ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒ग्नेर्व॒यं प्र॑थ॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑। स नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात्पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नेः । व॒यम् । प्रथ॒मस्य॑ । अ॒मृता॑नाम् । मना॑महे । चारु॑ । दे॒वस्य॑ । नाम॑ । सः । नः॑ । म॒ह्यै । अदि॑तये । पुनः॑ । दा॒त् । पि॒तर॑म् । च॒ । दृ॒शेय॑म् । मा॒तर॑म् । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥
स्वर रहित पद पाठअग्नेः। वयम्। प्रथमस्य। अमृतानाम्। मनामहे। चारु। देवस्य। नाम। सः। नः। मह्यै। अदितये। पुनः। दात्। पितरम्। च। दृशेयम्। मातरम्। च॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
एतयोः प्रश्नयोरुत्तरे उपदिश्येते।
अन्वयः
वयं यस्याग्नेर्ज्ञानस्वरूपस्यामृतानां प्रथमस्यानादेर्देवस्य चारु नाम मनामहे, स एव नोऽस्मभ्यं मह्या अदितये पुनर्जन्म दात् ददाति, यतश्चाहं पुनः पितरं मातरं च स्त्रीपुत्रबन्ध्वादीनपि दृशेयं पश्येयम्॥२॥
पदार्थः
(अग्नेः) यस्य ज्ञानस्वरूपस्य (वयम्) विद्वांसः सनातना जीवाः (प्रथमस्य) अनादिस्वरूपस्यैवाद्वितीयस्य परमेश्वरस्य (अमृतानाम्) विनाशधर्मरहितानां जगत्कारणानां वा प्राप्तमोक्षानां जीवानां मध्ये (मनामहे) विजानीयाम् (चारु) पवित्रम् (देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सृष्टौ सकलपदार्थानां दातुः (नाम) आह्वानम् (सः) जगदीश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (मह्यै) महागुणविशिष्टायाम् (अदितये) पृथिव्याम् (पुनः०) इत्यारभ्य निरूपितपूर्वार्थानि पदानि विज्ञेयानि॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! वयं यमनादिममृतं सर्वेषामस्माकं पापपुण्यानुसारेण फलव्यवस्थापकं जगदीश्वरं देवं निश्चिनुमः। यस्य न्यायव्यवस्थया पुनर्जन्मानि प्राप्नुमो यूयमप्येतमेव देवं पुनर्जन्मदातारं विजानीत, न चैतस्मादन्यः कश्चिदर्थ एतत्कर्म कर्तुं शक्नोति। अयमेव मुक्तानामपि जीवानां महाकल्पान्ते पुनः पापपुण्यतुल्यतया पितरि मातरि च मनुष्यजन्म कारयतीति च॥२॥
हिन्दी (6)
विषय
इन प्रश्नों के उत्तर अगले मन्त्र में प्रकाशित किये हैं-
पदार्थ
हम लोग जिस (अग्ने) ज्ञानस्वरूप (अमृतानाम्) विनाश धर्मरहित पदार्थ वा मोक्ष।प्राप्त जीवों में (प्रथमस्य) अनादि विस्तृत अद्वितीय स्वरूप (देवस्य) सब जगत् के प्रकाश करने वा संसार में सब पदार्थों के देनेवाले परमेश्वर का (चारु) पवित्र (नाम) गुणों का गान करना (मनामहे) जानते हैं, (सः) वही (नः) हमको (मह्यै) बड़े-बड़े गुणवाली (अदितये) पृथिवी के बीच में (पुनः) फिर जन्म (दात्) देता है, जिससे हम लोग (पुनः) फिर (पितरम्) पिता (च) और (मातरम्) माता (च) और स्त्री-पुत्र-बन्धु आदि को (दृशेयम्) देखते हैं॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! हम लोग जिस अनादिस्वरूप सदा अमर रहने वा जो हम सब लोगों के किये हुए पाप और पुण्यों के अनुसार यथायोग्य सुख-दुःख फल देनेवाले जगदीश्वर देव को निश्चय करते और जिसकी न्याययुक्त व्यवस्था से पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं, तुम लोग भी उसी देव को जानो, किन्तु इससे और कोई उक्त कर्म करनेवाला नहीं है, ऐसा निश्चय हम लोगों को है कि वही मोक्षपदवी को पहुँचे हुए जीवों का भी महाकल्प के अन्त में फिर पाप-पुण्य की तुल्यता से पिता-माता और स्त्री आदि के बीच में मनुष्यजन्म धारण कराता है॥२॥
विषय
इन प्रश्नों के उत्तर इस मन्त्र में प्रकाशित किये हैं।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
]वयं यस्य अग्नेः ज्ञानस्वरूपस्य अमृतानां प्रथमस्य अनादेः देवस्य चारु नाम मनामहे स एव नः अस्मभ्यं मह्या अदितये पुनः जन्म दात् ददाति यतः च अहं पुनः पितरं मातरं च स्त्रीपुत्रबन्ध्वादीन् अपि दृशेयं पश्येयम्॥२॥
पदार्थ
(वयम्) विद्वांसः सनातना जीवाः= हम सनातन विद्वान् प्राणी, (यस्य)=जिस, (अग्नेः) ज्ञानस्वरूपस्य=ज्ञानस्वरूप के, (अमृतानाम्) विनाशधर्मरहितानां जगत्कारणानां वा प्राप्तमोक्षानां जीवानां मध्ये=विनाश धर्मरहित या जगत् के कारणरूप पदार्थ या मोक्ष प्राप्त जीवों में, (प्रथमस्य) अनादिस्वरूपस्यैवाद्वितीयस्य परमेश्वरस्य अनादेः=अनादि या अद्वितीय स्वरूप परमेश्वर के, (देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सृष्टौ सकलपदार्थानां=सब जगत् के प्रकाश करने या संसार में सब पदार्थों के देनेवाले परमेश्वर के, (चारु) पवित्रम्=पवित्र, (नाम) आह्वानम्=आह्वान को, (मनामहे) विजानीयाम्=जानते हैं, (सः) जगदीश्वरः=परमेश्वर, (एव)=ही, (नः) अस्मभ्यम्=हमें, (मह्यै) महागुणविशिष्टायाम्=बड़े-बड़े गुणवाली, (अदितये) पृथिव्याम्=पृथिवी के बीच में, (पुनः) इत्यारभ्य निरूपितपूर्वार्थानि पदानि विज्ञेयानि पितरम्=इससे आरम्भ से पूर्व के निरूपित अर्थों के पदों को, (जन्म)=जन्म, (दात्) ददाति=देते हैं, (यतः)=इसलिये, (च)=भी, (अहम्)=मैं, (पुनः) इत्यारभ्य निरूपितपूर्वार्थानि पदानि विज्ञेयानि=इससे आरम्भ से पूर्व के निरूपित अर्थों के पदों को, (पितरम्)=पिता, (मातरम्)=माता, (च)=और, (स्त्रीपुत्रबन्ध्वादीन्)=स्त्री पुत्र बन्धु आदि, (अपि)=भी, (दृशेयम्)=देखता हूँ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे मनुष्यो ! हम लोग जिस अनादिस्वरूप सदा अमर रहनेवाले या जो हम सब लोगों के किये हुए पाप और पुण्यों के अनुसार यथायोग्य फल देनेवाले जगदीश्वर देव निश्चय करते हैं। जिसकी न्याययुक्त व्यवस्था से पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं, तुम लोग भी उसी पुनर्जन्म देनेवाले देव को जानो, इस कर्म का इससे अन्य कोई अर्थ नहीं हो सकता है। यह ही मुक्तों को और जीवों को भी महाकल्प के अन्त में फिर पाप-पुण्य की तुल्यता से पिता-माता और स्त्री आदि के बीच में मनुष्य जन्म धारण कराता है॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(वयम्) हम सनातन विद्वान् प्राणी, (यस्य) जिस (अग्नेः) ज्ञानस्वरूप परमात्मा के (अमृतानाम्) विनाश धर्मरहित या जगत् के कारणरूप पदार्थ या मोक्ष प्राप्त जीवों में (प्रथमस्य) अनादि या अद्वितीय स्वरूप परमेश्वर के (देवस्य) सब जगत् के प्रकाश करने या संसार में सब पदार्थों के देनेवाले परमेश्वर के (चारु) पवित्र (नाम) आह्वान को (मनामहे) जानते हैं। (सः) परमेश्वर (एव) ही (नः) हमें (मह्यै) बड़े-बड़े गुणवाली (अदितये) पृथिवी के बीच में (पुनः) इससे आरम्भ से पूर्व के निरूपित अर्थों के पदों को (जन्म) जन्म (दात्) देते हैं। (यतः) इसलिये (च) भी (अहम्) मैं (पुनः) इससे आरम्भ से पूर्व के निरूपित अर्थों के पदों को, (पितरम्) पिता, (मातरम्) माता और (स्त्रीपुत्रबन्ध्वादीन्) स्त्री, पुत्र, बन्धु आदि (अपि) को भी (दृशेयम्) देखता हूँ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अग्नेः) यस्य ज्ञानस्वरूपस्य (वयम्) विद्वांसः सनातना जीवाः (प्रथमस्य) अनादिस्वरूपस्यैवाद्वितीयस्य परमेश्वरस्य (अमृतानाम्) विनाशधर्मरहितानां जगत्कारणानां वा प्राप्तमोक्षानां जीवानां मध्ये (मनामहे) विजानीयाम् (चारु) पवित्रम् (देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सृष्टौ सकलपदार्थानां दातुः (नाम) आह्वानम् (सः) जगदीश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (मह्यै) महागुणविशिष्टायाम् (अदितये) पृथिव्याम् (पुनः०) इत्यारभ्य निरूपितपूर्वार्थानि पदानि विज्ञेयानि॥२॥
विषयः- एतयोः प्रश्नयोरुत्तरे उपदिश्येते।
अन्वयः- वयं यस्याग्नेर्ज्ञानस्वरूपस्यामृतानां प्रथमस्यानादेर्देवस्य चारु नाम मनामहे, स एव नोऽस्मभ्यं मह्या अदितये पुनर्जन्म दात् ददाति, यतश्चाहं पुनः पितरं मातरं च स्त्रीपुत्रबन्ध्वादीनपि दृशेयं पश्येयम्॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! वयं यमनादिममृतं सर्वेषामस्माकं पापपुण्यानुसारेण फलव्यवस्थापकं जगदीश्वरं देवं निश्चिनुमः। यस्य न्यायव्यवस्थया पुनर्जन्मानि प्राप्नुमो यूयमप्येतमेव देवं पुनर्जन्मदातारं विजानीत, न चैतस्मादन्यः कश्चिदर्थ एतत्कर्म कर्तुं शक्नोति। अयमेव मुक्तानामपि जीवानां महाकल्पान्ते पुनः पापपुण्यतुल्यतया पितरि मातरि च मनुष्यजन्म कारयतीति च॥२॥
विषय
'अग्नि' नाम का स्मरण
पदार्थ
१. गतमन्त्र की भावना को ही पुनः कहते हैं कि (वयम्) - हम (अग्नेः) - अग्नि के , सारे संसार के अग्रणी उस प्रभु के (अमृतानां प्रथमस्य) - देवताओं में प्रथम स्थान में स्थित प्रभु के (देवस्य) - दिव्यगुणों से युक्त , प्रकाशमय , सब - कुछ देनेवाले प्रभु के (चारु नाम) - सुन्दर नाम का (मनामहे) - उच्चारण करते हैं , अर्थात् प्रभु का स्मरण करते हैं ।
२. (सः) - वे प्रभु (नः) - हमें (मह्या अदितये) - महनीय , उत्कृष्ट जन्म के (दात्) - देनेवाले हैं , जिससे उस उत्कृष्ट जीवन में हम (पुनः) - फिर (पितरम् च) - पिता को और (मातरम् च) - माता को (दृशेयम्) - देखनेवाले बनें । जिस समय एक बालक माता - पिता की आँखों से ओझल होता है , उसी समय वह मार्गभ्रष्ट हुआ करता है । इसी प्रकार हमारे जीवनों में भी हम प्रभु को भूले और भटके । प्रभु का स्मरण हमें भटकने से बचाता है ।
३. यह संसार इतना चमकीला व आर्कषक है कि इसमें न फंसना कठिन ही है । बस , प्रभु का नामस्मरण ही हमें वह शक्ति प्राप्त कराता है कि हम इस संसार में उलझते नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम 'अग्नि' नामक प्रभु का स्मरण करते हुए निरन्तर आगे बढ़ें और विषयासक्ति से सदा बचे रहें ।
विषय
मुक्ति से पुनरावृत्ति
शब्दार्थ
(वयम्) हम (अमृतानाम्) नित्य पदार्थों में (प्रथमस्य अग्ने: देवस्य) सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप, परमात्मदेव के (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम का स्मरण करें। (सः नः) वही परमात्मा हमें (मह्या अदितये) महती मुक्ति के लिए (पुन: दात्) फिर देता है और उसी से प्रेरणा पाकर (पितरं च मातरं च दृशेयम्) मैं माता और पिता के दर्शन करता हूँ ।
भावार्थ
१. मनुष्यों को सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ही जप,ध्यान एवं स्मरण करना चाहिए । २. वह प्रभु ही जीव को मुक्ति में पहुँचाता है। ३. वही परमात्मा मुक्त जीव को मुक्ति-सुख-भोग के पश्चात् माता-पिता के दर्शन कराता है, उसे जन्म धारण कराता है । ४. जन्म धारण करना, मुक्ति प्राप्त करना, पुनः जन्म धारण करना-यह एक क्रम है जो निरन्तर चलता रहता है और चलना भी चाहिए । यदि जीव परमात्मा में विलीन हो जाए तो वह मुक्ति क्या हुई ?
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1121 A+B
ओ३म् अ॒ग्नेर्व॒यं प्र॑थ॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑ ।
स नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात्पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च ॥
ऋग्वेद 1/24/2
भाग 1/2
अग्नि देव से आके जुड़ ले
जिसने अदिति को जोड़ा हमसे
जिससे मात-पिता के दर्शन
हम कर पाए आके जग में
अग्नि देव से आके जुड़ ले
वायु अग्नि रवि शशि पृथ्वी
अदिति की देन
दान अग्नि देव का पाया
हुआ जग-क्षेम
मर के जन्म लेते पाते
अदिति की गोद
जीव का कराते मात
पिता से यूँ योग
गुण से महिमाशालिनी है वो
इसलिए तो मही वो
नए-नए इसमें गुण भी
नई-नई शक्तियाँ भी
करते आए वैज्ञानिक भी
कई खोज कब से
अग्नि देव से आके जुड़ ले
जिसने अदिति को जोड़ा हमसे
अदिति के गर्भ से पाया
हमने भी सूर्य
कृपालु यह सोमचन्द्र
करे कार्य पूर
प्राण दाता वायु आया
अदिति के उदर से
झिलमिलाते तारागण
शाश्वत स्वर से
उमड़ घुमड़ बादल भी बरसे
विद्युत माला इनमें चमकें
इन्द्रधनुष के रङ्गों से
हर्ष जागे मन में
झरते झरने कल कल नदियाँ
जा मिलीं समुद्र से
अग्नि देव से आके जुड़ ले
जिसने अदिति को जोड़ा हमसे
हिम-मण्डित शीतल पर्वत
की उत्तुङ्ग शाखाएँ
उग रही है उन पर सघन
वन की मालाएँ
जल का भण्डारी विस्तृत
साररूप सागर
उछलती मचलती तट पर
तरङ्गे बिछाकर
रङ्ग-बिरङ्गे फूलों से
धरती भी सजा दी
हरियाली की चादर
धरा पे बिछा दी
कूंके सुनते कोयलों की
गुञ्जित ध्वनियाँ भ्रमरों की
अग्नि देव से आके जुड़ ले
जिसने अदिति को जोड़ा हमसे
जिससे मात-पिता के दर्शन
हम कर पाए आके जग में
भाग 2/2
अग्नि देव से आकर जुड़ ले
जिसने अदिति को जोड़ा हमसे
जिससे मात- पिता के दर्शन
हम कर पाए आगे जग में
धीरन-धीरन दीरे ना(४)
उड़ते पंछी जलचर जीव
चिड़िया हो या चचीता
सोना चांदी हीरे माणिक्य
लोहा तांबा सीसा
प्रकृति अदिति की अतिशय
महिमा अखंड है
अग्नि देव की महिमा से
पाया दान अनन्त है
प्रकृति से अग्नि देव ने
हम सबको जोड़ा है
देहों के सुन्दर चोलों से
हम सबको ओढ़ा है
अदिति माता की गोद में
रखा हमें सुख से
अग्निदेव से..............
इस तरह जगत् में रहकर
पल रहे जीवन के पल
ज्ञान-कर्म- उपासना का
यही तो है सुरभित स्थल
निष्पाप निष्कलंक जीवन लगे सुखमय
और पाप- दुरित का जीवन
कटता है दुखमय
इक समय ऐसा भी आता
ज्ञान कर्म सफल बनाता
अदिति मां की गोद से पिता
मोक्षधाम को ले जाता
ऐसे पिता अग्नि देव को
पुकारें हृदय से
अग्निदेव से.............
आनन्दमय अवस्था सदा नहीं रहती
सीमित प्रयत्न की चेष्टा
धरती पर ला धरती
लूट के निस्तार का सुख
पाते शरण अदिति की
जन्म मरण का चक्र
विधाता की है विधि
माता-पिता की फिर से पुत्र
आते हैं गोद में
और जीव-परमात्मा को
फिर से लगता खोजने
पुनरावृत्ति करता है जीव
पुनः पुनः मोक्ष से
अग्निदेव से..............
अग्निदेव अग्रणी हैं
अग्नि देव है अङ्गिनी
अग्निदेव अंकोपन हैं
अग्नि देव हैं गति
अग्नि देव कान्तियुक्त हैं
अग्नि देव हैं व्यक्ति
अग्नि देव भ्रमणरूप हैं
जिससे है करुणावृत्ति
अग्निदेव कान्तिमय
व्यामोहित उनमें सभी
उनमें है दाहक शक्ति
जला देते पाप- वृत्ति
अग्निदेव नयन सरि
सजग गुण हैं उनके
अग्निदेव से................
हम सबको अग्नि देव का
मनन करना चाहिए
विभिन्न गुणों को भज के
उनसे प्रीति पाईये
जीवन में उनके पावन
गुणों को अपनाइए
और पूर्णत: जीवन में
अनघ हो जाइए
दोनों ही लोगों में निष्पाप
आनन्द पाईये
सत्य शिव सुन्दर
अग्निदेव के हो जाईए
जुड़ जाता है फिर भी
जीवन अग्नि के अमृत से
अग्नि देव से..........
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- १६.८.२०१२ १.२०मध्याह्न
राग :- केदार
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- हमें अग्नि देव का नाम स्मरण करना चाहिए भजन 702 वां
*तर्ज :- *यन्दम् वाडुम कादल नगर वे(मलयालम)
722-00123
क्षेम = कल्याण
मही = महान गुणावती
विस्तृत = विशाल
उदर = पेट
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
प्राक्कथन
प्रिय पाठकों! परमात्मा को अग्नि क्यों कहते हैं और प्रकृति को अदिति क्यों कहते हैं? इसका पूरा विवेचन इस मंत्र में विस्तार से समझाया गया है।
विस्तृत विचार होने से इस वैदिक मंत्र का भजन भी दो भागों में मैंने रिकॉर्ड किया है। जिसका प्रथम भाग आज प्रस्तुत कर रहा हूं द्वितीय भाग कल प्रस्तुत करूंगा। आप सब अग्नि देव परमात्मा ! और माता अदिति का स्मरण करते हुए भजन सुनेंगे तो विशेष आनन्द प्राप्त होगा। परमात्मा आप सबको आनंदित रखें।
मन्त्र -भावोपदेश
हमें अग्नि देव का नाम स्मरण करना चाहिए
अदिति के साथ हमारा संबंध फिर से जोड़ने वाला और इस प्रकार हमें माता पिता के दर्शन कराने वाला वह देव अग्नि है। अदिति से हमारा सम्बन्ध एक बार छूट चुका था। हम एक बार अदिति की क्षेत्र- सीमा से बाहर जा चुके थे। और इस प्रकार जन्म मरण के चक्कर से परे होकर हम माता और पिता के साथ सम्बन्ध से पृथक हो चुके थे। अग्निदेव ने हमें अदिति और जन्म मरण के फेर में फिर से फेर दिया है ।
यह अदिति जिसकी सीमाओं के भीतर आकर हम जन्म- मरण के फेर में फिरने लगते हैं कौन है? कहना न होगा कि यह अदिति विचित्र रचना चतुरा प्रकृति के अतिरिक्त और कोई नहीं है। अदिति शब्द का धातु अर्थ होता है, जो दीन और खण्डनीय ना हो। प्रकृति अदीन है। वह अनल्प है। प्रकृति के विभिन्न शक्तियों और उसके नए नए रूपों का अंत नहीं है। जितना ही अन्वेषण करो उतना ही उसकी नई नई शक्तियों और नए नए रूपों का आविष्कार होता रहता है। उसमें कहीं दीनता क्षीणता और अल्पता नहीं है। वह अदीना है,अन ल्पा है। प्रकृति अखंडनीय भी है। उसका सर्वथा खंडन सर्वथा नाश कोई नहीं कर सकता। उसे तोड़ने का, नष्ट करने का प्रयत्न करो तो वह नए-नए रूपांतर बदलती जाएगी। स्थूल से सूक्ष्म अवस्थाओं में बदलती जाएगी। पर अपनी सत्ता को कभी ना छोड़ेगी। उसका सर्वथा अभाव कभी ना किया जा सकेगा। वह एक नहीं तो दूसरे रूप में सदा बनी रहेगी। अखण्डनीय है अविनाश्या है। अदिति को शास्त्र में स्थान स्थान पर देव माता कहा गया है । ऐसी देवमाता प्रकृति ही है । सूर्य चंद्र जल वायु अग्नि और पृथ्वी आदि देव प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं। प्रकृति ही इन सब देवों का निर्माण करने वाली इनकी माता है। यह सब देव प्रकृति के गर्भ से निकले हैं। यजुर्वेद 9/6 में अदिति को विष्णुपत्नी कहा गया है। विष्णु चराचार विश्व ब्रह्मांड में व्यापक परमात्मा हैं। अदिति उनकी पत्नी है। क्योंकि वह उसकी सहायता से उसके साथ मिलकर समग्र विश्व की रचना करते हैं। भगवान जिस अदिति को लेकर इसके द्वारा विश्व की सृष्टि करते हैं वह प्रकृति ही है।
वेद में स्थान स्थान पर पाए जाने वाले अदिति के वर्णन से भी स्पष्ट पता लगता है कि वेद में उसका एक प्रसिद्ध अर्थ विश्व रचना की सामग्री जगत्प्रपंच का मूल उपादान कारण प्रकृति है ।इसके अतिरिक्त ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक जगह अदिति का अर्थ पृथ्वी किया गया है। उसका यास्काचार्य ने निघंटु 1/1 में वेद में पाए जाने वाले पृथ्वी के नामों को जहां गिनाया है वहां उनमें अदिति नाम को भी दिया है। इस प्रकार अदिति का अर्थ पृथ्वी तो स्पष्ट ही है। पृथ्वी सारे ब्रह्मांड में प्रपञ्चित हो रही प्रकृति का ही एक अंश है। इसलिए अदिति का अर्थ पृथ्वी लेकर उसके सहारे अदिति का अर्थ पृथ्वी का कारण प्रकृति भी किया जा सकता है। यह अदिति मही है ।यह अपने गुणों के कारण बड़ी महिमाशालिनी है ।सचमुच ही प्रकृति मही है। उसकी महिमा का कोई अंत नहीं है। उसके गुणों और उसकी शक्तियों का पार नहीं पाया जा सकता। वैज्ञानिक जितना ही अन्वेषण करता जाता है, उतना ही उसे प्रकृति के नए-नए गुणों और नई नई शक्तियों का पता लगता जाता है। सबको अपनी उष्णता और प्रकाश से जीवन प्रदान करने वाला सूर्य प्रकृति के गर्भ से ही निकला है। रात के समय अपनी अमृत बरसाने वाली चंद्रिका से प्राणियों के संतप्त हृदयों को शान्ति देने वाला चंद्रमा प्रकृति से ही बना है निरंतर गतिशील रहकर सब को प्राण देने वाला वायु प्रकृति के उदर से ही तो आया है। निशा के अंधकार में भी असंख्य आंखों से झांकने वाले नभोमंडल के तारे प्रकृति की ही तो विभूति हैं।वर्षा के समय आकाश में घटाएं बांधकर उमड़ने और घुमड़ने वाले बादल वर्षा की मनमोहक मुक्तमाला सी जल झड़िएं बादलों की छातियों पर चमकने वाली विद्युतन्मालाएं और इंद्रधनुषों की सौ सौ रंगों से रंजीत घटाएं सब प्रकृति का ही तो लीला विलास है। पर्वतों से हिममंडित शिखाएं उनकी सघन वनमालाएं उसमें कल- कल ध्वनि से झड़ रहे चांदी जैसे शुभ्र झरने, उनसे बनकर बह रही भीमकाय और भीमवेग वाली नदियां, इन नदियों का अंतिम बसेरा असीम अनंत जल राशि का पुंज समुद्र उसकी छाती पर नाचने वाली पर्वताकार उत्तुंग तरंगे और उसके गर्भ में बिखरे हुए अनंत रत्न सब प्रकृति के विलास की ही तो छटा है। पर्वत शिखरों वनों और वहां से आकर हमारी उद्यान वाटिकाओं को नयनाभिराम बनाने वाले रंग बिरंगे फूल कोकिल की कूक भ्रमर का गुंजन।युवती का निष्कलंक रूप लावण्य सब प्रकृति के विभ्रमों के ही तो उद्गार हैं। धरती की छाती में से निकलने वाले सोना चांदी हीरे मानिक लोहा तांबा सीसा तेल और अन्य अनंत वस्तुएं जिनके विज्ञान से परिष्कृत रूप रूपांतर मानव सभ्यता को इतना उज्जवल और महक बना रहे हैं सब प्रकृति की ही तो देन है। रात्रि के समय हमारे घरों और नगर मार्गों को आलोकित करने वाली वैज्ञानिक यंत्रों में बंध कर लक्ष्य कोस की बात क्षण भर में हमें सुना देने और दिखा देने वाली विद्युत की प्रत्यय और प्रचंड महाशक्ति प्रकृति की शक्तियों का ही तो एक छोटा सा नमूना है। प्रकृति की महिमा का कोई अंत नहीं है।
यह महामहिमाशालिनी अदिति प्रकृति हमें अमृत देवों में प्रथम स्थान वाले अग्निदेव ने प्रदान की है। इस देव ने ही हमारा इसके साथ संबंध जोड़ा है। प्रकृति से जगत की रचना करके उसमें हमारे क्रमानुसार हमें भांति भांति के फल भोग कराने के लिए शरीरों के चोले बनाकर उस देव ने हमें इस जगत में भेजा है। इस जगह पर रहते हुए हमारा जीवन अब सर्वथा निष्कलंक रीति से, निष्पाप रीति से, बीतने लगता है। जब हमारा जीवन पूर्ण ज्ञानयुक्त और नियमित बनकर बीतने लगता है तब यह अदिति का बना हुआ संसार हमें अधिक से अधिक सुख देता है। हम जितना समय इस में रहते हैं आनन्द में रहते हैं। इस प्रकार का ज्ञान युक्त नियमित और पवित्रता का जीवन बिताते हुए एक समय ऐसा आता है जब यह अग्निदेव हम पर प्रसन्न होकर हमें और भी अधिक आनंद का उपभोग कराना चाहता है। तब वह हमें अदिति से, अदिति के बने संसार से, बाहर कर देते हैं । तब वे हमें प्रकृति के क्षेत्र से ऊपर उठा लेते हैं। तब हमें ऐसे धाम में, स्थान में, ले जाते हैं जहां अमृत ही अमृत है।जहांअमृत के अभिलाषी सदा जाना चाहते हैं। उनका यह अमृतमय धाम है । देव का अपना आनंदमय स्वरूप। तब वे हमें अदिति के आवरण से पृथक करके अपने अमृतमय स्वरूप का साक्षात्कार करा देते हैं। उस साक्षात्कार के परिणाम स्वरुप हम भी अमृत बन जाते हैं। आनंदमय का साक्षात्कार है, हमें भी आनंद युक्त कर देता है। हम उस आनंदमय का साक्षातकार करते हुए उस में विचरण करने लगते हैं। हमारी वह अवस्था हो जाती है जिसका वर्णन वेद में किया है।"यत्र देवा अमृतमानशाना तृतीये धामन्नध्यैरयन्त" जिस तृतिय धाम में ज्ञानी आत्मा अमृत का उपयोग करते हुए विचरण करते हैं। इन शब्दों में किया गया है। वे देव तो अमृत हैं हम भी उनके साक्षात्कार से अमृत हो जाते हैं। परंतु हमारी यह अमृतमय आनंदमय अवस्था सदा नहीं रह सकती। हमारे जिन प्रयत्नों और तद्जन्य जिन पवित्राचरणों से प्रसन्न होकर उस देव ने हमें अपना आनंदमय रूप दिखाकर हमें आनंदमय किया था।वह सब सीमित है। सीमित प्रयत्नों और आचरण का फल असीम नहीं हो सकता। वह तो सीमित ही होगा। इसलिए एक दीर्घकाल तक उस देव के साक्षात्कार से आनंद का उपभोग करके मोक्ष सुख का आनंद लूट कर हमें फिर अदिति के क्षेत्र में आना होता है। वह देव हमें फिर इस संसार में भेज देता है, यह चक्र निरंतर चलता रहता है। अदिति के क्षेत्र से हम अग्निदेव के धाम में जाते रहते हैं और वहां एक दीर्घकाल तक रहकर फिर अदिति के क्षेत्र में आते रहते हैं। अदिति के क्षेत्र में आकर फिर जन्म और मरण का चक्र चल पड़ता है ,और हम माता-पिता द्वारा उत्पन्न होकर फिर उनकी गोदी में खेलते हैं। उसने हमें महान गुणों वाली अदिति के लिए फिर से भेज दिया है जिससे कि मैं पिता को और माता को देखूं। इन मंत्रों के इस वर्णन द्वारा मोक्ष से पुन: पुनरावृति के सिद्धांत का ही प्रतिपादन होता है। पुनर्जन्म के सिद्धांत का नहीं इसमें क्या हेतु है? इस वर्णन से पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन भी तो हो सकता है इसलिए यही क्यों न मान लिया जाए कि इन मंत्रों में पुनर्जन्म के सिद्धांत की ओर ही निर्देशन है।इस प्रश्न का इस दूसरे मंत्र में उत्तर दिया गया है कि अमृतों में से प्रथम स्थान वाले अग्निदेव ने हमें अदिति के लिए फिर से दिया है। इस प्रश्न और उत्तर से ध्वनित होता है कि हम ऐसी अवस्था में थे जहां बहुत से अमृत में से एक अमृत ने जिस स्थान सब में प्रथम है और जिसका नाम अग्नि है हमें अदिति के पास भेज दिया। शास्त्र में अन्यत्र उपलब्धियों में से एक यह मालूम है कि वह अवस्था जिसमें बहुत से अमृत रहते हैं मोक्ष की अवस्था ही है ।परमात्मा तो सहज अमृत आनंद स्वरूप हैं ही, उनके साक्षात्कार से मोक्ष की अवस्था में मुक्त आत्मा भी अमृत हो जाते हैं। उन अनेक अमृतों में से जो प्रथम अमृत है जो सहज रूप से आनन्दमय है उसी में यह शक्ति है कि वह मुक्त आत्माओं को मोक्ष की अवधि पूरी होने पर फिर से अदिति के चक्र में वापस भेज दे। क्योंकि यह सब का नियंता है। क्योंकि इन दोनों मंत्रों में अनेक अमृतों में से अनेक मुक्तो में से प्रथम अमृत-- सहज रूप से मुक्त-- द्वारा हमारे अदिति के चक्र में भेजे जाने का वर्णन है इसलिए इनमें हमारे मोक्ष से वापस भेजे जाने का वर्णन ही प्रतीत होता है। मंत्रों में "अमृतानाम" पद के प्रयोग का यही स्वारस्य है।
मन्त्रों में प्रयुक्त अदिति शब्द से भी यही ध्वनित होता है अदिति शब्द प्रकृति का वाचक है। अग्निदेव ने फिर से हमारा संबंध अदिति के साथ जोड़ा है। फिर से संबंध जोड़ने की यह स्पष्ट अर्थापत्ति है कि एक बार हमारा संबंध अदिति पदवाच्य प्रकृति से नहीं रहा था। जब हमारे संबंध प्रकृति से सर्वथा ना रहे वह अवस्था मोक्ष में ही उत्पन्न होती है। मोक्ष के बिना की अवस्था में हमारे संबंध प्रकृति से किसी ना किसी अंश में बना ही रहता है। हम प्रकृति के प्रभाव से मोक्ष में ही पूरी तरह दूर होते हैं। और किसी अवस्था में हम उसके प्रभाव से बाहर नहीं जा सकते। अमृतों में प्रथम अमृत अग्निदेव ने फिर से हमें अतिथि के लिए दिया है मंत्र के इस कथन में प्रयुक्त अतिथि पद जो कि समय प्रकृति का वाचक है कि यही ध्वनि है कि यह वर्णन मोक्ष से पुनरावृत्ति का है ।
जो अग्नि अमृतों में प्रथम अमृत है, जो मोक्ष का सुख भोगाकर फिर हमें जगत के चक्कर में लाकर रख देता है और इस प्रकार जन्म मरण के फेर में लाकर हमें माता-पिता के दर्शन करा देता है, जिसका सुंदर नाम हमारे लिए जानने और मनन करने के योग्य है, वह अग्नि देव आनंद के धाम विश्व के नियंता परमात्मा देव से भिन्न और कोई नहीं है,यह तो पाठक स्वयं समझ लेंगे।वेद के अग्नि इंद्र वरुण आदि सब नाम अध्यात्म दृष्टि में इसी परम देव परमात्मा के हैं यह स्वयं वेद ने "इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहु" ऋ•१.१६४.४६ और
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तदु वायस्तदु चन्द्रमा" (यजुर्वेद २२/१) आदि स्थलों में निर विवाद रूप में स्पष्ट किया है।
भगवान को अग्नि क्यों कहा गया है ? आचार्यों ने अग्नि शब्द के कई अर्थ किये हैं। अग्नि का एक अर्थ होता है "अग्रणी" अर्थात् आगे ले जाने वाला।
इसका दूसरा अर्थ होता है "अङ्गिनी" अर्थात् अपना अंग बना लेने वाला।इसका एक तीसरा अर्थ होता है अन्कोपन" अर्थात् स्नेह ना करने वाला।
इसका चौथा अर्थ किया जाता है "गति"
परमात्मा अग्नि इसलिए है कि वे अग्रणी है,सबको आगे, उन्नति की ओर ले जाते हैं। इसलिए भी वे अङ्गिनी हैं कि वह सबको अपना अंग बना लेते हैं।
उसका सारा विश्व ब्रह्मांड उनका अंग है उनमें रमा हुआ है उनमें व्याप्त है उन प्रभु ने सबकुछ को अपने भीतर लपेटा हुआ है इसलिए वह अंगी नहीं है मुक्तात्मा लोग उनका साक्षात्कार करके उनके आनंद से आनंदमय हो कर उनका अंग बन जाते हैं। उनका रूप बन जाते हैं, इसलिए भी परमात्मा अङ्गिनी हैं। परमात्मा अन्कोपन -नेहन से रहित- होने के कारण भी अग्नि हैं। परमात्मा बद्ध आत्माओं की भांति प्राकृतिक विषयों के साथ स्नेह नहीं रखते इसलिए भी वे अग्नि हैं। वे परमात्मा प्राकृतिक विषयों का उपभोग नहीं करते वे तो केवल भोग करते हुए जीवात्मा को साक्षी रूप में देखते रहते हैं। परमात्मा में 'अयन' अर्थात गति है।वे अपनी व्यापकता से सर्वत्र पहुंचे हुए हैं और सारे विश्व को गति दे रहे हैं। परमात्मा में "व्यक्ति" है ।वे जगत् के सब पदार्थों को बनाकर व्यक्त करते हैं,उन्हें और उनका रूप और व्यक्तित्व देते हैं। योगीजनों के हृदय में परमात्मा अपना रूप व्यक्त कर देते हैं-- अपने आप को उनके आगे प्रकाशित कर देते हैं। इसलिए परमात्मा को व्यक्ति कहते हैं।
परमात्मा में भ्रक्षण अर्थात् चिकना करने का गुण भी है ।उस परमात्मा के सच्चे भक्तों में प्राणी मात्र के लिए बड़ी चिकनाई बड़ा स्नेह बड़ा प्रेम भर जाता है। परमात्मा स्वयं भी प्राणी मात्र के लिए बड़ा स्नेह रखते हैं। प्राणी मात्र के लिए करुणावृत्ति वाले होकर अनेक मंगलों की वर्षा करते हैं। प्रभु में कान्ति भी है। संसार के विभिन्न पदार्थों में जो कान्ति पाई जाती है वह सब उन्हीं के द्वारा दी हुई है। संसार के सब के सब सौंदर्य-पट उन्हीं महाचित्रकार की कूंची से ही तो चित्रित हुए हैं ।और उन प्रभु के रूप में जो अलौकिक कान्ति है,जो व्यामोहित कर लेने वाला दिव्य सौंदर्य है उसका भला कोई क्या वर्णन करेगा ! उसकी छटा तो योगीजनों के भक्ति विह्वल आत्माओं का हिस्सा है। प्रभु में दहन भी तो है। प्रभु की दाहक- शक्ति जिन भक्तों के ऊपर पड़ जाती है उनके आत्माओं के सब पाप-पंक सूख जाते हैं और भस्म हो जाते हैं। और उसकी दाहक-शक्ति की कुछ चिंगारियां लेकर भक्तजन अपने चारों ओर के जनसमूह के पाप-पुञ्ज को भस्म कर डालते हैं। फिर गति के ज्ञान और प्राप्ति के दो अर्थ भी होते हैं। प्रभु में अनन्त ज्ञान है। उनको सब मंगलों,कल्याणों की प्राप्ति है और वे प्राणी मात्र के असंख्य मंगलो की प्राप्ति कराते हैं । प्रभु में "नयन" भी है। आत्माओं को दुर्गति से सद्गति में अमंगल से मंगल में बद्धावस्था से मुक्त अवस्था में अज्ञान से ज्ञान में उठा लेते हैं हीन अवस्था से अहीन अवस्था में ले जाते हैं, इसलिए उनमें "नयन" भी है।भौतिक अग्नि में प्रकाश होता है गर्मी होती है और आगे ले जाने का गुण होता है। अग्नि से हमें प्रकाश तो मिलता ही है उसकी गर्मी हमें आगे भी ले जाती है उसका यंत्रों में बंद होकर अग्नि की गर्मी हमें सैकड़ों मील प्रति घंटे की गति से उड़ा कर ले जाती है। हमारे शरीरों में जब तक अग्नि गर्मी रहती है तभी तक हम गति कर सकते हैं चल फिर सकते हैं और जीवित रह सकते हैं। अग्नि के इसी प्रकाश, गर्मी के गुण से ही प्रभु को अग्नि कहा है।
प्रभु में ज्ञान का प्रकाश है प्राणी मात्र को जीवन देने वाली उष्णता जगत में उन्होंने ही उत्पन्न की है। अपनी इस जीवनदायिनी उष्णता और अपने ज्ञान के प्रकाश द्वारा वे प्रभु हमारे आत्माओं को उन्नति की ओर ले जाते हैं । हमारे आत्माओं की उन्नति के लिए उन्होंने सृष्टि के आरंभ में वेद के ज्ञान का प्रकाश दिया है। और इस समय भी भक्त जनों के हृदय में सन्मार्ग की प्रेरणा करते रहते हैं। अग्नि की भांति ही प्रकाश और उस नेता के द्वारा उन्नति की ओर आगे ले जाने का गुण परमात्मा में भी है। और यह गुण परमात्मा में भौतिक अग्नि से भी कहीं बढ़कर है इसलिए भगवान् सब से बड़े अग्नि हैं- अग्निओं के अग्नि है। पाठक देखेंगे कि अग्नि के साथ नाम सादृश्य के कारण परमात्मा में प्रकाश और उष्णता के द्वारा उन्नति की ओर ले जाने के जिन गुणों की कल्पना होती है वह अग्नि शब्द के आचार्यों द्वारा किए गए ऊपर उद्धृत अर्थों में प्रकारान्तर से विद्यमान हैं। उसका प्राचार्य ने अग्नि के यह अर्थ वेद के आधार पर ही किए हैं।
इस अग्नि देव के नाम का हमें सदा मनन करना चाहिए भगवान का एक-एक नाम उनके विभिन्न गुणों का द्योतक है भगवान के इन नामों का वर्णन करने से इनका विचार पूर्वक चिंतन करने से हमें भगवान के विभिन्न गुणों का परिज्ञान होता है। भगवान के गुणों का परिज्ञान होने से हमारी उनके प्रति प्रीतिउत्पन्न होती है। जिसका फल होता है कि हममें भगवान के उन पवित्र गुणों को अपने जीवन में धारण करने की उमंग पैदा होती है। जब भगवान के पवित्र गुण हमारे आचरण में आ जाते हैं तो हमारा जीवन निष्पाप हो जाता है । निष्पाप जीवन का फल यह लोग और मोक्ष दोनों में आनंद की प्राप्ति होती है। हमें भगवान के नामों का स्मरण मनन और चिंतन सदा करते रहना चाहिए हमें भगवान के नामों को सदा चारु- सुंदर -समझकर उनका मनन और चिंतन करना चाहिए। हमारे मनों की प्रवृत्ति सदा सुंदर चीज में ही हुआ करती है। मन जिस वस्तु को सुंदर नहीं समझता उस में वो कभी नहीं लगता ।यदि हमें भगवान के नाम सुंदर प्रतीत होने लग जाए तो हमारा मन उनके मनन और चिंतन में झट लग जाएगा। मन्त्र कहना है कि भगवान के नाम में सुंदरता है। सुंदरता दो प्रकार की होती है एक इंद्रियों के द्वारा दीखने वाली और दूसरी विचार के द्वारा दीखने वाली। यदि हम विचार के द्वारा देखे तो हमें भगवान के नाम बड़े सुंदर प्रतीत होंगे और उन नामों को धारण करने वाले प्रभु तो और भी सुंदर प्रतीत होंगे। जैसा कि अभी ऊपर की पंक्तियों में हमने देखा है भगवान के नाम उनके विभिन्न गुणों को द्योतित करते हैं, नाम-स्मरण और मनन से हमें प्रभु के गुणों की प्रतीति होती है। इसके फल स्वरुप भगवान के साथ हमारा प्रेम उत्पन्न हो जाता है।भगवान के प्रति प्रेम के फल स्वरुप हम उनके गुणों को अपने अंदर धारण करने लगते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि हमारे जीवन पाप रहित हो जाते हैं। हमारे जीवन के पाप रहित हो जाने का फल होता है कि जब तक हम इस आदितेय अदिति के बने हुए संसार में रहते हैं तब तक इस संसार के पदार्थ हमें अधिक से अधिक सुख पहुंचाते हैं। और जब हमारे जीवनों की पवित्रता एक विशेष सीमा तक पहुंच जाती है तब भगवान हम पर कृपा करके हमें और भी परिपूर्णानंद देने के लिए अपने रूप का दर्शन देते हैं और हमें मोक्ष की अवस्था में पहुंचा देते हैं। मोक्ष में हम अमृतमय भगवान की सान्निध्यता में एक दीर्घकाल तक आनंद के असीम समुद्र में तैरते रहते हैं।भगवान का नाम स्मरण और मनन में यह शक्ति है, यह गुण है। भला भगवान का जो नाम यह गुण रखता है उस से बढ़कर सुंदर वस्तु क्या हो सकती है? और फिर भगवान के नामों का चिंतन करते हुए उनके जो अनेक रूप मन की आंखों के आगे आते हैं वे विचार के क्षेत्र में इतना अधिक सौंदर्य रखते हैं जितना विश्व की और कोई वस्तु नहीं रख सकती। उस समय विचार की आंखों को भगवान अप्रतिम सुंदर दिखने लगते हैं। जो नाम भगवान के अप्रतिम सौंदर्य के दर्शन कराते हैं वे स्वयं भी तो सुंदरता का विषय बन जाएंगे। उस तक चुनाव भगवान के अप्रतिम सौंदर्य के दर्शन कराते हैं वे स्वयं भी तो सुंदरता का विषय बन जाते हैं। इस प्रकार विचार की आंखों से देखने पर भगवान और उनके नामों में बड़ा सौंदर्य दीखने लगेगा। वास्तव में तो सारा सौन्दर्य विचार पर ही निर्भर करता है। इंद्रियों द्वारा ग्रहण करने में ग्रहण होने वाला सौन्दर्य भी तभी सौंदर्य लगता है जब मन विचार उसे सौन्दर्य समझ लेता है।इस प्रकार देखने पर भगवान का कोई एक नहीं सभी नाम बड़े चारु ,बड़े सुंदर, बड़े मनोरम दिखने लगते हैं ।
मंत्र में बताया गया एक अग्नि नाम ही कितना चारु कितना मनोभिराम है!
गुड के इस एक ही नाम में कितना भाव गाम्भीर्य है छिपा हुआ है।
मंत्र में इन अग्निदेव को अमृतों में प्रथम कहा गया है। अमृत का एक अर्थ होता है जिसकी मृत्यु ,जिसका नाश कभी ना हो। भगवान की भांति जीवात्मा भी अमृत है और प्रकृति भी अमृत है उसका परंतु जो अमृत वो भगवान में है वह जीवात्मा और प्रकृति में नहीं है। जीवात्मा शरीर के संबंध से मृत्यु के वश में आते रहते हैं। प्रकृति कार्य जगत की दृष्टि से मृत्यु के नाश के वश में आती रहती है। परंतु भगवान किसी प्रकार और किसी दृष्टि से मृत्यु के- नाश के- वश में नहीं आते हैं। इस प्रकार भगवान सबसे प्रथम श्रेणी के अमृत हैं। मंत्र में यह जो कहा गया है कि उस अग्निदेव ने हमें फिर से अदिति के पास भेज कर पिता और माता के दर्शन कराए हैं इससे यह ध्वनि निकलती है कि उस देव ने हमें संसार में भेजकर किसी अवांछनीय, असुरक्षित स्थान में नहीं भेज दिया है। उसने हमें संसार में भी "पिता" और "माता" की गोद में भेजा है। "पिता" का शब्दार्थ होता पालन करने वाला और माता का अर्थ होता निर्माण करने वाली उसका पिता और माता की गोद में हमारी खूब लालना पालना होती है हमारी शारीरिक आत्मिक शक्तियों का खूब निर्माण होता है,जिसके फलस्वरूप हम संसार में आनंद भोगने के पश्चात फिर मोक्ष-सुख के भी अधिकारी हो जाते हैं। इससे संतानों के प्रति माता पिता के कर्तव्य पर भी सुंदर प्रकाश पड़ता है।
हे मेरेआत्मा !तू उस अग्नि देव के नामों और गुणों का नित्य स्मरण और चिंतन किया कर। इससे तो निष्पाप हो सकेगा और परिणामत: उस मोक्ष धाम में अमृत के सागर में फिर एक बार जाने का अधिकारी हो जाएगा,जहां तू पहले भी- चाहे तुझे ज्ञान नहीं- न जाने कितनी बार जा चुका है। तो निष्पाप हो सकेगा और परिणामत: उस मोक्ष धाम में अमृत के सागर में फिर एक बार जाने का अधिकारी हो जाएगा,जहां तू पहले भी- चाहे तुझे ज्ञान नहीं- न जाने कितनी बार जा चुका है।
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🌹🙏
विषय
पुनर्जन्म ।
भावार्थ
( वयम् ) हम सब जीव गण ( अमृतानाम् ) मरण से रहित, मुक्त, अविनाशी जीवों के बीच में सबसे ( प्रथमस्य ) प्रथम, आदितम, मुख्यतम, सर्वश्रेष्ठ ( देवस्य ) सब सुखों के दाता ( अग्ने ) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के ही ( चारु ) प्राप्त करने योग्य, आचरण योग्य, मनोहर ( नाम ) नाम को ( मनामहे ) चिन्तन करते हैं । ( सः ) वह ( नः ) हमें ( अदितये ) अखण्ड पृथिवी, के भोग के लिये ( पुनः दात् ) पुनः अवसर देता है जिससे मैं ( पितरं च ) पिता को और ( मातरं च ) माता के भी ( दृशेयम् ) दर्शन करता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! आम्ही ज्या अनादी स्वरूप सदैव अमर असणाऱ्या व सर्व लोकांनी केलेल्या पापपुण्याप्रमाणे यथायोग्य सुख-दुःख फळ देणाऱ्या जगदीश्वराचा निश्चय करतो. तो न्याययुक्त व्यवस्थेने पुनर्जन्म देतो, त्या देवाला तुम्हीही जाणा. त्याच्याखेरीज कोणीही वरील कर्म करणारा नाही. अशी आमची खात्री आहे. तोच मोक्षाला पोचलेल्या जीवांनाही महाकल्पाच्या शेवटी पुन्हा पाप-पुण्याच्या तुलनेने माता-पिता यांच्या उदरी जन्म देतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
We adore and worship the auspicious name of Agni, lord of light and life, first of the immortals and the highest. He it is who sends us back to this great world of Prakrti so that we may behold and be with our father and mother again.
Subject of the mantra
The answers of these questions have been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(vayam)=We eternal learned living beings, (yasya)=of which, (agneḥ)=of omniscient God, (amṛtānām) of unperishable nature, in other words, causal substance of universe or in living beings having gotten salvation, (prathamasya)=primordial or of unique form God, (devasya)=enlightening the whole world or provider of all substances in the world, God (cāru)=sacrosanct, (nāma)=to invoke, (manāmahe)=know, (saḥ)=God, (eva)=only, (naḥ)=to us, (mahyai)=of great virtues, (aditaye)=amidst the earth, (punaḥ)=from the beginning, the terms of the meanings denoted earlier, (punarjanmaḥ)=rebirth, (dāt)=provide, (yataḥ)=so, (ca)=too, (aham)=I, (punaḥ)=then, (pitaram)=father, (mātaram)=mother, (ca)=and, (strīputrabandhvādīn)=wife, son, brother etc. (api)= as well, (dṛśeyam)=I visualize.
English Translation (K.K.V.)
We, the eternal wise living beings, know the holy call of the God, who is the source of knowledge, having imperishable nature or the causal substance of the world or the primordial or unique form of God in the souls who have attained salvation, the light of the whole world or the giver of all things in the world. It is the Supreme Lord who gives birth to us in the middle of the earth with great virtues, according to the meanings defined earlier from the beginning. It is God who gives us rebirth on earth with great virtues, that is why, I visualize father, mother, wife, son, brothers et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O men! God, who is eternally immortal like us or who will give the rightful rewards according to the sins and virtues committed by all of us. By whose righteous system rebirths are attained. You also know the same God, who gives rebirths. This action cannot have any other meaning than this. It is the one which makes the liberated and the living beings also take human birth at the end of the great cycle and again between father, mother and woman et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The above two questions are answered.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We learned eternal souls invoke or remember the auspicious name of that Omniscient, un-paralleled, One Supreme Leader of the Eternal, immortal emancipated souls, the Giver of all things in creation and their Illuminator. It is He who gives us birth again on this great earth possessing great properties that we may again behold our parents, wives and kinsmen.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने:) ज्ञानस्वरूपस्य = Of Omniscient God. (प्रथमस्य) अनादिस्वरूपस्य एव अद्वितीयस्य परमेश्वरस्य = Of unparalleled Eternal God. (अमृतानाम् ) विनाशधर्मरहितानां प्राप्तमोक्षाणां जीवानां मध्ये = Among the immortal liberated souls. (चारु) पवित्रम् = holy. (देवस्य ) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सृष्टौ सकलपदार्थदातुः Of the Resplendent Giver of all things in the Universe. (अदितये ) कारणरूपेण नाशरहितायां पृथिव्याम् । अदितिरिति पृथिवी नामसु (निघ० १.१) अत्र सप्तम्यर्थ चतुर्थी । = On this earth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, we certainly believe in one eternal, Immortal God who is the dispense of the fruit of the good or bad actions done by us and according to Whose laws we get re-birth. You must also know that One God to be the Giver of Re-birth for, none else can do this work (of the dispensation of justice). It is He who gives birth to emancipated persons also through parents at the end of Mahakalpa-a very long period covering several millions of years.
Translator's Notes
This Mantra clearly and un-ambiguously enunciates the doctrine of the re-birth of the emancipated souls after enjoying the bliss of the liberation for a very long period known as the Mahakalpa grand cycle or Paranta Kala in the passages of the Upahishads like वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः, संन्यासयोगाद् यतयः शुद्ध सत्वाः । ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले, परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ।। (मुण्डकोप० ३.२ ) The calculation of this Maha-Kalpa (grand cycle) or Paranta Kala as given by Rishi Dayananda in the Satyartha Prakash or Light of Truth Chap. IX. is as follows— One Chaturyugi or quarternion consists of 4320000 years. Thus thousand such quarternions make one (Divine) day-night, such thirty day-nights make a Divine month. Such twelve months make a Divine year. Such hundred Divine years make one Paranta-kala mahakalpa or Grand Cycle.” (Light of Truth translated by Pt. Ganga Prasad, ji Upadhyaya M. A. Allahabad P. 338 ). It is owing to such a long almost incalculable period that some have held that the emancipated souls remain in the liberated state for ever and never return. But the above mantra clearly and un-mistakably points out that this belief is against the Vedic teaching, besides being un-reasonable, as the result of limited knowledge and action (however pure they may be) cannot be un-limited).
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