥
    विषयः- अथ यौ राजप्रजापुरुषौ स्तस्तौ कीदृशौ भवेतामित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे राजन् प्रजाजन वा ! यस्य भिषजस्ते तव शतमौषधानि सहस्रसंख्याता गम्भीरोर्वी भूमिरस्ति, तां त्वं सुमतिर्भूत्वा निर्ऋतिं भूमिं रक्ष, दुष्टस्वभावं प्राणिनं दुष्कर्मणः प्रमुमुग्धि, यत्पराचैः कृतमेनोऽस्ति तदस्मद्दूरे रक्षैतान् पराचो दुष्टान् स्वस्वकर्मानुसारफलदानेन बाधस्वास्मान् शत्रुचोरदस्युभयाख्यात् पापात् प्रमुमुग्धि सम्यग् विमोचय॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यौ राजप्रजाजनौ पापसर्वरोगनिवारकौ पृथिव्याधारकावुत्कृष्टबुद्धि-प्रदातारौ धार्मिकेभ्यो बलप्रदानेन दुष्टानां बाधनहेतू भवतस्तावेव नित्यं सङ्गन्तव्यौ नैव कस्यचित् पापं भोगेन विना निवर्त्तते, किन्तु यद्भूतवर्त्तमानभविष्यत्काले च पापं कृतवान् करोति करिष्यति वा तन्निवारणार्थाः खलु प्रार्थनोपदेशपुरुषार्था भवन्तीति वेदितव्यम्॥९॥

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    विषय

    औषध व औषधज्ञान

    पदार्थ

    १. (राजन्) - सबको व्यवस्थित करनेवाले प्रभो! (ते) - आपकी (भिषजः) - ओषधियाँ (शतम्) - सैकड़ों हैं , (सहस्त्रम्) - हजारों हैं । प्रभु के बनाये हुए सभी वानस्पतिक पदार्थ औषधरूप हैं । 

    २. परन्तु इन ओषधियों का समुचित प्रयोग ज्ञान के बिना सम्भव नहीं , अतः कहते हैं कि - हे प्रभो! (ते) - आपका (उर्वी) - विशाल (गभीरा) - गम्भीर (सुमतिः) - उत्तम ज्ञान भी (अस्तु) - हमें प्राप्त हो । 

    ३. ज्ञान के द्वारा इन औषधों का ठीक प्रयोग करवाकर हे प्रभो! आप (निर्ऋतिम्) - रोगादि के कारण होनेवाली दुर्गति को (पराचैः) - पराङ्मुख गमनों से (दूरे बाधस्व) - हमसे दूर ही रोक दीजिए । रोग हमारे पास फटकें ही नहीं । दूसरे शब्दों में ये औषधद्रव्य रोगों का प्रतिकार [cure] ही नहीं करते , वे उन्हें आने से रोकनेवाले भी हैं [Preventive]| 

    ४. हे प्रभो! इस ज्ञान के द्वारा (कृतं चित् एनः) - उस पाप को जिसका कि हमें कुछ अभ्यास - सा पड़ गया है , (अस्मत्) - हमसे (प्रमुमुग्धि) - छुड़ा दीजिए । ज्ञान हमारे शारीरिक रोगों का ही निवर्तक न हो , यह हमारे मानस रोगों को भी दूर करनेवाला हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें वरुण के औषध - द्रव्य प्राप्त हों , साथ ही गम्भीर ज्ञान प्राप्त हो । ज्ञान द्वारा औषध - प्रयोग से हम शारीरिक कष्टों को अपने से दूर करें और अभ्यस्त अशुभवृत्तियों को भी छोड़ पाएँ । 

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( राजन् ) राजन् ! प्रकाशमान परमेश्वर ! (ते) तेरे (शतं ) सैकड़ों और ( सहस्रं ) हज़ारों ( भिषजः ) रोग और बाधक शत्रुओं के निवारण करनेवाले औषधों और वैद्यों के समान उपाय हैं । अथवा—( ते भिषजः ) तुझ वैद्य के समान सर्वकष्ट निवारक परमेश्वर के बनाये ( शतं ) सैकड़ों और ( सहस्रं ) हज़ारों उपाय कष्टों से बचने के हैं । (ते) तेरी ही ( गम्भीरा ) यह गम्भीर, अगाध ( उर्वी ) पृथिवी है ( ते सुमतिः अस्तु ) तेरी ही शुभ कल्याणकारी मति सदा रहे । अथवा (ते उर्वी गम्भीरा सुमतिः अस्तु ) तेरा विशाल और गम्भीर उत्तम ज्ञान हमें प्राप्त हो । तू (निर्ऋतिं) पाप प्रवृत्ति और दुःखदायी कष्ट करनेवाली शत्रुसेना को ( दूरे ) दूर ही ( बाधस्व ) पीड़ित कर । ( कृतं चित् ) किये हुए ( एनः ) अपराध को भी ( अस्मत् पराचैः ) हम से परे ( प्र मुमुग्धि ) हटा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की सभाध्यक्ष व राज्यातील उत्तम प्रजाजन हे पाप व रोगांचे निवारण करणारे असून, पृथ्वीला धारण करणारे, बुद्धिबलाने धार्मिकांना बल देणारे व दुष्टांना दंड देणारे असतात. त्यांचीच नित्य संगत धरावी. कुणाचेही पाप भोगल्याशिवाय नाहीसे होत नाही. त्याच्या निवारणासाठी परमेश्वराची प्रार्थना व स्वतःचा पुरुषार्थही केला पाहिजे. जे पापकर्म जीव वर्तमानामध्ये करतो किंवा भविष्यात करील त्याच्या निवृत्तीसाठी परमेश्वराची प्रार्थना किंवा उपदेश असतो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Glorious ruler, hundred are your healing balms and medicaments, thousands your wide earths, and deep is your noble intelligence. Drive off adversity far away. And whatever sin is committed by the wicked, keep away, and liberate us.

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    Subject of the mantra

    What kind of the king and those citizens should be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (rājan)=radiant king, (vā)=or, (prajājana)=subjects, (yasya)=that, (bhiṣajaḥ)=doctor(vaidya) who cures all diseases, (te)=you statesman or public person, (śatam) =enumerable medicinal herbs, [aura]=and, (sahasram) =enumerable, (gabhīrāḥ)=profound, (urvī)=this comprehensive land is, (tām)=to that, (tvam)=you, (sumatiḥ)=most intelligent, (bhūtvā)=becoming (nirṛtim)=of earth, (rakṣa)=protect, (duṣṭasvabhāvam)=bad temper, [aur]=and, (duṣkarmaṇaḥ)=evil doers, (prāṇinam)=of living beings, (pra)=well, (mumugdhi)=Get rid of evil deeds, (yat)=which, (parācaiḥ)=contrary to religion, (kṛtam)=has conduct, [aura]=and, (enaḥ)=sinner, (asti)=is, (tat)=him, (asmad)=from us, (dūre)=keeping away, (rakṣa)=protect from them, (etān)=these, (parācaḥ)= heretics, (duṣṭān)=to the wicked, (svasva)=their own, (karmānusāra)=according to the deeds, (phaladānena)=by giving rewards, (bādhasva)=also remove the faults of evil enemies, (asmān)=to us, (śatrucoradasyubhayākhyāt)=fear in the name of enemies, thieves and dacoits, [aur]=and, (pāpāt)=sin, (pra)=properly, (mumugdhi)=Get rid of evil deeds or stave off.

    English Translation (K.K.V.)

    O radiant king or subjects of that doctor (vaidya)! Who cures all diseases, you statesman or citizen, with enumerable medicinal herbs and of this profound comprehensive land. To that, becoming most intelligent you protect earth. Get rid of evil deeds well of bad temper of evil doers, which has conduct contrary to the righteousness and is a sinner. Keep away him from us and protect us from them; and also remove the rewards of evil enemies of these heretics, wicked by giving rewards according to their own deeds. For us, get rid of sins and evil deeds or stave off properly from fear in the name of enemies, thieves and dacoits.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. By men who associate with the king and the subjects on both sides to prevent the sins and diseases of the people, who hold the earth, give strength to the righteous, and stop the wicked and without incurring the consequences of any sin, the wicked are punished with great power, they are worthy of service and should also know that the sins committed by anyone do not stop without enjoyment. But those who have committed sins in the past are committing sins in the present and will also commit sins in the future. There is definitely prayer, preaching and efforts to get rid of it, such should be known that.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should be the rulers and their subjects is taught in the ninth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O rulers or subjects, your physician, who is the destroyer of all diseases, has a hundred, nay a thousand healing balms or medicaments. Deep or wide-reaching be your good intellect. Being endowed with that wisdom. protect the earth. Keep away from us a man of un-righteous nature. Put away from us the sin committed by wicked persons and destroy them by giving them suitable punishment for their ignoble deeds. Liberate us from the sin in the form of the fear from enemies, thieves and plunderers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भिषज:) सर्वरोगनिवारकस्य वैद्यस्य = of the physician. (निर्ऋतिम्) भूमिम् निर्ऋतिरितिपृथिवीनामसु = Earth. (पराचैः) धर्मात् पराङ्मुखैः = By up righteous persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should associate themselves only with those rulers and subjects who are removers of all sins and diseases, who are upholders of the earth, are givers of good advice, are preventers of the unrighteous by giving support and strength to the righteous. No one's sins can be destroyed without reaping the consequences. But prayers, sermons and exertions are meant for the removal of those sins committed in the past, being committed at present and likely to be committed in the future.

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