ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः
देवता - सविता भगो वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यश्चि॒द्धि त॑ इ॒त्था भगः॑ शशमा॒नः पु॒रा नि॒दः। अ॒द्वे॒षो हस्त॑योर्द॒धे॥
स्वर सहित पद पाठयः । चि॒त् । हि । ते॒ । इ॒त्था । भगः॑ । श॒श॒मा॒नः । पु॒रा । नि॒दः । अ॒द्वे॒षः । हस्त॑योः । द॒धे ॥
स्वर रहित मन्त्र
यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे॥
स्वर रहित पद पाठयः। चित्। हि। ते। इत्था। भगः। शशमानः। पुरा। निदः। अद्वेषः। हस्तयोः। दधे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।
अन्वयः
हे जीव ! यथाऽद्वेषोहमीश्वर इत्था सुखहेतुना यः शशमानो भगोऽस्ति, तं सुकर्मणस्ते हस्तयोरामलकमिव दधे, यश्च निदोऽस्ति तस्य हस्तयोः सकाशादिवैतत्सुखं च विनाशये॥४॥
पदार्थः
(यः) धनसमूहः (चित्) सत्कारार्थे अप्यर्थे वा (हि) खलु (ते) तव (इत्था) अनेन हेतुना (भगः) सेवितुमर्हो धनसमूहः (शशमानः) स्तोतुमर्हः (पुरा) पूर्वम् (निदः) निन्दकः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नकारलोपः। (अद्वेषः) अविद्यमानो द्वेषो यस्मिन् सः (हस्तयोः) करयोरामलकमिव कर्मफलम् (दधे) धारये॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽहमीश्वरो निन्दकाय मनुष्याय दुःखं यः कश्चित्सृष्टौ धर्मानुसारेण वर्त्तते, तस्मै सुखविज्ञाने प्रयच्छामि, तथैव सर्वैर्युष्माभिरपि कर्त्तव्यमिति॥४॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में परमेश्वर ने अपना ही प्रकाश किया है-
पदार्थ
हे जीव ! जैसे (अद्वेषः) सब से मित्रतापूर्वक वर्तनेवाला द्वेषादि दोषरहित मैं ईश्वर (इत्था) इस प्रकार सुख के लिये (यः) जो (शशमानः) स्तुति (भगः) और स्वीकार करने योग्य धन है, उसको (ते) तेरे धर्मात्मा के लिये (हि) निश्चय करके (हस्तयोः) हाथों में आमले का फल वैसे धर्म के साथ प्रशंसनीय धन को (दधे) धारण करता हूँ और जो (निदः) सब की निन्दा करनेहारा है, उसके लिये उस धनसमूह का विनाश कर देता हूँ, वैसे तुम लोग भी किया करो॥४॥
भावार्थ
यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मैं ईश्वर सब के निन्दक मनुष्य के लिये दुःख और स्तुति करनेवाले के लिये सुख देता हूँ, वैसे तुम भी सदा किया करो॥४॥
विषय
फिर भी इस मन्त्र में परमेश्वर ने अपना ही प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे जीव ! यथा अद्वेषः अहम् ईश्वरः इत्था सुखहेतुना यः शशमानः भगः अस्ति, तं सुकर्मणः ते हस्तयोः आमलकम् इव दधे यः च निदः अस्ति तस्य हस्तयोः सकाशात् इव एतत् सुखं च विनाशये॥४॥
पदार्थ
हे (जीव) =जीव ! (यथा)=जैसे, (अद्वेषः) अविद्यमानो द्वेषो यस्मिन् सः=वह जोअविद्यादि द्वेष से रहित है, (अहम्)=मैं, (ईश्वरः)=ईश्वर, (इत्था) अनेन हेतुना=इस प्रकार अनेक कारणों से, (सुखहेतुना)=सुख के लिये, (यः) धनसमूहः=जो धनसमूह, (शशमानः) स्तोतुमर्हः=स्तुति, (भगः) सेवितुमर्हो धनसमूहः=सेवा करने योग्य धन है, उसको, (अस्ति)=है, (तम्)=उसको, (सुकर्मणः)=शुभकर्मों के द्वारा, (ते) तव= तेरे लिये, (हस्तयोः) करयोरामलकमिव कर्मफलम्=कर्मफल को हाथों में आमले का फल जैसे प्राप्त किया जाता है, अर्थात् आसानी से, (इव)=जैसे, (दधे) धारये=धारण करता हूँ, (च)=और, (यः)=जो, (निदः) निन्दकः=सब की निन्दा करनेहारा, (अस्ति)=है, (तस्य)=उसके, (हस्तयोः) करयोरामलकमिव कर्मफलम्= कर्मफल को हाथों में आँवले का फल जैसे प्राप्त किया जाता है, अर्थात् आसानी से, (सकाशात्)=निकट से, (इव)=जैसे, (एतत्)=इस, (सुखम्)=सुख को, (च)=और, (विनाशये)=विनाश कर देता हूँ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मुझ ईश्वर के निन्दक मनुष्य के लिये दुःख जो किसी सृष्टि में धर्म के अनुसार होता है। उस स्तुति करनेवाले के लिये सुख देता हूँ, वैसे तुम सब भी सदा किया करो॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (जीव)=जीव ! (यथा) जैसे (अद्वेषः) सब से मित्रतापूर्वक वर्तने वाला दोषरहित, मैं ईश्वर (इत्था) इस प्रकार अनेक कारणों से (सुखहेतुना) सुख के लिये (यः) जो धनसमूह (शशमानः) स्तुति और (भगः) सेवा करने योग्य धन (अस्ति) है, (तम्) उसको (सुकर्मणः) शुभकर्मों के द्वारा (ते) तेरे लिये (हस्तयोः) कर्मफल को हाथों में आँवले का फल जैसे अर्थात् आसानी से प्राप्त किया जाता है। (इव) ऐसे ही (दधे) धारण करता हूँ (च) और (यः) जो (निदः) सब की निन्दा करनेवाला (अस्ति) है। (तस्य) उसके (हस्तयोः) कर्मफल को हाथों में आँवले का फल जैसे अर्थात् आसानी से प्राप्त किया जाता है। (इव) ऐसे ही (सकाशात्) निकट से, (एतत्) इस (सुखम्) सुख को (च) भी (विनाशये) विनाश के लिये [धारण कराता हूँ] ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यः) धनसमूहः (चित्) सत्कारार्थे अप्यर्थे वा (हि) खलु (ते) तव (इत्था) अनेन हेतुना (भगः) सेवितुमर्हो धनसमूहः (शशमानः) स्तोतुमर्हः (पुरा) पूर्वम् (निदः) निन्दकः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नकारलोपः। (अद्वेषः) अविद्यमानो द्वेषो यस्मिन् सः (हस्तयोः) करयोरामलकमिव कर्मफलम् (दधे) धारये॥४॥
विषयः- पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।
अन्वयः- हे जीव ! यथाऽद्वेषोहमीश्वर इत्था सुखहेतुना यः शशमानो भगोऽस्ति, तं सुकर्मणस्ते हस्तयोरामलकमिव दधे, यश्च निदोऽस्ति तस्य हस्तयोः सकाशादिवैतत्सुखं च विनाशये॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽहमीश्वरो निन्दकाय मनुष्याय दुःखं यः कश्चित्सृष्टौ धर्मानुसारेण वर्त्तते, तस्मै सुखविज्ञाने प्रयच्छामि, तथैव सर्वैर्युष्माभिरपि कर्त्तव्यमिति॥४॥
विषय
उत्तम धन
पदार्थ
१. हे प्रभो! आपकी कृपा से मैं (हस्तयोः दधे) - हाथों में धारण करता हूँ , उस धन को [क] (यः भगः) - जो धन कि (चित् हि) - पूर्ण निश्चय से (इत्था ते) - सचमुच तेरा ही है , अर्थात् जिस धन के स्वाभाविक प्रभु तो आप ही हैं । मैं तो उस धन को आपका मानता हुआ अपने को उसका रक्षकमात्र [Trustee] समझता हूँ । [ख] (शशमानः) - [शस्यमानः] जो धन सदा प्रशंसित किया जाता है , अर्थात् जो निन्दनीय नहीं है अथवा जो धन प्लुत गतिवाला है , अर्थात् आलस्यशून्य क्रियाशीलता के द्वारा प्राप्त किया गया है ।
२. [ग] (पुरा निदः) - जो निन्दा से पहले है , अर्थात् जो कभी निन्दित नहीं होता , अर्थात् जिसे हम निन्दनीय उपायों से तो कमाते ही नहीं , जिसे हम निन्द्य प्रकार से व्यय भी नहीं करते । [घ] (अद्वेषः) - जिस धन में किसी प्रकार का द्वेष नहीं है , जिस धन के कारण हमारा आपस में प्रेम नष्ट नहीं हो जाता ।
३. स्पष्ट है कि उत्तम धन वही है कि जो हमें स्वामित्व के गर्ववाला नहीं कर देता , जो पुरुषार्थ से प्राप्त किया जाता है , जो कभी लोकनिन्दा का पात्र नहीं बनता तथा जिसके कारण परस्पर प्रीति में कमी नहीं आ जाती ।
भावार्थ
भावार्थ - हम धनों का गर्व न करें , पुरुषार्थ से उन्हें प्राप्त करें , अनिन्द्य प्रकार से प्रयुक्त करें , उन्हें प्रीतिवर्धन का साधन बनाएँ ।
विषय
ईश्वर से उत्तम ऐश्वर्य की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( सवितः ) सबके उत्पादक ! हे (देव) सब सुखों के दाता और सब पदार्थों के सूर्य के समान दर्शक ! हे ( अवन् ) सबके सदा रक्षा करनेहारे ! ( वार्याणाम् ) वरण करने योग्य समस्त ऐश्वर्यों के ( ईशानम् ) स्वामी ( भागं ) भजन और सेवा करने योग्य, आश्रय योग्य ( त्वा ) तुझसे ही ( सदा ) सदा हम ( ईमहे ) याचना करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१५ शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरात ऋषिः । देवता—१ प्रजापतिः । २ अग्निः । ३-५ सविता भगो वा । ६-१५ वरुणः ॥ छन्दः-१, २, ६–१५ त्रिष्टुप् । ३-५ गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1076
ओ३म् यश्चि॒द्धि त॑ इ॒त्था भग॑: शशमा॒नः पु॒रा नि॒दः ।
अ॒द्वे॒षो हस्त॑योर्द॒धे ॥
ऋग्वेद 1/24/4
भजनीय सुख ऐश्वर्य तेरा,
दौड़ रहा धारे सृष्टि नियम,
सुखदायक तेरे सृष्टि-पदार्थ
इन सबके दाता तुम हो भगवन्
सुखद प्रवाह ये देख रहे हम
भजनीय सुख ऐश्वर्य तेरा
'शशमान' है सुख ऐश्वर्य प्रभु का,
संशय नहीं इसमें कोई ज़रा,
न्यूनता कोई ना इसमें कभी देखी,
हो ना जो चाहिए है वैसा खरा,
वंचित नहीं रहना चाहे कोई,
हमको क्यों प्यासा रखेंगे स्वामी,
करना पड़ेगा हमको भी उद्यम
भजनीय सुख ऐश्वर्य तेरा
शिव-शान्तिदायक सुख की मन्दाकिनी
सर्वत्र बहती पर क्यों नहीं खिलती,
दीन-दु:खी होके खाते रहते गोते,
सद्गति आलस्य में ना कभी मिलती,
वेद-गंगा बहती रहती मगर,
ना है पीने की परिवेदन-वृत्ति,
अमृत पीने का कर ले जतन
भजनीय सुख ऐश्वर्य तेरा
निष्पाप जीवन से मिलते हैं ऐश्वर्य,
निन्दा द्वेषों से यह जाते हैं छिन,
प्रेम अहिंसा के भाव हों जागृत,
उपकार वृत्ति की जागे अगिन,
द्वेष व तज्जन्य हिंसा वृत्ति,
पाप-दोष दुरित जगाते हैं घिन,
निष्पाप वृत्ति का होवे आगम
भजनीय सुख ऐश्वर्य तेरा
अपने चरित्र के दोषों को दें त्याग,
द्वेष हिन्साओं के काँटें ना नाग,
कहते हैं ईश्वर कर दे आरोपित,
प्रेम अहिंसा के प्रमुदित भाव,
सुख और ऐश्वर्य ईश्वर से पा के
बन जा निज मन का तू मनुराज,
पाएँ जिससे मोक्ष आनन्द
भजनीय सुख ऐश्वर्य तेरा,
दौड़ रहा धारे सृष्टि नियम,
सुखदायक तेरे सृष्टि-पदार्थ
इन सबके दाता तुम हो भगवन्
सुखद प्रवाह ये देख रहे हम
भजनीय सुख ऐश्वर्य तेरा
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- ९.७.२०१२ ११.४० सायं
राग :- छायानट
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल दादरा ६ मात्रा
शीर्षक :- निंदा और द्वेष को छोड़ दो
*तर्ज :- *
699-00100
शशमान = उछल उछल कर दौड़ने वाला
उद्यम = मेहनत, परिश्रम
मन्दाकिनी = गंगा की स्वरमयी धारा
परिवेदन = विचरण, घूमना
अगिन = अग्नि
तज्जन्य = उससे उत्पन्न ना
प्रमुदित = खिला हुआ
मनुराज = कुबेर, महाधनी
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
निंदा और द्वेष को छोड़ दो
भगवान के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए इस मन्त्र में भगवान से भजनीय सुख-ऐश्वर्य की याचना की गई, जो सुखदायक ऐश्वर्य, "शशमान" है। शशमान का अर्थ है उछल उछल कर दौड़ने वाला। उसका ऐश्वर्य छुपा हुआ नहीं है, वह तो उछल उछल कर दौड़ रहा है सर्वत्र वेग से दौड़ रहा है। उसके सर्वत्र प्रवाह चल रहे हैं । कहीं न्यूनता नहीं।
जब प्यास बुझाने वाले शीतल स्वादिष्ट और शान्तिदायक जल की धाराएं सर्वत्र बह रही हैं तो कोई क्यों प्यासा रहे?
पर होता तो यह भी है कि फिर भी हम प्यासे रह जाते हैं। प्रभु के सुख शान्ति दायक ऐश्वर्य की मन्दाकिनी सर्वत्र बहती रहने पर भी हमें बहुत बार वह ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होता। हम बहुत बार दु:ख दारिद्र्य में डूबते रहते हैं । गोते खाते रहते हैं।
इसका कारण यही है कि हमें उस गंगा का पानी पीना नहीं आया।
प्रभु की सुखदायिनी ऐश्वर्य-मन्दाकिनी का पानी किस प्रकार पिया जा सकता है, हम प्रभु के भजनीय ऐश्वर्य के भागी किस प्रकार हो सकते है,इसका एक उपाय प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है,कि "हे प्रभु मैं निन्दा से पहले द्वेषरहित होकर तुम्हारे भजनीय ऐश्वर्य को हाथों में धारण करता हूं"। मन्त्र के इस कथन से दो बातें सूचित होती हैं, एक तो यह कि प्रभु का भजन ईश्वरीय निन्दा से पहले प्राप्त किया जा सकता है, और दूसरी यह कि वह ऐश्वर्य द्वेषरहित होकर प्राप्त किया जा सकता है। दोनों बातों का तात्पर्य समझ लेना चाहिए। निन्दा से पहले प्रभु का ऐश्वर्य प्रात किया जा सकता है, इस कथन का यह तात्पर्य है कि जब तक हमारा जीवन निन्दनीय नहीं बन जाता जब तक हमारे चरित्र में दोष नहीं आ जाते, तब तक हम प्रभु के ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकते हैं। ज्यों ही हमारे जीवन में दोष आते पाप घुसे और हमारा जीवन निन्दनीय बना देवे त्यों ही प्रभु का ऐश्वर्य हमसे छिनना प्रारम्भ हो जाता है। यदि हम प्रभु के ऐश्वर्य को प्राप्त करके सुख का पान करना चाहते हैं तो हमें अपने चरित्र में निन्दा को, दोषों को, पापों को घुसने नहीं देना होगा।
दूसरी बात यह करनी चाहिए कि हमें सर्वथा द्वेषरहित होना चाहिए। हमारी जीवन में किसी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं रहना चाहिए। जब हमारे जीवन में द्वेष घुस जाता है,तभी उसमें सब प्रकार के पाप आ घुसते हैं। द्वेषवृत्ति का महावृक्ष हमारे हृदय क्षेत्र में खड़ा हो जाने पर उसकी छाया में सभी प्रकार के पापों के अंकुर उपजने लगते हैं।
इसलिए हमें द्वेष को अपने हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए। इसके स्थान में हमें प्राणीमात्र के लिए प्रेम के भाव रखने चाहिए।
हिंसाशीलता को निकाल कर उसके स्थान में प्रेम को,अहिंसाशीलता को उत्पन्न करना चाहिए। जब हमारे मन में प्राणी मात्र के लिए प्रेम पैदा हो जाता है,तब हम में सहज ही उपकार वृति जाग उठती है। और हमारे हृदय में उपकार वृत्ति जाग पड़ने का परिणाम यह होता है,कि सब सदगुण हमारे अन्दर उपजने लगते हैं। फलत:हमारे चरित्र की निंदा, उनके दोष और पाप दूर होने लगते हैं। हमारा जीवन निष्पाप हो जाता है।
भगवान कहते हैं कि हे मनुष्य ! तू चरित्र के दोषों को त्याग दे, जीवन में द्वेष और हिंसा को निकाल कर उसके स्थान में प्रेम और अहिंसा को आरोपित कर दे और इस प्रकार अपने आप को पवित्र बना ले। फिर तुझे मैं सब मंगल जो दान करूंगा। मेरा सारा ऐश्वर्य तेरे हाथों में होगा।
हे मेरे आत्मा ! क्या तू भी कभी द्वेष को छोड़कर प्रेम को और हिंसा को छोड़कर अहिंसा को प्राप्त कर सकेगा ? और इस प्रकार भगवान के ऐश्वर्य का भागी बन सकेगा?
मराठी (1)
भावार्थ
येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा मी ईश्वर सर्वांची निंदा करणाऱ्या माणसाला दुःख व स्तुती करणाऱ्याला सुख देतो तसे तुम्हीही करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Whatever your gifts of dispensation thus, whether admirable wealth as a result of former adoration and worship, or otherwise as a result of blame and censure, I deliver into your hands without hate or anger.
Subject of the mantra
Even then, God has elucidated Himself only, in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (jīva)=living being! (yathā)=As, (adveṣaḥ) =friendliest to all and flawless, I God, (itthā)=thus for many reasons, (sukhahetunā)=for pleasure, (yaḥ)=that collection of wealth, (śaśamānaḥ)=worship, (bhagaḥ)=serviceable money, (asti)=is, (tam)=to that, (sukarmaṇaḥ)=by auspicious deeds, (te)=for you religious person, (hastayoḥ) =having result of the deeds as emblic myrobalan fruit, in other words, it is easily obtained, (iva)=in the same way, (dadhe)=I hold, (ca)=and, (yaḥ)=that, (nidaḥ)=critic of all, (asti)=is, (tasya)=his, (hastayoḥ)=having result of the deeds as emblic myrobalan fruit, in other words, it is easily obtained, (iva)=in the same way, (sakāśāt)=in closeness, (etat)=this, (sukham)=delight, (ca)=as well, (vināśaye)=hold for destruction.
English Translation (K.K.V.)
O living being! as I God, friendliest to all and flawless, thus for many reasons for pleasure that collection of wealth, worship and serviceable money is, that can be had by auspicious deeds for you righteous person having reward of the deeds as having emblic myrobalan fruit in the hand, in other words, it is easily obtained. In the same way, I hold that who is critic of all. By him as having emblic myrobalan fruit in the hand, in other words, it is easily obtained in closeness, in the same way I possess for this delight and destruction as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. Like, sorrow for a man who blasphemes me God, who is according to righteousness in any creation. I give happiness to the one who praises you, in the same way, all of you must always do.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O soul: as I-God who am free from hatred or envy, put in thy hands (who art doer of noble deeds) admirable good wealth as amalaka or enblic Myrobalan in one's hands and take away this wealth from the hands of an unrighteous person who censures noble men and Dharma, so you should also act.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शशमान:) स्तोतुमर्ह: = Admirable.(भगः) सेवितुमर्हो धनसमूहः = God wealth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As I— God give misery to an unrighteous person censuring others unjustly and happiness and knowledge to him who conducts himself according to the injunctions of Dharma, so you should also behave.
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