ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 7
ऋषिः - नोधा गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगार्षीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र स॒प्त युध्य॒न्पुरो॑ वज्रिन्पुरु॒कुत्सा॑य दर्दः। ब॒र्हिर्न यत्सु॒दासे॒ वृथा॒ वर्गं॒हो रा॑ज॒न्वरि॑वः पू॒रवे॑ कः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । स॒प्त । युध्य॑न् । पुरः॑ । व॒ज्रि॒न् । पु॒रु॒ऽकुत्सा॑य । द॒र्द॒रिति॑ दर्दः । ब॒र्हिः । न । यत् । सु॒ऽदासे॑ । वृथा॑ । वर्क् । अं॒होः । रा॒ज॒न् । वरि॑वः । पू॒रवे॑ । कः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह त्यदिन्द्र सप्त युध्यन्पुरो वज्रिन्पुरुकुत्साय दर्दः। बर्हिर्न यत्सुदासे वृथा वर्गंहो राजन्वरिवः पूरवे कः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। ह। त्यत्। इन्द्र। सप्त। युध्यन्। पुरः। वज्रिन्। पुरुऽकुत्साय। दर्दरिति दर्दः। बर्हिः। न। यत्। सुऽदासे। वृथा। वर्क्। अंहोः। राजन्। वरिवः। पूरवे। कः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे वज्रिन्निन्द्र राजन् सभाधिपते ! ये तव सभादयः सप्त सन्ति तैः सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः सह युध्यन् यतस्त्वं ह खलु तेषां पुरो दर्दो विदारयसि यतस्त्वमंहो राज्यस्य पुरुकुत्साय पूरवे यद्वरिवः सुदासे बर्हिर्न को यद्वृथा मनुष्या वर्त्तन्ते त्यत्तान् वर्क् वर्जयसि तस्मात्त्वं सर्वैरस्माभिस्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ७ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (ह) किल (त्यत्) तस्मै (इन्द्र) विजयप्रद सभाद्यध्यक्ष (सप्त) सभासभासद्सभापतिसेनासेनापतिभृत्यप्रजाः (युध्यन्) युद्धं कुर्वन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् अडभावश्च। (पुरः) शत्रुनगराणि (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ (पुरुकुत्साय) बहुभिरवक्षिप्ताय (दर्दः) पुनर्विदारय। अयं यङ्लुङ्न्तः प्रयोगोऽडभावश्च। (बर्हिः) शुद्धमन्तरिक्षम्। (न) इव (यत्) (सुदासे) शोभना दासा दानकर्त्तारो यस्मिन् देशे तस्मिन् (वृथा) व्यर्थे (वर्क्) वर्जयसि। अत्र मन्त्रे घसहर० इति च्लेर्लुक्। (अंहोः) प्राप्तस्य प्राप्तव्यस्य वा राज्यस्य (राजन्) प्रकाशक (वरिवः) परिचरणम् (पूरवे) प्रपूर्णाय सुखाय (कः) करोषि। अत्र मन्त्रे घस० इति च्लेर्लुक् ॥ ७ ॥
भावार्थः
यथा सूर्यो जगद्धिताय मेघं छित्त्वा निपातयति तथैव सर्वाधीशः सभापतिः सर्वेभ्यः प्राणिभ्यो हितं सम्पादयेत् ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर अगले मन्त्र में सभापति आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्रों से युक्त (राजन्) प्रकाश करने तथा (इन्द्र) विजय के देनेवाले सभा के अधिपति ! जो आपके (सप्त) सभा, सभासद्, सेना, सेनापति, भृत्य, प्रजा ये सात हैं, उन्हीं के साथ प्रेम से वर्त्तमान होके शत्रुओं के साथ (युध्यन्) युद्ध करते हुए जिस कारण तुम उन शत्रुओं के (पुरः) नगरों को (दर्दः) विदारण करते हो। जो आप (अंहोः) प्राप्त होने योग्य राज्य के (पुरुकुत्साय) बहुत मनुष्यों को ग्रहण करने योग्य (पूरवे) पूर्ण सुख के लिये (यत्) जो (वरिवः) सेवन करने योग्य पदार्थों को (सुदासे) उत्तम दान करनेवाले मनुष्यों से युक्त देश में (बर्हिः) अन्तरिक्ष के (न) समान (कः) करते हो (यत्) जो (वृथा) व्यर्थ काम करनेवाले मनुष्य हों (त्यत्) उनको (वर्क्) वर्जित करते हो, इस कारण हम सब लोगों को सत्कार करने योग्य हो ॥ ७ ॥
भावार्थ
जैसे सूर्य्य सब जगत् के हित के लिये मेघ को वर्षाता है, वैसे ही सबका स्वामी सभापति सभों का हित सिद्ध करे ॥ ७ ॥
विषय
‘पुरुकुत्स, सुदास् व पुरु’
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = बल के सब कार्यों को करनेवाले प्रभो ! (वज्रिन्) = हे वज्रहस्त प्रभो ! (त्वं ह) = आप ही (युध्यन्) = युद्ध करते हुए (त्यत् सप्त पुरः) = उन असुरों की सात नगरियों को (पुरुकुत्साय ) = पुरुकुत्स के लिए (दर्दः) = विदीर्ण करते हो । "कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्" - इस मन्त्रभाग में दो कान, दो नासिका - छिद्र, दो आँखें व मुख मिलकर सात ऋषियों का वर्णन हुआ है । ये सातों जिस समय असुरों को आक्रमण से वैषयिक वृत्ति के होकर पतन की ओर जाते हैं तो असुरों के सात पुर बन जाते हैं । जो भी व्यक्ति पुरुकुत्स बनता है, अपना पालन व पूरण करता है और बुराइयों का हिंसन करता है, उसके लिए प्रभु इन असुरों से युद्ध करते हुए इन असुर - पुरियों का विदारण करते हैं । २. हे प्रभो ! आप (सुदासे) = सुदास के लिए उत्तमता से बुराइयों का अपक्षय करनेवाले के लिए (बर्हिः न) = घास की भाँति (वृथा) = अनायास ही (यत् अंहः) = जो पाप है उसको (वर्क्) = नष्ट कर देते हो [अवृणक्] । हम सुदास बनें, प्रभु हमारे लिए पापों को नष्ट करनेवाले होंगे । ३. हे (राजन्) = संसार के सम्पूर्ण ऐश्वर्य के स्वामी प्रभो ! आप (पूरवे) = औरों का पालन व पूरण करनेवाले के लिए, सारे का सारा स्ययं न खा जानेवाले के लिए (वरिवः) = धन को (कः) = करते हैं । जो पूर बनता है, उसे ही प्रभु धन का पात्र समझते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु पुरुकुत्स के लिए कान, नाक, आँखें व मुख आदि को पवित्र बनाये रखते हैं । सुदास के लिए वासनाओं को विनष्ट करते हैं । पुरु के लिए धन प्राप्त कराते हैं ।
विषय
सप्ताङ्ग राष्ट्र-बल से सप्ताङ्ग शत्रुबल का भेदन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सेनापते ! हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्र समूह के स्वामिन् ! हे ( राजन् ) तेजस्विन् राजन् ! ( त्वं ह ) तू निश्चय से ( युद्धयन् ) युद्ध करता हुआ ( पुरुकुत्साय ) बहुतसे शस्त्रास्त्रों के स्वामी, या बहुतसे शत्रुओं को उखाड़ देने वाले वीर राजा के लिए, अथवा ( पुरुकुत्साय ) बहुतसे शत्रुओं के आक्रमणों से पीड़ित और (सुदासे) उत्तम २ ऐश्वर्यों के देने वाले, ( अंहः ) विजय करने और प्राप्त करने योग्य राष्ट्र के ( पूरवे ) समस्त प्रजाजन को पालन करने वाले जनपदवासी राज प्रजावर्ग की रक्षा के लिए (सप्त) सभा, सभासद, सभापति, सेना, सेनापति, भृत्य और प्रजागण इन सातों, अथवा सहायकगण, साधन और साम, दान, भेद और दण्ड और देश विभाग और काल विभाग इन सातों के द्वारा अथवा स्वामी, अमात्य, सुहृत्, कोष, राष्ट्र और दुर्ग और सेनाबल इन सातों के द्वारा शत्रु के इन सातों को और उसके ( पुरः ) नगरियों, गढ़ों और क़िलों को ( दर्दः ) तोड़ फोड़ डाल ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर इस मन्त्र में सभापति आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे वज्रिन् इन्द्र राजन् सभाधिपते ! ये तव सभादयः सप्त सन्ति तैः सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः सह युध्यन् यतः त्वं ह खलु तेषां पुरः दर्दः विदारयसि यतः त्वं अंहो राज्यस्य पुरुकुत्साय पूरवे यत् वरिवः सुदासे बर्हिः न कः यत् वृथा मनुष्या वर्त्तन्ते त्यत् तान् वर्क् वर्जयसि तस्मात् त्वं सर्वैः अस्माभिः सत्कर्त्तव्यः असि ॥७॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ= प्रशस्त वज्रों के शस्त्रों के समूहवाले, (इन्द्र) विजयप्रद सभाद्यध्यक्ष=विजय प्रदान करनेवाले सभा आदि के अध्यक्ष, (राजन्) प्रकाशक= प्रकाशक, (सभाधिपते)=सभा के स्वामी ! (ये)=जो, (तव)=तुम्हारी, (सभादयः)= सभा आदि, (सप्त) सभासभासद्सभापतिसेनासेनापतिभृत्यप्रजाः= सभा, सभासद्, सभापति, सेना,सेनापति, सेवक और सन्तान ये सात, (सन्ति)=हैं, (तैः)=उनके, (सह)=साथ, (वर्त्तमानाः)= वर्त्तमान, (शत्रुभिः)= शत्रुओं के, (सह)=साथ, (युध्यन्) युद्धं कुर्वन्ति= युद्ध करते हुए, (यतः)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (ह) किल=निश्चित रूप से, (तेषाम्)=उन, (पुरः) शत्रुनगराणि= शत्रुओं के नगरों को, (दर्दः) पुनर्विदारय=फिर से टुकड़े-टुकड़े कर दो, (यतः)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (अंहोः) प्राप्तस्य प्राप्तव्यस्य वा राज्यस्य=प्राप्त हुए और प्राप्त किये जाने योग्य अथवा राज्य के, (पुरुकुत्साय) बहुभिरवक्षिप्ताय=बहुत से लोगों द्वारा जिस पर कोई आरोप नहीं लगाया गया है, ऐसे, (पूरवे) प्रपूर्णाय सुखाय= तृप्त करने वाले सुख के लिये, (यत्)=जो, (वरिवः) परिचरणम्=सेवा, (सुदासे) शोभना दासा दानकर्त्तारो यस्मिन् देशे तस्मिन्=जिस देश में उत्तम दास और दान दाता हैं, उसमें, (बर्हिः) शुद्धमन्तरिक्षम्= शुद्ध अन्तरिक्ष के, (न) इव=समान, (कः) करोषि=[कौन से कार्य] करते हो, (यत्)=जो, (वृथा) व्यर्थे= व्यर्थ में, (मनुष्या)= मनुष्य, (वर्त्तन्ते)=होते हैं, (त्यत्) तस्मै=उसके लिये, (तान्)=उनको, (वर्क्) वर्जयसि= त्याग देते हो, (तस्मात्)=इसलिये, (त्वम्)=तुम, (सर्वैः)=सब, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (सत्कर्त्तव्यः)= किये जाने योग्य, (असि)=हो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे सूर्य सब जगत् के हित के लिये मेघ को छिन्न-भिन्न करके वर्षा करके गिरा देता है, वैसे ही सबका स्वामी सभापति सभी प्राणियों के हित को सिद्ध करे ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (वज्रिन्) प्रशस्त वज्रों के शस्त्रों के समूहवाले, (इन्द्र) विजय प्रदान करनेवाले सभा आदि के अध्यक्ष, (राजन्) प्रकाशक और (सभाधिपते) सभा के स्वामी ! (ये) जो (तव) तुम्हारी (सभादयः) सभा आदि (सप्त) सभा, सभासद्, सभापति, सेना,सेनापति, सेवक और सन्तान ये सात (सन्ति) हैं। (तैः) उनके (सह) साथ (वर्त्तमानाः) वर्त्तमान (शत्रुभिः) शत्रुओं (सह) से (युध्यन्) युद्ध करते हुए, (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (ह) निश्चित रूप से, (तेषाम्) उन (पुरः) शत्रुओं के नगरों को (दर्दः) फिर से टुकड़े-टुकड़े कर दो। (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (अंहोः) प्राप्त हुए और प्राप्त किये जाने योग्य अथवा राज्य के (पुरुकुत्साय) बहुत से लोगों द्वारा जिस पर कोई आरोप नहीं लगाया गया है, ऐसे (पूरवे) तृप्त करने वाले सुख के लिये, (यत्) जो (वरिवः) सेवा करता है, (सुदासे) जिस देश में उत्तम दास और दान दाता हैं, उसमें (बर्हिः) शुद्ध अन्तरिक्ष के (न) समान, (कः) [कौन से कार्य] करते हो। (यत्) जो (मनुष्या) मनुष्य (वृथा) व्यर्थ में (वर्त्तन्ते) होते हैं, (त्यत्) उसके लिये (तान्) उनको (वर्क्) त्याग देते हो, (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तुम (सर्वैः) सब (अस्माभिः) हमारे द्वारा (सत्कर्त्तव्यः) आदर किये जाने योग्य (असि) हो ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) (ह) किल (त्यत्) तस्मै (इन्द्र) विजयप्रद सभाद्यध्यक्ष (सप्त) सभासभासद्सभापतिसेनासेनापतिभृत्यप्रजाः (युध्यन्) युद्धं कुर्वन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् अडभावश्च। (पुरः) शत्रुनगराणि (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ (पुरुकुत्साय) बहुभिरवक्षिप्ताय (दर्दः) पुनर्विदारय। अयं यङ्लुङ्न्तः प्रयोगोऽडभावश्च। (बर्हिः) शुद्धमन्तरिक्षम्। (न) इव (यत्) (सुदासे) शोभना दासा दानकर्त्तारो यस्मिन् देशे तस्मिन् (वृथा) व्यर्थे (वर्क्) वर्जयसि। अत्र मन्त्रे घसहर० इति च्लेर्लुक्। (अंहोः) प्राप्तस्य प्राप्तव्यस्य वा राज्यस्य (राजन्) प्रकाशक (वरिवः) परिचरणम् (पूरवे) प्रपूर्णाय सुखाय (कः) करोषि। अत्र मन्त्रे घस० इति च्लेर्लुक् ॥७॥ विषयः- अथ सभाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे वज्रिन्निन्द्र राजन् सभाधिपते ! ये तव सभादयः सप्त सन्ति तैः सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः सह युध्यन् यतस्त्वं ह खलु तेषां पुरो दर्दो विदारयसि यतस्त्वमंहो राज्यस्य पुरुकुत्साय पूरवे यद्वरिवः सुदासे बर्हिर्न को यद्वृथा मनुष्या वर्त्तन्ते त्यत्तान् वर्क् वर्जयसि तस्मात्त्वं सर्वैरस्माभिस्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा सूर्यो जगद्धिताय मेघं छित्त्वा निपातयति तथैव सर्वाधीशः सभापतिः सर्वेभ्यः प्राणिभ्यो हितं सम्पादयेत् ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सूर्य सर्व जगाच्या हितासाठी मेघांचा वर्षाव करतो तसेच सर्वांचा स्वामी असलेल्या सभापतीने सर्वांचे हित करावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of the thunderbolt, ruler of the world, fighting seven evils and defending the seven-fold power of the order, you break down the strongholds of sin and crime for the sake of the generous and the many splendoured social order. Uproot the sin and crime like grass and deliver the wealth to the people for the sake of joy and fulfilment and take the order to the heights of the sky. (The sevenfold powers are: the council, councillors, president, army, commander, services and the people.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the attributes of the President of the Assembly are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly, O wielder of powerful weopons ! being present with seven (Assembly, members of the Assembly, the President of the Assembly, army, the Chief Commander of the Army, and servant, subjects) thou over turnest the cities of un-righteous persons, because thou givest the kingdom that is got, to a charitable person, who possesses mighty weapons like the thunderbolt and servest him for the attainment of perfect happiness, leaving off worthless persons; therefore thou art worthy of being respected by us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सुदासे) शोभना दासाः - दानकर्तार: यस्मिन् देशे । = Full of liberal donors. (दासृ दाने) (हो:) प्राप्तस्य प्राप्तव्यस्य वा राज्यस्य । = Of the kingdom got or to be got. (पूरवे) प्रपूर्णाय सुखाय = For full or perfect happiness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun disperses the cloud for the welfare of all beings, in the same manner, the President of the Assembly should bring about the welfare of all.
Subject of the mantra
Then in this mantra the qualities of the Chairman of the Assembly etc. have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vajrin)= the one with excellent group of weapons full of thunderbolts, (indra) =Chairman of the Assembly that bestows victory, (rājan) =illuminator and, (sabhādhipate) =lord of the assembly, (ye) =that, (tava) =your, (sabhādayaḥ) =Assembly etc., (sapta) Assembly, councilor, chairman, army, commander, servants and children, these seven, (santi) =are, (taiḥ) =their, (saha) =with, (varttamānāḥ) =present, (śatrubhiḥ) =enemies, (saha) =against, (yudhyan) =fighting, (yataḥ) =because ,(tvam) =you, (ha) =definitely, (teṣām) =those, (puraḥ) =to the towbs of enemies, (dardaḥ) =break into pieces again, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (aṃhoḥ)=received and capable of being received or of the state, (purukutsāya)= by many people against whom no allegation has been made, such, (pūrave)=for satisfying happiness, (yat) =that, (varivaḥ)=serves, (sudāse)= In a country where there are excellent servants and charitable givers, (barhiḥ)= of pure space, (na) =like, (kaḥ)=do, [kauna se kārya] =which works, (yat) =that, (manuṣyā) =human, (vṛthā) =in vain, (varttante) =are, (tyat) =for that, (tān) =to them, (vark)=you give up, (tasmāt) =therefore, (tvam) =you, (sarvaiḥ) =all, (asmābhiḥ) =by us, (satkarttavyaḥ)=deserve to be respected, (asi) =are.
English Translation (K.K.V.)
O possessor of the excellent array of thunderbolt weapons, the one who bestows victory, the President of the Assembly, the illuminator and the master of the Assembly! Which is your Assembly, the original Assembly consists of councillors, chairman, army, commander, servants and the children, these are the seven. Fighting, against the present enemies, because you will surely break the cities of those enemies into pieces again. Because you have attained and are attainable or have not been accused by many people of the kingdom, for such satisfying happiness, one who serves, pure in the country where there are excellent servants and charity givers. What functions do you perform in it like pure space? You abandon those people who are useless, that is why you all deserve to be respected by us.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as the Sun breaks the clouds and causes rain for the benefit of the entire world, in the same way, may the Lord of all, the Chairman of the Assembly, ensure the welfare of all living beings.
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