ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 10
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडास्तारपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स्वा॒दोरि॒त्था वि॑षू॒वतो॒ मध्वः॑ पिबन्ति गौ॒र्यः॑। या इन्द्रे॑ण स॒याव॑री॒र्वृष्णा॒ मद॑न्ति शो॒भसे॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दोः । इ॒त्था । वि॒षु॒ऽवतः॑ । मध्वः॑ । पि॒ब॒न्ति॒ । गौ॒र्यः॑ । याः । इन्द्रे॑ण । स॒ऽयाव॑रीः । वृष्णा॑ । मद॑न्ति । शो॒भसे॑ । वस्वीः॑ । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादोरित्था विषूवतो मध्वः पिबन्ति गौर्यः। या इन्द्रेण सयावरीर्वृष्णा मदन्ति शोभसे वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादोः। इत्था। विषुऽवतः। मध्वः। पिबन्ति। गौर्यः। याः। इन्द्रेण। सऽयावरीः। वृष्णा। मदन्ति। शोभसे। वस्वीः। अनु। स्वऽराज्यम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशः स्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! वृष्णेन्द्रेण सयावरीर्वस्वीगौर्यः किरणाः स्वराज्यं शोभसेऽनुमदन्ती इत्था स्वादोर्विषुवतो मध्वः पिबन्तीव त्वमपि वर्त्तस्व ॥ १० ॥
पदार्थः
(स्वादोः) स्वादयुक्तस्य (इत्था) अनेन हेतुना (विषुवतः) प्रशस्ता विषुर्व्याप्तिर्यस्य तस्य (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (पिबन्ति) (गौर्यः) शुभ्रा किरणा इव उद्यमयुक्ताः सेनाः (याः) (इन्द्रेण) सूर्य्येण सह वर्त्तमानाः (सयावरीः) याः समानं यान्ति ताः (वृष्णा) बलिष्ठेन (मदन्ति) हर्षन्ति (शोभसे) शोभितुम् (वस्वीः) पृथिव्यादिसंबन्धिनीः (अनु) आनुकूल्ये (स्वराज्यम्) स्वकीयराष्ट्रम् ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि स्वसेनापतिभिर्वीरसेनाभिश्च विना स्वराज्यस्य शोभारक्षणे भवितुं शक्ये इति। यथा सूर्यस्य किरणाः सूर्येण विना स्थातुं वायुना जलाकर्षणं कृत्वा वर्षितुं च नु शक्नुवन्ति तथा सेनापतिना राज्ञा चान्तरेण प्रजाश्चानन्दितुं न शक्नुवन्ति ॥ १० ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
जैसे (वृष्णा) सुख के वर्षाने (इन्द्रेण) सूर्य के साथ (सयावरीः) तुल्य गमन करनेवाली (वस्वीः) पृथिवी आदि से सम्बन्ध करनेवाली (गौर्यः) किरणों से (स्वराज्यम्) अपने प्रकाशरूप राज्य के (शोभसे) शोभा के लिये (अनुमदन्ति) हर्ष का हेतु होती हैं, वे (इत्था) इस प्रकार से (स्वादोः) स्वादयुक्त (विषुवतः) व्याप्तिवाले (मध्वः) आदि गुण को (पिबन्ति) पीती हैं, वैसे तुम भी वर्त्ता करो ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अपनी सेना के पति और वीरपुरुषों की सेना के विना निज राज्य की शोभा तथा रक्षा नहीं हो सकती। जैसे सूर्य की किरण सूर्य के विना स्थित और वायु के विना जल का आकर्षण करके वर्षाने के लिये समर्थ नहीं हो सकती, वैसे सेनाध्यक्ष और राजा के विना प्रजा आनन्द करने को समर्थ नहीं हो सकती ॥ १० ॥
विषय
'स्वादु, विषूवान्, मधु'
पदार्थ
१. (गौर्यः) = गौरवर्णा गौएँ, अर्थात् व्यसनों से अलिप्त शुद्ध इन्द्रियाँ (मध्वः) = मधु का, सोम का (पिबन्ति) = पान करती हैं । आहार से उत्पन्न सोम = वीर्यशक्ति को जब शरीर में ही सुरक्षित रक्खा जाता है तब यही इन्द्रियों का सोमपान है । किस सोम का ? जो (स्वादोः) = जीवन को = माधुर्यवाला बनाता है और (इत्था) = इस शरीर में ही पान करने से (विषूवतः) = [विष् व्याप्तौ] शरीर में व्यापन करनेवाले का । इन्द्रियाँ इस सोम से ही तो शक्तिसम्पन्न बनती हैं । २. ये इन्द्रियाँ वे हैं (याः) = जोकि (वृष्णा) = सब सुखों के वर्षण करनेवाले (इन्द्रेण) = आत्मा के साथ (सयावरीः) = गति व प्राप्तिवाली होती हैं । सोमपान के अभाव में इन्द्रियाँ विषयोन्मुख होती हैं, सोमपान करने पर ये आत्मतत्त्व के दर्शन के लिए प्रवृत्त होती हैं, ये आत्मदर्शन में प्रवृत्त इन्द्रियाँ (मदन्ति) = उल्लास से युक्त होती हैं, (शोभसे) = जीवन की शोभा के लिए होती हैं, (वस्वीः) निवास को उत्तम करनेवाली होती हैं, जीवन को उत्तम बनानेवाली हैं । ऐसा होता तभी है (अनु स्वराज्यम्) = जब मनुष्य आत्मशासन करनेवाला होता है । स्वराज्य - आत्मशासन के अनु - बाद ही ऐसा होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = हम संयमी बनें । तब इन्द्रियों सोम को शरीर में ही पीनेवाली होंगी । इससे जीवन मधुर बनेगा और हम आत्मतत्त्व के दर्शन के लिए प्रवृत्त होंगे ।
विषय
प्रजाओं के कर्तव्य ।
भावार्थ
( गौर्यः ) दीप्तियें, किरणें जिस प्रकार ( वृष्णा ) वृष्टि के कारणस्वरूप ( इन्द्रेण ) सूर्य के साथ २ ( सयावरीः ) रहने वाली ( शोभसे ) उसी की शोभा के लिये ( मदन्ति ) प्रकाशित होती हैं, अर्थात् प्रकाशित होकर उसी की शोभा बढ़ाती हैं और वे ( स्वादोः ) स्वादुयुक्त, मधुर (विषू-वतः ) व्याप्ति से युक्त, सूक्ष्म ऊपर होकर फैल जाने वाले, वाष्पमय ( मधोः ) जल को (पिबन्ति) पान कर लेती हैं ( इत्था ) उसी प्रकार (याः) जो ( गौर्यः ) अपने सेनापति की आज्ञा या वाणी में रहने वाली या भूमियों में आनन्द से रमण करने वाली उत्तम वीर प्रजाएं और सेनायें ( इन्द्रेण ) अपने शत्रुहन्ता सेनापति के ( सयावरीः ) साथ २ रह कर चलती हैं वे ( स्वादोः ) स्वादु, आनन्दप्रद, (विषुवतः) व्यापक ( मध्वः ) मधुर अन्न और ऐश्वर्य का (पिबन्ति) भोग करती हैं और ( स्वराज्यम् अनु ) स्वराज्य प्राप्त करके ( वृष्णा वस्वीः ) वृषभ के साथ गौओं के समान ( वस्वीः ) राष्ट्र में रहने वाली प्रजाएं ( शोभसे ) राष्ट्र की शोभा को बढ़ाने और नायक के तेजोवृद्धि के लिये उसके साथ ही ( मदन्ति ) हर्षित और सुखी होती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सभा आदि का अध्यक्ष कैसा है? इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! वृष्णा{याः}इन्द्रेण सयावरीः वस्वीः गौर्यः किरणाः स्वराज्यं शोभसे अनु मदन्ति इत्था स्वादोः विषुवतः मध्वः पिबन्ति इव त्वम् अपि वर्त्तस्व ॥१०॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः=सभा आदि के अध्यक्ष{गत मन्त्र से इन्द्र का अर्थ} ! (वृष्णा) बलिष्ठेन= सर्वाधिक शक्तिशाली के द्वारा, {याः}=जो, (इन्द्रेण) सूर्य्येण सह वर्त्तमानाः=सूर्य के साथ उपस्थित, (सयावरीः) याः समानं यान्ति ताः= समान रूप से चलनेवाले, (वस्वीः) पृथिव्यादिसंबन्धिनीः= पृथिवी आदि सम्बन्धी लोक, (गौर्यः) शुभ्रा किरणा इव उद्यमयुक्ताः सेनाः=चमकती हुई श्वेत किरणों के समान उद्यमी, (किरणाः)= किरणें, (स्वराज्यम्) स्वकीयराष्ट्रम्=अपने राष्ट्र की, (शोभसे) शोभितुम्=शोभा के लिये, (अनु) आनुकूल्ये=अनुकूलता में, (मदन्ति) हर्षन्ति=प्रसन्न होते हैं, (इत्था) अनेन हेतुना =इस कारण से, (स्वादोः) स्वादयुक्तस्य= स्वादिष्ट का, (विषुवतः) प्रशस्ता विषुर्व्याप्तिर्यस्य तस्य=श्रेष्ठ समान रूप से व्याप्तिवाले, (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तस्य=मधुर आदि गुणवालों को, (पिबन्ति)=पीने के, (इव)=समान, (त्वम्)=तुम. (अपि)=भी, (वर्त्तस्व)=अनुकरण करो ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अपने सेनापति और वीर सेना के विना अपने राज्य की शोभा और रक्षा नहीं कर सकते हैं। जैसे सूर्य की किरणें सूर्य के विना ठहरी हुई वायु के और जल के आकर्षण को करवा करके शीघ्र ही वर्षा करा सकते हैं, वैसे ही सेनापति और राजा की आज्ञा के विना प्रजा आनन्दित नहीं हो सकती है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्रः) सभा आदि के अध्यक्ष! (वृष्णा) सर्वाधिक शक्तिशाली के द्वारा, {याः}जो (इन्द्रेण) सूर्य के साथ उपस्थित, (सयावरीः) समान रूप से चलनेवाले, (वस्वीः) पृथिवी आदि सम्बन्धी लोक, (गौर्यः) चमकती हुई श्वेत किरणों के समान उद्यमी (किरणाः) किरणें (स्वराज्यम्) अपने राष्ट्र की (शोभसे) शोभा के लिये (अनु) अनुकूलता में (मदन्ति) प्रसन्न होती हैं। (इत्था) इस कारण से (स्वादोः) स्वादिष्ट, (विषुवतः) श्रेष्ठ और समान रूप से व्याप्तिवाले (मध्वः) मधुर आदि गुणवाले [पदार्थो को] (पिबन्ति) पीने के (इव) समान (त्वम्) तुम (अपि) भी (वर्त्तस्व) अनुकरण करो ॥१०॥
संस्कृत भाग
स्वा॒दोः । इ॒त्था । वि॒षु॒ऽवतः॑ । मध्वः॑ । पि॒ब॒न्ति॒ । गौ॒र्यः॑ । याः । इन्द्रे॑ण । स॒ऽयाव॑रीः । वृष्णा॑ । मद॑न्ति । शो॒भसे॑ । वस्वीः॑ । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनः स कीदृशः स्यादित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि स्वसेनापतिभिर्वीरसेनाभिश्च विना स्वराज्यस्य शोभारक्षणे भवितुं शक्ये इति। यथा सूर्यस्य किरणाः सूर्येण विना स्थातुं वायुना जलाकर्षणं कृत्वा वर्षितुं च नु शक्नुवन्ति तथा सेनापतिना राज्ञा चान्तरेण प्रजाश्चानन्दितुं न शक्नुवन्ति ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. आपले सेनापती व वीर पुरुषांच्या सेनेशिवाय आपल्या राज्याची शोभा वाढू शकत नाही व रक्षणही होऊ शकत नाही. जशी सूर्याची किरणे सूर्याशिवाय स्थित होऊ शकत नाहीत व वायूशिवाय जलाचे आकर्षण करून वृष्टी करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. तसेच सेनाध्यक्षाशिवाय व राजाशिवाय प्रजा आनंदाने राहण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The golden and brilliant people and forces of the land drink of the delicious, exciting and universal honey sweets of national pride and prestige and joyously celebrate their achievements in the company of generous and valorous Indra for the advancement of the honour and glory of the republic in obedience to the demands and discipline of the freedom and self-government of the nation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should Indra be is taught further in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The white rays moving along with the sun that showers pleasant light all over enabling creatures to live in happiness, do become a cause of rejoicing by the charming light they afford and thus suck up the savoury essences diffused all over in space. So also, subjects acting in agreement with a powerful President of the State and living in peace and contentment, rejoice in the act of rendering their soveriegn kingdom beautiful by their industry and thus enjoy all the good things of the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गौर्य:) शुभ्रा: किरणा इवउद्यमयुक्ता: सेना: = Industrious armies like the white rays of the sun. (इन्द्रेण) सूर्येण सह = With the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is not possible to preserve intact the beauty and protection of the swarajya (self Government) without the commander of the armies and the armed forces. As the rays of the sun cannot stand without the sun and cannot rain down showers without the air by drawing the water, in the same manner, the subjects cannot enjoy happiness and bliss without the king and the commander of the army.
Subject of the mantra
Then, how are President of the Assembly etc.? This topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indraḥ)= President of the Assembly etc., (vṛṣṇā) =Through the Omnipotent one, {yāḥ} =who, (indreṇa)=present with the Sun, (sayāvarīḥ)=moving evenly, (vasvīḥ) =Earth etc. worlds, (gauryaḥ)= laborious like shining white rays, (kiraṇāḥ) =rays, (svarājyam) =of own nation, (śobhase)=for the glory, (anu)= in favouring, (madanti) =are happy, (itthā) =for this reason, (svādoḥ)= tasty, (viṣuvataḥ) superior and equally encompassing, (madhvaḥ)=having sweet qualities, [padārtho ko]= the substances, (pibanti) =of drinking, (iva) =like, (tvam) =you, (api) =also, (varttasva) =follow.
English Translation (K.K.V.)
O President of the Assembly etc.! Through the Omnipotent one, who is present with the Sun, who moves equally, with the earth etc. related worlds to, the laborious like shining white rays, are happy in favouring the glory of their nation. For this reason, you should also follow the example of drinking the substances which are tasty, excellent and having equally all-pervading, sweet et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Without your commander and brave army, you cannot glorify and protect your kingdom. Just as the Sun's rays can attract the stagnant air and water to cause rain, similarly the people cannot be happy without the permission of the commander and the king.
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