ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
आ यद्धरी॑ इन्द्र॒ विव्र॑ता॒ वेरा ते॒ वज्रं॑ जरि॒ता बा॒ह्वोर्धा॑त्। येना॑विहर्यतक्रतो अ॒मित्रा॒न्पुर॑ इ॒ष्णासि॑ पुरुहूत पू॒र्वीः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । हरी॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ । विऽव्र॑ता । वेः । आ । ते॒ । वज्र॑म् । ज॒रि॒ता । बा॒ह्वोः । धा॒त् । येन॑ । अ॒वि॒ह॒र्य॒त॒क्र॒तो॒ इत्य॑विहर्यतऽक्रतो । अ॒मित्रा॑न् । पुरः॑ । इ॒ष्णासि॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । पू॒र्वीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्धरी इन्द्र विव्रता वेरा ते वज्रं जरिता बाह्वोर्धात्। येनाविहर्यतक्रतो अमित्रान्पुर इष्णासि पुरुहूत पूर्वीः ॥
स्वर रहित पद पाठआ। यत्। हरी इति। इन्द्र। विऽव्रता। वेः। आ। ते। वज्रम्। जरिता। बाह्वोः। धात्। येन। अविहर्यतक्रतो इत्यविहर्यतऽक्रतो। अमित्रान्। पुरः। इष्णासि। पुरुऽहूत। पूर्वीः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सभाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे अविहर्यतक्रतो पुरुहूतेन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! त्वं यद्यस्माद्विव्रतो हरी आवेः समन्ताद् विद्धि। येनामित्रान् हंसि येन शत्रूणां पूर्वीः पुर इष्णासि तत्पराजयाय स्वविजयाभीक्ष्णं गच्छसि तस्माज्जरिता ते तव बाह्वोराश्रयेण वज्रमाधाद्दधाति ॥ २ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यत्) यस्मात् (हरी) सद्व्यवहारहरणशीलसेनान्यायप्रकाशौ (इन्द्र) परमैश्वर्यकारक सभाध्यक्ष (विव्रता) विविधानि व्रतानि शीलानि याभ्यां तौ (वेः) विद्धि। अत्रोभयत्राडभावः। (आ) आभिमुख्ये (ते) तव (वज्रम्) आज्ञापनं शस्त्रसमूहं वा (जरिता) सर्वविद्यास्तोता (बाह्वोः) बलवीर्ययोः (धात्) दधाति (येन) वज्रेण (अविहर्यतक्रतो) न विद्यन्ते विरुद्धा हर्य्यताः प्रज्ञाकर्माणि यस्य तत्सम्बुद्धौ (अमित्रान्) शत्रून् (पुरः) नगरीः (इष्णासि) अभीक्ष्णं प्राप्नोषि गच्छसि वा (पुरुहूत) बहुभिर्विद्वद्भिः पूजित (पूर्वीः) पूर्वेषां सम्बन्धिनीः ॥ २ ॥
भावार्थः
सभाद्यध्यक्षेणैवं शीलं गुणान् कर्माणि च स्वीकार्याणि यतः सर्वे मनुष्यास्तदेतद् दृष्ट्वा शिष्टा भूत्वा निष्कण्टकं राज्यसुखं सर्वदा भुञ्जीरन्निति ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में सभापति आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (अविहर्य्यक्रतो) दुष्ट बुद्धि और पाप कर्मों से रहित (पुरुहूत) बहुत विद्वानों से सत्कार को प्राप्त करानेवाले सभाद्यध्यक्ष ! आप (यत्) जिस कारण (विव्रता) नाना प्रकार के नियमों के उत्पन्न करनेवाले (हरी) सेना और न्यायप्रकाश को (आवेः) अच्छे प्रकार जानते हो (येन) जिस वज्र से (अमित्रान्) शत्रुओं को मारते तथा जिससे उनके (पूर्वीः) बहुत (पुरः) नगरों को (इष्णासि) जीतने के लिये इच्छा करते और शत्रुओं के पराजय और अपने विजय के लिये प्रतिक्षण जाते हो, इससे (जरिता) सब विद्याओं की स्तुति करनेवाला मनुष्य (ते) आपके (बाह्वोः) भुजाओं के बल के आश्रय से (वज्रम्) वज्र को (आधात्) धारण करता है ॥ २ ॥
भावार्थ
सभापति आदि को उचित है कि इस प्रकार के उत्तम स्वभाव, गुण और कर्मों को स्वीकार करें कि जिससे सब मनुष्य इस कर्म को देख तथा शिष्ट होकर निष्कण्टक राज्य के सुख को सदा भोगें ॥ २ ॥
विषय
निरन्तर क्रियाशीलता
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जो आप (विव्रता) = विविध व्रतोंवाले, भिन्न - भिन्न कार्यों को करनेवाले (हरी) = ज्ञानन्द्रियों व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (आवेः) = शरीररूप रथ में युक्त करते हैं [रथे योजयसि - सा०] तब (ते) = आपका (जरिता) = स्तोता (बाह्वोः) = भुजाओं में (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूपी वज्र को (आधात्) = धारण करता है । प्रभु विविध क्रियाओं को करने के लिए इन्द्रियाँ देते हैं और जीव सच्चा प्रभुभक्त होता हुआ उन इन्द्रियों से सदा उचित कार्यों को करनेवाला बनता है । २. स्तोता उस व्रत को धारण करता है (येन) = जिससे (अविहर्यतक्रतो) = अनभिलषित (कर्मन्) = अभिलाषा से शून्य कर्मोंवाले प्रभो ! आप (अमित्रान्) = शत्रुओं के प्रति (इष्णासि) = जाते हैं, उनपर आक्रमण करते हैं और हे (पुरुहूत) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी ऐसे आप (पूर्वीः पुरः) = असुरों की बहुत - सी नगरियों को तोड़ने के लिए (इष्णासि) = प्रवृत्त होते हैं । प्रभु ने हमें इन्द्रियाँ दी हैं, यदि हम उनसे ज्ञानप्राप्ति व यज्ञादि कर्मों में लगे रहते हैं तो प्रभु हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं और आसुरपुरियों का विध्वंस कर देते हैं । संक्षेप में अभिप्राय यह है कि यदि हमें आसुरभावनाओं के आक्रमण से बचना है तो हमें सदा ज्ञानप्राप्ति व यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहना चाहिए । खाली हुए और असुरों का आक्रमण हुआ ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ने हमारे शरीररथ में ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़े जोते हैं, अतः हम सदा इस रथ से आगे और आगे बढ़ें । आसुरभावों के आक्रमण से बचने का यही उपाय है ।
विषय
राजा के हाथ में राजदण्ड का समर्पण ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! सभापते ! सेनापते ! (यत्) जब तू (विव्रता) विविध व्रतों और शीलों के पालन करने वाले (हरी) उत्तम व्यवहारों के प्रवर्त्तक न्याय व्यवस्था और सेनाविभाग दोनों को ( हरी ) रथ में दो अश्वों के समान राष्ट्र के सञ्चालन के लिये ( वेः ) प्राप्त करे और उनको संचालित करे तभी ( गिरयः ) विद्वान् पुरुष, प्रस्तोताजन ( ते बाह्वोः ) तेरी बाहुओं में ( वज्रम् ) शासन दण्ड को ( धात् ) धारण करावे, अर्थात् शासन के अधिकार तुझे सौंपता है । ( येन ) जिस अधिकार बल से हे ( अविहर्यत क्रतो ) अविरुद्ध, सबके प्रति हितजनक उत्तम कार्यों और प्रज्ञाओं के स्वामिन् ! हे ( पुरुहुत ) सबसे स्तुति योग्य ! तू ( अमित्रान् ) शत्रुओं और ( पूर्वीः ) अपने राज्यारोहण से पूर्व के शत्रु राजाओं के ( पुरः ) नगरों पर ( इष्णासि ) चढ़ाई कर । राजा सभापति और सेनापति अभिषेक के बाद स्थारोहण के समय शासन दण्ड अपने हाथ में ले और पूर्व विद्यमान शत्रुओं पर दिग्विजय के लिए निकले ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अब इस मन्त्र में सभापति आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अविहर्यतक्रतो पुरुहूत इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! त्वं यत् यस्मात् विव्रतौ हरी आवेः समन्ताद् विद्धि। येन अमित्रान् हंसि येन शत्रूणां पूर्वीः पुर इष्णासि तत् पराजयाय स्वविजयाय अभीक्ष्णं गच्छसि तस्मात् जरिता ते तव बाह्वोः आश्रयेण वज्रम् आधात् दधाति ॥२॥
पदार्थ
हे (अविहर्यतक्रतो) न विद्यन्ते विरुद्धा हर्य्यताः प्रज्ञाकर्माणि यस्य तत्सम्बुद्धौ= अश्वमेध के अश्व के विरुद्ध प्रज्ञा और कर्म न करनेवाला, (पुरुहूत) बहुभिर्विद्वद्भिः पूजित=बहुत से विद्वानों के द्वारा पूजित, (इन्द्र) परमैश्वर्यकारक=परम ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, (सभाद्यध्यक्ष)=सभा आदि के अध्यक्ष ! (त्वम्)=तुम, (यत्) यस्मात्=क्योंकि, (विव्रता) विविधानि व्रतानि शीलानि याभ्यां तौ=बहुत से व्रतों और स्वभावोंवाले, (हरी) सद्व्यवहारहरणशीलसेनान्यायप्रकाशौ=उत्तम व्यवहार, दूर ले जाने के स्वभाववाली सेना और न्याय के प्रकाश में, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (वेः) विद्धि= छेदने की क्रिया करते हो, (येन)=जिस से, (अमित्रान्) शत्रून्=शत्रुओं को, (हंसि)= तुम मारते हो, (येन) वज्रेण=वज्र से, (शत्रूणाम्)=शत्रुओं के, (पूर्वीः) पूर्वेषां सम्बन्धिनीः=पहले के सम्बन्धित, (पुरः) नगरीः=नगरों में, (इष्णासि) अभीक्ष्णं प्राप्नोषि गच्छसि वा=निरन्तर पहुँचते हो या जाते हो, (तत्)=उसकी, (पराजयाय)=पराजय के लिये, और, (स्वविजयाय)=अपनी विजय के लिये, (अभीक्ष्णम्)= निरन्तर, (गच्छसि)= जाते हो, (तस्मात्)=इसलिये. (जरिता) सर्वविद्यास्तोता= सब विद्याओं से स्तुति करनेवालों के प्रशंसक, (ते) तव=तुम्हारे, (बाह्वोः) बलवीर्ययोः=बल और तेज के, (आश्रयेण)= आश्रय से, (वज्रम्) आज्ञापनं शस्त्रसमूहं वा=शस्त्र के समूह को जानते हुए, (आ) आभिमुख्ये=सामने से, (धात्) दधाति=धारण करता है ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सभा आदि के अध्यक्ष के द्वारा ऐसे ही स्वभाव, गुण और कर्मों को स्वीकार करते हुए कार्य करना चाहिए। क्योंकि सब मनुष्यों के द्वारा ऐसा देखते हुए, शिष्ट होकर निष्कण्टक राज्य के सुख को सर्वदा भोगना चाहिए ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अविहर्यतक्रतो) अश्वमेध के अश्व के विरुद्ध प्रज्ञा और कर्म न करनेवाले, (पुरुहूत) बहुत से विद्वानों के द्वारा पूजित (इन्द्र) परम ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले (सभाद्यध्यक्ष) सभा आदि के अध्यक्ष ! (त्वम्) तुम, (यत्) क्योंकि (विव्रता) बहुत से व्रतों और स्वभावोंवाले, (हरी) उत्तम व्यवहार से दूर ले जाने के स्वभाववाली सेना और न्याय के प्रकाश में, (आ) हर ओर से (वेः) छेदने की क्रिया करते हो, (येन) जिस से (अमित्रान्) शत्रुओं को (हंसि) तुम मारते हो। (येन) वज्र से (शत्रूणाम्) शत्रुओं के (पूर्वीः) पहले से सम्बन्धित (पुरः) नगरों में (इष्णासि) निरन्तर पहुँचते हो या जाते हो। (तत्) उसकी (पराजयाय) पराजय के लिये और (स्वविजयाय) अपनी विजय के लिये (अभीक्ष्णम्) निरन्तर (गच्छसि) जाते हो, (तस्मात्) इसलिये (जरिता) सब विद्याओं से स्तुति करनेवालों के प्रशंसक, (ते) तुम्हारे (बाह्वोः) बल और तेज के (आश्रयेण) आश्रय से (वज्रम्) शस्त्र के समूह को जानते हुए, (आ) सामने से (धात्) धारण करते हो ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (यत्) यस्मात् (हरी) सद्व्यवहारहरणशीलसेनान्यायप्रकाशौ (इन्द्र) परमैश्वर्यकारक सभाध्यक्ष (विव्रता) विविधानि व्रतानि शीलानि याभ्यां तौ (वेः) विद्धि। अत्रोभयत्राडभावः। (आ) आभिमुख्ये (ते) तव (वज्रम्) आज्ञापनं शस्त्रसमूहं वा (जरिता) सर्वविद्यास्तोता (बाह्वोः) बलवीर्ययोः (धात्) दधाति (येन) वज्रेण (अविहर्यतक्रतो) न विद्यन्ते विरुद्धा हर्य्यताः प्रज्ञाकर्माणि यस्य तत्सम्बुद्धौ (अमित्रान्) शत्रून् (पुरः) नगरीः (इष्णासि) अभीक्ष्णं प्राप्नोषि गच्छसि वा (पुरुहूत) बहुभिर्विद्वद्भिः पूजित (पूर्वीः) पूर्वेषां सम्बन्धिनीः ॥२॥ विषयः- पुनः सभाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे अविहर्यतक्रतो पुरुहूतेन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! त्वं यद्यस्माद्विव्रतो हरी आवेः समन्ताद् विद्धि। येनामित्रान् हंसि येन शत्रूणां पूर्वीः पुर इष्णासि तत्पराजयाय स्वविजयाभीक्ष्णं गच्छसि तस्माज्जरिता ते तव बाह्वोराश्रयेण वज्रमाधाद्दधाति ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभाद्यध्यक्षेणैवं शीलं गुणान् कर्माणि च स्वीकार्याणि यतः सर्वे मनुष्यास्तदेतद् दृष्ट्वा शिष्टा भूत्वा निष्कण्टकं राज्यसुखं सर्वदा भुञ्जीरन्निति ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभापती इत्यादींनी या प्रकारे उत्तम स्वभाव, गुण व कर्मांचा स्वीकार करावा. ज्यामुळे सर्व माणसांनी या कर्माला पाहून व शिष्ट बनून निष्कंटक राज्याचे सुख सदैव भोगावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord almighty of immaculate action, universally invoked, when you deploy your forces of movement and advance, observing the rules and discipline of your universal law, your worshippers and admirers too hold in their arms the same thunderbolt of law by which you destroy the many strongholds of the enemies of life and humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Indra ( President of the Assembly etc. ) are taught in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly or the Commander of the Army etc.). O man of agreeable intellect and acts, glorified and invoked by many, thou knowest and preservest well the army and the light of justice which remove all evil conduct and protect various vows. Thou assailest thine enemies and destroyest their numerous cities for gaining victory over them by defeating them. Therefore thy admirer also bears thunderbolt or strong weapons in his arms by taking shelter in thee or urged by thee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(हरी) असद्व्यवहारहरणशीलसेनान्यायप्रकाशौ । = The army and the light of justice that remove all evil conduct. (अविहर्यतकतो) न विद्यन्ते विरुद्धाः हर्यता: प्रज्ञा कर्माणि यस्य तत्सम्बुद्धौ । =Man who does not have disagreeable intellect and acts.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly or the Commander of the Army should have such temperament, character and conduct that by following his example, all people should become good and should enjoy un-interruptedly the happiness of the kingdom well.
Translator's Notes
हर्य-गति प्रेप्सयोः धीरिति प्रज्ञानाम (निघ० ३.९) धीरिति कर्मनाम (निघ० १.१)
Subject of the mantra
Now in this mantra the qualities of the Chairman etc. have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (aviharyatakrato)= those who do not have wisdom and action against the horse of Aśvamedha, (puruhūta)= revered by many scholars, (indra)= bestower of opulence, (sabhādyadhyakṣa) =president of the Assembly etc., (tvam) =you, (yat) =because, (vivratā)= those with many vows and natures, (harī)= In the light of the army and justice which have a nature of taking away from good behavior, (ā) =from all sides, (veḥ) =do the piercing process, (yena) =by which, (amitrān) =to enemies, (haṃsi) =you kill, (yena) =by thunderbolt, (śatrūṇām) =of enemies, (pūrvīḥ)= already related, (puraḥ) =in towns, (iṣṇāsi)=you constantly arrive or go, (tat) =his, (parājayāya) =for defeat, and, (svavijayā) =for own victory, (abhīkṣṇam) =continuously, (gacchasi) =go, (tasmāt) =therefore, (jaritā) =admirers of those who praise with all knowledge, (te) =your, (bāhvoḥ)=of force and brilliance, (āśrayeṇa) =by support, (vajram) =knowing the group of weapons, (ā) =from front, (dhāt) =hold.
English Translation (K.K.V.)
O the one who does not use wisdom and action against the horse of Aśvamedha, the one who is worshiped by many scholars and the President of the Assembly who bestows supreme opulence! Because you, having many vows and natures, having a nature of taking away good conduct, and in the light of justice, perform the piercing action from all sides, through which you kill the enemies. With thunderbolt you continuously reach or go to the cities already belonging to the enemies. You continuously go for his defeat and for your victory, that is why the admirers of those who praise you with all the knowledge, knowing the group of weapons with the support of your strength and glory, possess it in front.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The President of the Assembly etc. should work by accepting such nature, qualities and deeds. Because viewing this being seen by all human beings, one should always enjoy the happiness of a free state by being polite.
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