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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - निषादः

    त्वं ह॒ त्यदि॒न्द्रारि॑षण्यन्दृ॒ळ्हस्य॑ चि॒न्मर्ता॑ना॒मजु॑ष्टौ। व्य१॒॑स्मदा काष्ठा॒ अर्व॑ते वर्घ॒नेव॑ वज्रिञ्छ्नथिह्य॒मित्रा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । अरि॑षण्यन् । दृ॒ळ्हस्य॑ । चि॒त् । मर्ता॑नाम् । अजु॑ष्टौ । वि । अ॒स्मत् । आ । काष्ठाः॑ । अर्व॑ते । वः॒ । घ॒नाऽइ॑व । व॒ज्रि॒न् । श्न॒थि॒हि॒ । अ॒मित्रा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यदिन्द्रारिषण्यन्दृळ्हस्य चिन्मर्तानामजुष्टौ। व्य१स्मदा काष्ठा अर्वते वर्घनेव वज्रिञ्छ्नथिह्यमित्रान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। ह। त्यत्। इन्द्र। अरिषण्यन्। दृळ्हस्य। चित्। मर्तानाम्। अजुष्टौ। वि। अस्मत्। आ। काष्ठाः। अर्वते। वः। घनाऽइव। वज्रिन्। श्नथिहि। अमित्रान् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अरिषण्यन् वज्रिन्निन्द्र ! त्वं ह प्रसिद्धमस्मदर्वते व्यावः। त्यत्तस्य दृढस्य राज्यस्य मर्त्तानां चिदप्यजुष्टौ घनेवामित्रान् काष्ठाः श्नथिहि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) उक्तार्थः (ह) प्रसिद्धम् (त्यत्) तस्य (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष ! (अरिषण्यन्) आत्मनो रिषं हिंसनमनिच्छन्। अत्र दुरस्युर्द्रविणस्यु०। (अष्टा०७.४.३६) अनेनेत्वनिषेधः। (दृढस्य) स्थिरस्य (चित्) अपि (मर्त्तानाम्) मनुष्याणाम् (अजुष्टौ) अप्रतीतावसेवने (वि) (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (आ) अभितः (काष्ठाः) दिशः प्रति (अर्वते) अश्वादियुक्ताय सैन्याय (वः) वृणोषि (घनेव) यथा घनेन तथा (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (श्नथिहि) हिन्धि (अमित्रान्) धर्मविरोधिनो मनुष्यान् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। सभाद्यध्यक्षाभ्यां राज्यसेनयोः प्रीतिमुत्पाद्य शत्रुषु द्वेषश्चेति यथा सूर्यो मेघान् छिनत्ति तथैव दुष्टाः सदा छेत्तव्याः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह उक्त सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अरिषण्यन्) अपने शरीर से हिंसा अधर्म्म की इच्छा नहीं करनेवाले (वज्रिन्) उत्तम आयुधों से युक्त (इन्द्र) सभापते ! (त्वम्) आप (ह) प्रसिद्ध (अस्मत्) हम लोगों से (अर्वते) घोड़े आदि धनों से युक्त सेना के लिये (व्यावः) अनेक प्रकार स्वीकार करते हो (त्यत्) उस (दृढस्य) स्थिर राज्य (चित्) और (मर्त्तानाम्) प्रजा के मनुष्यों को शत्रुओं की (अजुष्टौ) अप्रीति होने में (घनेव) जैसे सूर्य मेघों को काटता (अमित्रान्) धर्म्मविरोधी शत्रुओं को (काष्ठाः) दिशाओं के प्रति (श्नथिहि) मारो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सभा सभापति आदि को उचित है कि राज्य तथा सेना में प्रीति उत्पन्न और शत्रुओं में द्वेष करके जैसे सूर्य मेघों का नित्य छेदन करता है, वैसे दुष्ट शत्रुओं का सदैव छेदन किया करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    सर्वतोमुखी उन्नति

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (त्यत्) = हमारे उस ज्ञान, धन व यश को (अरिषण्यन्) = [हिंसितुमनिच्छन्] नष्ट न होने देने के लिए चाहते हुए (दुळ्हस्य चित्) = अत्यन्त प्रबल भी कामादि रूप शत्रु को (अस्मत्) = हमसे (वि) = पृथक् करते हो । काम के नाश से ही तो वस्तुतः हमारा ज्ञान, धन व यश सुरक्षित होता है । २. (मर्तानाम्) = मनुष्यों की (अजुष्टौ) = अप्रीति के होने पर (अमित्रान्) = समाज के साथ स्नेह न रखनेवाले, समाजद्वेषी, स्वार्थियों को हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! आप (घना इव) = वज्र से दृढ़ पर्वत को तोड़ने की भांति (श्नथिहि) = हिंसित करते हो । राजा को निमित्त बनाकर इन समाजद्वेषियों को आप ही उचित दण्ड देते हो । ३. इस प्रकार हमारे वैयक्तिक व सामाजिक विघ्नों को दूर करके आप (अर्वते) = हमारी इन्द्रियों के लिए (काष्ठाः) = दिशाओं को (विवः) = खोल देते हो, अर्थात् हम अपनी इन्द्रियों से उचित कार्यों को करते हुए सब दिशाओं में आगे बढ़ पाते हैं । इस सर्वतोमुखी उन्नति में कामादिरूप शत्रु व स्वार्थप्रधान व्यक्ति ही तो विघ्न हुआ करते हैं । उन्हें हे प्रभो ! आप दूर करते हैं और हमें उन्नति के योग्य बनाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे ज्ञान, धन व यश को नष्ट न होने देना चाहते हुए हमारे कामादि शत्रुओं को तथा समाज - द्वेषियों को नष्ट करते हैं और इस प्रकार हमारी सर्वाङ्गीण उन्नति के लिए मार्ग को प्रशस्त कर देते हैं ।

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    विषय

    हतौड़े से लोहे के समान शत्रु के बल को तोड़ने का आदेश ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! राजन् ! सभाध्यक्ष ! ( त्वम् ) तू ( त्यत् ) उस (दृढ़स्य) दृढ, प्रबल शत्रु (अरिषण्यन्) स्वयं न मारना चाहता हुआ भी ( चित् ) केवल ( मर्त्तानाम् अजुष्टौ ) प्रजा पुरुषों के अप्रीतिकारक होने से (काष्टाः) दिशाओं के विजय के लिये ( अस्मद् अर्वते ) हमारे घोड़ों के लिये (वि वः) मार्ग खोल, उनको विजय करने की आज्ञा दे । हे (वज्रिन्) वीर्यवन् बलशालिन् (घनाइव) जिस प्रकार हतौड़ों से दृढ़ लोह को भी कूट डाला जाता है उसी प्रकार ( घना ) शत्रुओं को हनन करने वाले नाना राजनैतिक साधनों से ( अमित्रान् ) शत्रुओं का ( श्र्नथिहि ) नाश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह उक्त सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अरिषण्यन् वज्रिन् इन्द्र ! त्वं ह प्रसिद्धम् अस्मत् अर्वते व्यावः त्यत् तस्य दृढस्य राज्यस्य मर्त्तानां चित् अपि अजुष्टौ घनेव अमित्रान् काष्ठाः श्नथिहि ॥५॥

    पदार्थ

    हे (अरिषण्यन्) आत्मनो रिषं हिंसनमनिच्छन्=अपने द्वारा हिंसा करने की इच्छा न करते हुए, (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ= प्रशस्त वज्र के समूहोंवाले, (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष=सभा आदि के अध्यक्ष ! (त्वम्) उक्तार्थः= उपरोक्त कहे हुए अर्थ में, (ह) प्रसिद्धम्=प्रसिद्ध, (अस्मत्) अस्माकं सकाशात्=हमारे समीप की, (अर्वते) अश्वादियुक्ताय सैन्याय=अश्व आदि से युक्त सेना के लिये, (वि) =विशेष रूप से, (आ) अभितः=हर ओर से, (वः) वृणोषि=उपभोग करते हो, (त्यत्) तस्य=उस, (दृढस्य) स्थिरस्य=स्थिर, (राज्यस्य)= राज्य के, (मर्त्तानाम्) मनुष्याणाम् =मनुष्यों के, (चित्) अपि=भी, (अजुष्टौ) अप्रतीतावसेवने=नष्ट करने के लिये प्रतीत न होनेवाले हो, (घनेव) यथा घनेन तथा= जो घोर जैसे हैं, ऐसे (अमित्रान्) धर्मविरोधिनो मनुष्यान्=धर्म के विरोधी मनुष्यों की, (काष्ठाः) दिशः प्रति=दिशाओं की ओर, (श्नथिहि) हिन्धि=हिंसा कर दो ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सभा आदि के अध्यक्ष के द्वारा राज्य की सेना में प्रीति उत्पन्न करके शत्रुओं से द्वेष करना चाहिए, जैसे सूर्य बादलों का नित्य छेदन करता है, वैसे दुष्टों का सदैव छेदन करना चाहिए ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अरिषण्यन्) अपने द्वारा हिंसा करने की इच्छा न करते हुए, (वज्रिन्) प्रशस्त वज्र के समूहोंवाले (इन्द्र) सभा आदि के अध्यक्ष ! (त्वम्) उपरोक्त कहे हुए कार्य के लिये (ह) प्रसिद्ध (अस्मत्) हमारे समीप की (अर्वते) अश्व आदि से युक्त सेना के लिये (वि) विशेष रूप से, (आ) हर ओर से (वः) उपभोग करते हो। (त्यत्) उस (दृढस्य) स्थिर (राज्यस्य) राज्य के (मर्त्तानाम्) मनुष्यों के (चित्) भी (अजुष्टौ) नष्ट करने के लिये प्रतीत न होनेवाले हो, (घनेव) जो घोर जैसे हैं, ऐसे (अमित्रान्) धर्म के विरोधी मनुष्यों की (काष्ठाः) दिशाओं की ओर (श्नथिहि) हिंसा कर दो ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) उक्तार्थः (ह) प्रसिद्धम् (त्यत्) तस्य (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष ! (अरिषण्यन्) आत्मनो रिषं हिंसनमनिच्छन्। अत्र दुरस्युर्द्रविणस्यु०। (अष्टा०७.४.३६) अनेनेत्वनिषेधः। (दृढस्य) स्थिरस्य (चित्) अपि (मर्त्तानाम्) मनुष्याणाम् (अजुष्टौ) अप्रतीतावसेवने (वि) (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (आ) अभितः (काष्ठाः) दिशः प्रति (अर्वते) अश्वादियुक्ताय सैन्याय (वः) वृणोषि (घनेव) यथा घनेन तथा (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (श्नथिहि) हिन्धि (अमित्रान्) धर्मविरोधिनो मनुष्यान् ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे अरिषण्यन् वज्रिन्निन्द्र ! त्वं ह प्रसिद्धमस्मदर्वते व्यावः। त्यत्तस्य दृढस्य राज्यस्य मर्त्तानां चिदप्यजुष्टौ घनेवामित्रान् काष्ठाः श्नथिहि ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। सभाद्यध्यक्षाभ्यां राज्यसेनयोः प्रीतिमुत्पाद्य शत्रुषु द्वेषश्चेति यथा सूर्यो मेघान् छिनत्ति तथैव दुष्टाः सदा छेत्तव्याः ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. सभा, सभापती इत्यादींनी राज्य व सेना यांच्यात प्रेम उत्पन्न करून शत्रूंचा द्वेष करून जसा सूर्य मेघांचे नित्य छेदन करतो तसे दुष्ट शत्रूंचे सदैव छेदन करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of the thunderbolt, you surely are he who is unwilling to injure the strong and firm among humanity and the strong and stable system of the order. Fall like a hammer upon the disagreeables of humanity, fix them, and scatter the unfriendly as the sun scatters the clouds, and open the paths of advancement for progress in all directions.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Do thou Oh Indra (President of the Assembly or the Commander of an army) who art un-willing to hurt any righteous person and wielder of the thunderbolt or strong weapons, protect our army consisting of the horses and elephants etc. When we are exposed to the aversion of our enemies, thou demolishest all un-righteous persons in all directions as with a club.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (काष्ठा:) दिशः = Directions. (काष्टाइति दिङ्नाम निघ० १.६) (अर्वते) अश्वादियुक्ताय सैन्याय = For the army consisting of the horses, elephants etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. It is the duty of the President of the Assembly and the Chief Commander of the Army to create love among the people of the State and the army along with aversion towards unrighteous foes and then to demolish all wicked persons as the sun demolishes all clouds.

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    Subject of the mantra

    Then, how is that said Chairman of the Assembly, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (ariṣaṇyan) =without wishing to commit violence on own, (vajrin)=having groups of excellent thunderbolts, (indra)=President of the Assembly etc. (tvam)= for the work mentioned above, (ha) =famous, (asmat) =near us,(arvate)= for the army with horses etc. (vi) =specially, (ā) =from all sides, (vaḥ) =enjoying, (tyat) =that, (dṛḍhasya) =firm, (rājyasya) =of the state, (marttānām) =of humans, (cit) =also, (ajuṣṭau)=You don't seem to be able to destroy, (ghaneva) =who are as strong as, (amitrān) =of people against righteousness, (kāṣṭhāḥ) =towards, (śnathihi)= do violence.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the Assembly etc. having groups of excellent thunderbolts, without desiring to commit violence on your own! Famous for the work mentioned above, you enjoy it from all sides, especially for the army with horses etc. near you. You are not going to destroy even the people of that stable kingdom, do violence towards the people who are strongly against such righteousness.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. By creating affection among the army of the state through the President of the assembly etc., one should create hatred towards the enemies, just as the Sun pierces the clouds daily, similarly the wicked should always be pierced.

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