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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं स॒त्य इ॑न्द्र धृ॒ष्णुरे॒तान्त्वमृ॑भु॒क्षा नर्य॒स्त्वं षाट्। त्वं शुष्णं॑ वृ॒जने॑ पृ॒क्ष आ॒णौ यूने॒ कुत्सा॑य द्यु॒मते॒ सचा॑हन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । स॒त्यः । इ॒न्द्र॒ । धृ॒ष्णुः । ए॒तान् । त्वम् । ऋ॒भु॒क्षाः । नर्यः॑ । त्वम् । षाट् । त्वम् । शुष्ण॑म् वृ॒जने॑ । पृ॒क्षे । आ॒णौ । यूने॑ । कुत्सा॑य । द्यु॒मते॑ । सचा॑ । अ॒ह॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं सत्य इन्द्र धृष्णुरेतान्त्वमृभुक्षा नर्यस्त्वं षाट्। त्वं शुष्णं वृजने पृक्ष आणौ यूने कुत्साय द्युमते सचाहन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सत्यः। इन्द्र। धृष्णुः। एतान्। त्वम्। ऋभुक्षाः। नर्यः। त्वम्। षाट्। त्वम्। शुष्णम् वृजने। पृक्षे। आणौ। यूने। कुत्साय। द्युमते। सचा। अहन् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यतस्त्वं सत्योऽसि यतस्त्वं धृष्णुरसि यतस्त्वमृभुक्षा असि यतस्त्वं नर्य्योऽसि यतस्त्वं षाडसि तस्माद् वृजने पृक्ष आणौ सचा सत्समवायेन कुत्साय द्युमते यूने शूष्णं शरीरात्मबलं ददासि शत्रूनहन् हंस्येतान् धार्मिकान् पालयसि तस्मात् पूज्योऽसि ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) निरूपितपूर्वः (सत्यः) सत्सु साधुर्जीवस्वरूपेणानादिस्वरूपो वा (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (धृष्णुः) दृढः (एतान्) मित्रान् शत्रून् वा (त्वम्) (ऋभुक्षाः) महान्। ऋभुक्षा इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (नर्य्यः) नृषु साधुर्नृभ्यो हितो वा (त्वम्) (षाट्) सहनशीलः। वा छन्दसि विधयो भवन्तीति केवलादपि ण्विः। (त्वम्) (शुष्णम्) बलम् (वृजने) वृजते शत्रून् येन तस्मिन् (पृक्षे) पृचन्ति संयुञ्जन्ति यस्मिन् (आणौ) संग्रामे (यूने) शरीरात्मनोः पूर्णं बलं प्राप्ताय (कुत्साय) कुत्सः प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो वा यस्य तस्मै धृतवज्राय (द्युमते) द्यौः प्रशस्तो विद्याप्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तस्मै (सचा) शिष्टसमवायेन सह (अहन्) शत्रून् हंसि ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    नहि सभासभाद्यध्यक्षाभ्यां विना शत्रुपराजयो राज्यपालनं च यथावज्जायते तस्माच्छिष्टगुणयुक्ताभ्यामेताभ्यामेते कार्य्ये सर्वैर्मनुष्यैः कारयितव्ये इति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) उत्तम सम्पदा के देनेवाले सभाध्यक्ष ! (त्वम्) आप जिस कारण (सत्यः) जीवस्वरूप से अनादि हो, जिस कारण (त्वम्) आप (धृष्णुः) दृढ़ हो तथा जिस कारण (त्वम्) आप (ऋभुक्षाः) गुणों से बड़े (नर्य्यः) मनुष्यों के बीच चतुर और (षाट्) सहनशील हो, इससे (वृजने) जिसमें शत्रुओं को प्राप्त होते हैं (पृक्षे) संयुक्त इकट्ठे होते हैं, जिसमें उस (आणौ) संग्राम में (सचा) शिष्टों के सम्बन्ध से (कुत्साय) शस्त्रों को धारण किये (द्युमते) उत्तम प्रकाशयुक्त (यूने) शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त हुए मनुष्य के लिये (शुष्णम्) पूर्ण बल को देते हो। जिस कारण आप शत्रुओं को (अहन्) मारते तथा (एतान्) इन धर्मात्मा श्रेष्ठ पुरुषों का पालन करते हो, इससे पूजने योग्य हो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    सभा और सभापति के विना शत्रुओं का पराजय और राज्य का पालन किसी से नहीं हो सकता। इसलिये श्रेष्ठ गुणवालों की सभा और सभापति से इन सब कार्य्यों को सिद्ध कराना मनुष्यों का मुख्य काम है ॥ ३ ॥

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    विषय

    ‘शुष्ण’ का हनन

    पदार्थ

    १. (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! शक्तिशाली कार्यों को करनेवाले प्रभो ! (त्वं सत्यः) = आप ही सत्य हो [सत्सु भवः] सज्जनों में आपका निवास है, (धृष्णुः) = इन सज्जनों के काम - क्रोधादि शत्रुओं का आप ही पराभव करनेवाले हैं, (ऋभुक्षाः) = आप महान् हैं अथवा ऋत - नियमितता, व्यवस्थित जीवन से चमकनेवालों में [ऋतेन भान्तीति ऋभवः, तेषु क्षियति] निवास करनेवाले हैं (त्वम्) = आप ही (नर्यः) = नर - हितकारी हैं, अपने को आगे और आगे प्राप्त करानेवालों का आप ही हित करनेवाले हैं । (त्वम्) = आप ही (एतान्) = इन शत्रुओं का (षाट्) = पराभव करनेवाले हैं । २. पूर्वार्द्ध में कही बात को उदाहरण से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि (त्वम्) = आप ही (वृजने) = संग्राम में - काम - क्रोध आदि के साथ चलनेवाले युद्ध में (पृक्षे) = जो युद्ध सम्पर्चनीय है, अन्ततः इस युद्ध करनेवाले को आपके साथ सम्पृक्त करनेवाला है तथा (आणौ) = [अण् to sound] जिस युद्ध में योद्धा आपके नामों का उच्चारण करते हैं [जैसेकि शिवाजी के योद्धा हर - हर महादेव बोलकर युद्ध करते थे] । इस युद्ध में आप ही (यूने) = अपने साथ गुणों का मिश्रण व दोषों का अमिश्रण करनेवाले (कुत्साय) = वासनाओं का हिंसन करनेवाले और अतएव (द्युमते) = ज्योतिर्मय मस्तिष्कवाले पुरुष के लिए (सचा) = उसके साथ मिलकर (शुष्णम्) = शोषण कर देनेवाले कामासुर को (अहन्) = मारते हैं । काम - क्रोधादि का संहार वस्तुतः प्रभु की शक्ति से ही होता है । यह संग्राम तो है ही ("आणि") = जिसमें प्रभु का निरन्तर नामोच्चारण हो । प्रभुस्मरण से कुत्स को शक्ति मिलती है, वह उत्साहित होता है, प्रभु को अपने साथ जानकर वह शक्ति का अनुभव करता है और काम - क्रोधादि का संहार कर पाता है । यह क्या संहार करता है, संहार तो सब प्रभुकृपा से ही होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं ।

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    विषय

    शत्रुनाश के उपाय ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! सभा-सेनापते ! तू ( सत्यः ) सज्जनों में श्रेष्ठ, सत्य व्यवहारवाला होकर ( एतान् धृष्णुः ) इन समस्त शत्रुओं को पराजय करने में समर्थ हो । ( ऋभुक्षाः ) सत्य से भासित, महान् सामर्थ्यवाले विद्वानों और बड़े तेजस्वी वीरों और शिल्पियों के बीच में उनका स्वामी होकर रहने वाला, सबसे महान्, ( नर्यः ) सब नरों में श्रेष्ठ, सबका हितकारी, उत्तम नेता (त्वं षाट्) तू सबको पराजय करनेवाला बलवान् हो । तू ( वृजने ) शत्रुओं को वर्जन करनेवाले, ( पृक्षे ) मित्र शत्रु सबको एकत्र मिला देने वाले, घमासान ( आणौ ) अतितुमुल युद्ध में ( यूने ) जवान, ( कुत्साय ) वज्रधर शस्त्रास्त्र से युक्त ( द्युमते ) तेजस्वी सेना बल को (शुष्णम्) अपना बल प्रदान कर और (सचा) एक समवाय या संघशक्ति से आक्रमण करके ( अहन् ) शत्रुओं का नाश कर । अथवा (वृजने यूने शुष्णं आधाय अहन्) शत्रुओं को परे हटाने के काम में जवानों में बल देकर शत्रुओं का नाश कर । ( पृक्षे कुत्साय) जा भिड़ने के काम में खड़धारी बल को उत्तेजित कर और ( आणौ ) घोर गर्जनायुक्त तोपों की लड़ाई में ( द्युमते ) कान्तियुक्त आग्नेय अस्त्रों के वेत्ता पुरुषों को अधिकार और बल देकर शत्रुओं का नाश कर । अथवा—जवान शस्त्रधर और तेजस्वी पुरुषों के बल से प्रजा के शोषणकारी शत्रु का नाश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! यतः त्वं सत्यः असि यतः त्वं धृष्णुः असि यतः त्वं ऋभुक्षा असि यतः त्वं नर्य्यः असि यतः त्वं षाट् असि तस्माद् वृजने पृक्ष आणौ सचा सत् समवायेन कुत्साय द्युमते यूने शूष्णं शरीर आत्मबलं ददासि शत्रून् अहन् हंसि एतान् धार्मिकान् पालयसि तस्मात् पूज्यः असि ॥३॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक=परम ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्) निरूपितपूर्वः=पूर्व में निर्धारित किये हुए, (सत्यः) सत्सु साधुर्जीवस्वरूपेणानादिस्वरूपो वा= सदाचारी जीवन के स्वरूपवाले, (असि)=हो, (यतः)= क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (धृष्णुः) दृढः= दृढ, (असि)=हो, (यतः)= क्योंकि, (त्वम्) =तुम, (ऋभुक्षाः) महान्= महान्, (असि)=हो, (यतः)= क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (नर्य्यः) नृषु साधुर्नृभ्यो हितो वा=मनुष्यों में सदाचारी अथवा मनुष्यों के हितकारी, (असि)=हो, (यतः)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (षाट्) सहनशीलः= सहनशील, (असि)=हो, (तस्माद्)= इसलिये, (वृजने) वृजते शत्रून् येन तस्मिन्=जिससे शत्रुओं को छोड़ता है, (पृक्षे) पृचन्ति संयुञ्जन्ति यस्मिन्=मिला देनेवाले, (आणौ) संग्रामे= संग्राम में, (सचा) शिष्टसमवायेन सह==शिष्ट लोगों की संगति के साथ, (कुत्साय) कुत्सः प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो वा यस्य तस्मै धृतवज्राय= प्रशस्त वज्र वाले शस्त्रों के समूह को धारण करनेवाले, (द्युमते) द्यौः प्रशस्तो विद्याप्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तस्मै= प्रशस्त विद्या से प्रकाशित जो, (यूने) शरीरात्मनोः पूर्णं बलं प्राप्ताय= शरीर और आत्मा में पूर्ण बल को प्राप्त जन के लिये, (शुष्णम्) बलम्=बलवान, (शरीरम्)= शरीर और, (आत्मबलम्)= आत्मबल, (ददासि)=प्रदान करते हो, और, (शत्रून्)= शत्रुओं को, (अहन्) शत्रून् हंसि= मारते हो, (एतान्) मित्रान् शत्रून् वा =मित्र और शत्रु, (धार्मिकान्) =धार्मिकों का, (पालयसि)=रक्षण करते हो, (तस्मात्)=इसलिये, (पूज्यः)=तुम पूज्य, (असि)=हो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सभा और सभा के अध्यक्ष आदि के विना शत्रुओं का पराजय और राज्य का पालन ठीक-ठीक नहीं हो सकता है, इसलिये शिष्ट गुणवालों के द्वारा इन सब कार्यों को सब मनुष्यों के द्वारा ये दोनो कार्य करवाने चाहिएँ ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले! (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम पूर्व में निर्धारित किये हुए (सत्यः) सदाचारी जीवन के स्वरूपवाले (असि) हो। (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (धृष्णुः) दृढ (असि) हो, (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (ऋभुक्षाः) महान (असि) हो, (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (नर्य्यः) मनुष्यों में सदाचारी अथवा मनुष्यों के हितकारी (असि) हो, (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (षाट्) सहनशील (असि) हो, (तस्माद्) इसलिये (वृजने) शत्रुओं को छोड़नेवाले, (पृक्षे) मिला देनेवाले हैं और (आणौ) संग्राम में (सचा) शिष्ट लोगों की संगति के साथ (कुत्साय) प्रशस्त वज्र वाले शस्त्रों के समूह को धारण करनेवाले हैं। (द्युमते) प्रशस्त विद्या से प्रकाशित जो, (यूने) शरीर और आत्मा में पूर्ण बल को प्राप्तजन के लिये (शुष्णम्) बलवान, (शरीरम्) शरीर और (आत्मबलम्) आत्मबल को (ददासि) प्रदान करते हो और (शत्रून्) शत्रुओं को (अहन्) मारते हो। (एतान्) मित्र और शत्रु (धार्मिकान्) धार्मिक लोगों का (पालयसि) रक्षण करते हो, (तस्मात्) इसलिये (पूज्यः) तुम पूज्य (असि) हो ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) निरूपितपूर्वः (सत्यः) सत्सु साधुर्जीवस्वरूपेणानादिस्वरूपो वा (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (धृष्णुः) दृढः (एतान्) मित्रान् शत्रून् वा (त्वम्) (ऋभुक्षाः) महान्। ऋभुक्षा इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (नर्य्यः) नृषु साधुर्नृभ्यो हितो वा (त्वम्) (षाट्) सहनशीलः। वा छन्दसि विधयो भवन्तीति केवलादपि ण्विः। (त्वम्) (शुष्णम्) बलम् (वृजने) वृजते शत्रून् येन तस्मिन् (पृक्षे) पृचन्ति संयुञ्जन्ति यस्मिन् (आणौ) संग्रामे (यूने) शरीरात्मनोः पूर्णं बलं प्राप्ताय (कुत्साय) कुत्सः प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो वा यस्य तस्मै धृतवज्राय (द्युमते) द्यौः प्रशस्तो विद्याप्रकाशो विद्यते यस्मिँस्तस्मै (सचा) शिष्टसमवायेन सह (अहन्) शत्रून् हंसि ॥३॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! यतस्त्वं सत्योऽसि यतस्त्वं धृष्णुरसि यतस्त्वमृभुक्षा असि यतस्त्वं नर्य्योऽसि यतस्त्वं षाडसि तस्माद् वृजने पृक्ष आणौ सचा सत्समवायेन कुत्साय द्युमते यूने शूष्णं शरीरात्मबलं ददासि शत्रूनहन् हंस्येतान् धार्मिकान् पालयसि तस्मात् पूज्योऽसि ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि सभासभाद्यध्यक्षाभ्यां विना शत्रुपराजयो राज्यपालनं च यथावज्जायते तस्माच्छिष्टगुणयुक्ताभ्यामेताभ्यामेते कार्य्ये सर्वैर्मनुष्यैः कारयितव्ये इति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सभा व सभापतीशिवाय शत्रूंचा पराजय व राज्याचे पालन कुणाकडूनही होऊ शकत नाही. त्यासाठी श्रेष्ठ गुण युक्तांची सभा व सभापतीद्वारे या सर्व कार्यांना सिद्ध करविणे माणसांचे मुख्य काम आहे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Indra, you are ever true, constant destroyer of these negativities of life and nature. You are the protector and promoter of the wise artists and scientists. You are the leader and friend of humanity. You are ever patient and forbearing. In the great battles of unity and fulfilment, you eliminate want and drought for the sake of the young generation, bright and brave wielders of the force of the thunderbolt of plenty and righteousness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Conveyor of prosperity) as thou art best of all beings, art assailer and humiliator of thy foes, art great, art the friend and benefactor of men, therefore thou aidest the illustrious educated young person possessing the power of body and soul and bearing strong arms by giving him more and more of the physical and spiritual strength, in the deadly and the close-fought fight. Thou destroyest thy enemies and protectest the rightesous persons, therefore thou art worthy of respect and honour.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ऋभुक्षाः) महान ऋभुक्षा इति महन्नाम (निघ० ३.३) = Great. (आणौ संग्रामे)(कुत्साय ) कुत्स: प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो वा यस्य तस्मै धृतवज्राय । = Bearer of strong arms. (धूमते) धौः-प्रशस्तो विद्याप्रकाशो विद्यते यास्मिन् तस्मिन्। = Possessing the light of knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is not possible to defeat enemies and administer a State properly without the aid of the President of the Assembly and the Commander of the Army. Therefore these things should be done by the people under their guidance and with their help.

    Translator's Notes

    कुत्स इति वज्रनाम (निघ० २.२० ) प्राणिरित संग्रामनाम (निघ०२.१७ ) It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Kutsa and Shushma as proper nouns instead of Yougic words as explained by Rishi Dayananda on the basis of the Vedic Lexicon-Nighantu quoted above.

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    Subject of the mantra

    Then, how should that Chairman of the Assembly be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)= the one who provides ultimate opulence, (yataḥ) =because, (tvam)=you are predetermined, (satyaḥ)= having a virtuous life, (asi) =are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (dhṛṣṇuḥ) =firm, (asi)=are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (ṛbhukṣāḥ) =great, (asi) =are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (naryyaḥ)=virtuous among humans or benefactor of humans, (asi) =are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (ṣāṭ)=tolerant, (asi) =are, (tasmād) =therefore, (vṛjane)= those who leave their enemies, (pṛkṣe)= are going to mix and, (āṇau) =in the war, (sacā) =in the company of polite people, (kutsāya)= are the bearer of a group of weapons containing eminent thunderbolt, (dyumate)=Illuminated by vast knowledge, (yūne)= for the one who has attained full strength in body and soul, (śuṣṇam)= strong, (śarīram) =body and, (ātmabalam) =to self-confidence, (dadāsi) =provide and, (śatrūn) =to enemies, (ahan) =kill, (etān) =friends and enemies, (dhārmikān) =of righteous people, (pālayasi) =protect,, (tasmāt) =therefore, (pūjyaḥ) =you revered, (asi) =are.

    English Translation (K.K.V.)

    O the one who provides ultimate opulence! Because you are the embodiment of virtuous life as determined earlier, because you are strong, because you are great, Because, you are virtuous among humans or beneficial to humans, because you are tolerant, therefore, He is the one who leaves the enemies, unites them and in the company of skilled people in battle, He is the one who possesses a set of weapons equipped with powerful thunderbolts. Enlightened with vast knowledge, who has attained full strength in body and soul and kills the enemies. You protect righteous people from friend and foe, that is why you are revered.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the Assembly and the President of the Assembly etc., the defeat of the enemies and the proper maintenance of the state cannot be achieved properly, therefore, all these works should be done by people with good qualities and both these works should be done by all human beings.

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    Subject of the mantra

    Then, how should that Chairman of the Assembly be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)= the one who provides ultimate opulence, (yataḥ) =because, (tvam)=you are predetermined, (satyaḥ)= having a virtuous life, (asi) =are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (dhṛṣṇuḥ) =firm, (asi)=are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (ṛbhukṣāḥ) =great, (asi) =are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (naryyaḥ)=virtuous among humans or benefactor of humans, (asi) =are, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (ṣāṭ)=tolerant, (asi) =are, (tasmād) =therefore, (vṛjane)= those who leave their enemies, (pṛkṣe)= are going to mix and, (āṇau) =in the war, (sacā) =in the company of polite people, (kutsāya)= are the bearer of a group of weapons containing eminent thunderbolt, (dyumate)=Illuminated by vast knowledge, (yūne)= for the one who has attained full strength in body and soul, (śuṣṇam)= strong, (śarīram) =body and, (ātmabalam) =to self-confidence, (dadāsi) =provide and, (śatrūn) =to enemies, (ahan) =kill, (etān) =friends and enemies, (dhārmikān) =of righteous people, (pālayasi) =protect,, (tasmāt) =therefore, (pūjyaḥ) =you revered, (asi) =are.

    English Translation (K.K.V.)

    O the one who provides ultimate opulence! Because you are the embodiment of virtuous life as determined earlier, because you are strong, because you are great, Because, you are virtuous among humans or beneficial to humans, because you are tolerant, therefore, He is the one who leaves the enemies, unites them and in the company of skilled people in battle, He is the one who possesses a set of weapons equipped with powerful thunderbolts. Enlightened with vast knowledge, who has attained full strength in body and soul and kills the enemies. You protect righteous people from friends and foes, that is why you are reverend.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the Assembly and the President of the Assembly etc., the defeat of the enemies and the proper maintenance of the state cannot be achieved properly, therefore, all these works should be done by people with good qualities and both these works should be done by all human beings.

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