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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒ममि॑न्द्र सु॒तं पि॑ब॒ ज्येष्ठ॒मम॑र्त्यं॒ मद॑म्। शु॒क्रस्य॑ त्वा॒भ्य॑क्षर॒न्धारा॑ ऋ॒तस्य॒ साद॑ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । सु॒तम् । पि॒ब॒ । ज्येष्ठ॑म् । अम॑र्त्यम् । मद॑म् । शु॒क्रस्य॑ । त्वा॒ । अ॒भि । अ॒क्ष॒र॒न् । धाराः॑ । ऋ॒तस्य॑ । साद॑ने ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम्। शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन्धारा ऋतस्य सादने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। इन्द्र। सुतम्। पिब। ज्येष्ठम्। अमर्त्यम्। मदम्। शुक्रस्य। त्वा। अभि। अक्षरन्। धाराः। ऋतस्य। सादने ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किमादिशेदित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यं त्वा या धारा ऋतस्य शुक्रस्य सादनेऽभ्यक्षरंस्ताः प्राप्येमं सुतं सोमं पिब तेन ज्येष्ठममर्त्यं मदं प्राप्य शत्रून् विजयस्व ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (इमम्) प्रत्यक्षम् (इन्द्र) शत्रूणां विदारयितः (सुतम्) निष्पादितम् (पिब) (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्तम् (अमर्त्यम्) दिव्यम् (मदम्) हर्षम् (शुक्रस्य) पराक्रमस्य। (त्वा) त्वाम् (अभि) आभिमुख्ये (अक्षरन्) चालयन्ति (धाराः) वाचः। धारेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (ऋतस्य) सत्यस्य (सदने) स्थाने ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    कश्चिदपि विद्यासुभोजनैर्विना वीर्यं प्राप्तुं न शक्नोति, तेन विना सत्यस्य विज्ञानं विजयश्च न जायते ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह क्या आज्ञा करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं को विदारण करनेहारे ! जिस (त्वा) तुझे जो (धाराः) वाणी (ऋतस्य) सत्य (शुक्रस्य) पराक्रम के (सदने) स्थान में (अभ्यक्षरन्) प्राप्त करती हैं, उनको प्राप्त होके (इमम्) इस (सुतम्) अच्छे प्रकार से सिद्ध किये उत्तम ओषधियों के रस को (पिब) पी, उससे (ज्येष्ठम्) प्रशंसित (अमर्त्यम्) साधारण मनुष्य को अप्राप्त दिव्यस्वरूप (मदम्) आनन्द को प्राप्त होके शत्रुओं को जीत ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    कोई भी मनुष्य विद्या और अच्छे पान-भोजन के विना पराक्रम को प्राप्त होने को समर्थ नहीं और इसके विना सत्य का विज्ञान और विजय नहीं हो सकता ॥ ४ ॥

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    विषय

    ऋत के सदन में

    पदार्थ

    १. (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (इमम्) = इस (सुतम्) = शरीर में उत्पन्न हुए = हुए सोम को (पिब) = पी । इस सोम को तू शरीर में ही व्याप्त करनेवाला बन । यह (ज्येष्ठम्) = तुझे अत्यन्त प्रवृद्ध शक्तिवाला बनाएगा, (अमर्त्यम्) = यह तुझे रोगों से आक्रान्त होकर मरने नहीं देगा । (मदम् )= तेरे जीवन में एक विशिष्ट उल्लास का कारण बनेगा । (शुक्रस्य) = [शुच् दीप्तौ] जीवन को पवित्र व दीप्त बनानेवाले इस वीर्य की (धाराः) = धारण - शक्तियाँ (त्वा) = तुझे (ऋतस्य सदने) = ऋत के सदन में (अभ्यक्षरन्) = सर्वतः प्राप्त होती हैं । इस सोम के रक्षण से यह शरीर ऋत का सदन बन जाता है, यहाँ कुछ भी अनृत नहीं रहता । स्थूल शरीर में रोग अनृत हैं, मन में असत्य व द्वेष अनृत हैं, बुद्धि में कुण्ठा व अज्ञान = अन्धकार अनृत हैं । शुक्ररक्षण से यह सब अन्त नष्ट हो जाता है और यह शरीर ऋत का सदन बन जाता है । हमारे शरीर की शक्तियाँ बढ़ जाती हैं, रोग हमें मार नहीं देते और हमारे मन में उल्लास बना रहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम शुक्र का रक्षण करनेवाले हों । रक्षित होकर यह सोम हमारे शरीर में से अनृत को नष्ट कर इसे ऋत का सदन बना देगा ।

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    विषय

    राज्याभिषेक ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ( इमम् ) इम (ज्येष्ठम् ) सबसे उत्तम ( अमर्त्यम् ) साधारण मनुष्यों को प्राप्त न होने वाले ( मदम् ) सबको सन्तुष्ट करने वाले, ( सुतं ) उत्तम ओषधि रस के समान ( सुतम् ) अभिषेक द्वारा प्राप्त राज्यपद को (पिब) प्राप्त कर, उस का उपभोग कर । ( त्वा ) तुझे ( शुक्रस्य ऋतस्य धाराः ) शुद्ध जल की धाराओं के समान (शुक्रस्य) शुद्ध, ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान की व्यवस्थापुस्तक वेद की (धाराः) ज्ञानवाणियां (अभि अक्षरन्) सब प्रकार से तेरा अभिषेक करें, तुझे प्राप्त होकर ज्ञान प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह शत्रुओं का विदारण करनेवाला क्या आज्ञा करे, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! यं त्वा या धारा ऋतस्य शुक्रस्य सदने अभि अक्षरन् ताः प्राप्य इमं सुतं सोमं पिब तेन ज्येष्ठम् अमर्त्यं मदं प्राप्य शत्रून् विजयस्व ॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (इन्द्र) शत्रूणां विदारयितः= शत्रुओं का विदारण करनेवाले !(यम्)=जिस, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (या)=जो, (धाराः) वाचः=वाणी, (ऋतस्य) सत्यस्य=सत्य और, (शुक्रस्य) पराक्रमस्य=पराक्रम के, (सदने) स्थाने= स्थान मे, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (अक्षरन्) चालयन्ति ताः=चलाई जाती हैं, उसे (प्राप्य)=प्राप्त करके, (इमम्) प्रत्यक्षम्=इस प्रत्यक्ष, (सुतम्) निष्पादितम्=उत्पादित किये हुए (सोमम्) सोम लता के ओषधि स्वरूप रस को, (पिब)=पीओ, (तेन)=उसके द्वारा, (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्तम्= अतिशय प्रशस्त, (अमर्त्यम्) दिव्यम्=दिव्य, (मदम्) हर्षम्=हर्ष, (प्राप्य)= प्राप्त करके, (शत्रून्)=शत्रुओं पर, (विजयस्व)= विजयी होओ ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- किसी भी मनुष्य को विद्या और उत्तम भोजन के विना पराक्रम प्राप्त नहीं हो तकता है, उनके विना सत्य का विशेष ज्ञान और विजय नहीं होती है ॥४॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- सोम- सोम नाम की एक बेल प्रकृति में पाई जाती है, जिसमें ओषधीय गुण होते हैं। इस पौधे का रस सोम कहलाता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्र) शत्रुओं का विदारण करनेवाले !(यम्) जिस (त्वा) तुमको, (या) जो (धाराः) वाणी (ऋतस्य) सत्य और (शुक्रस्य) पराक्रम के (सदने) स्थान में (अभि) सामने से (अक्षरन्) चलाई जाती हैं, उसे (प्राप्य) प्राप्त करके, (इमम्) इस प्रत्यक्ष (सुतम्) उत्पादित किये हुए (सोमम्) सोम लता के ओषधि स्वरूप रस को (पिब) पीओ। (तेन)उसके द्वारा (ज्येष्ठम्) अतिशय प्रशस्त (अमर्त्यम्) दिव्य, (मदम्) हर्ष (प्राप्य) प्राप्त करके (शत्रून्) शत्रुओं पर (विजयस्व) विजयी होओ ॥४॥

    संस्कृत भाग

    इ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । सु॒तम् । पि॒ब॒ । ज्येष्ठ॑म् । अम॑र्त्यम् । मद॑म् । शु॒क्रस्य॑ । त्वा॒ । अ॒भि । अ॒क्ष॒र॒न् । धाराः॑ । ऋ॒तस्य॑ । साद॑ने ॥ विषयः- पुनः स किमादिशेदित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- कश्चिदपि विद्यासुभोजनैर्विना वीर्यं प्राप्तुं न शक्नोति, तेन विना सत्यस्य विज्ञानं विजयश्च न जायते ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणताही माणूस विद्या व उत्तम भोजन इत्यादीशिवाय पराक्रमी बनू शकत नाही व त्याशिवाय सत्य विज्ञान व विजय प्राप्त करू शकत नाही. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of light and universal rule, drink of the ecstasy of joy distilled, highest and immortal. The streams of pure and brilliant power and glory flow towards you in the house of Truth and Law.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should Indra (Commander of the army) order is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Commander of the army, destroyer of enemies) listen to the speeches of learned preachers which put true vigour in your heart (which is the seat of all emotions) and then drink this excellent immortal or divine exhilirating Soma (Juice of the nourishing and disease-destroying herbs).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) शत्रूणां विदारयितः = Destroyer of enemies. (मदम्) हर्षम् = Delight or exhiliration. मदी-हर्षे (धारा:) वाचः धारा इति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) = Speeches.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can gain strength or vitality without good knowledge and nourishing good food and without this it is not possible to acquire knowledge of truth and victory.

    Translator's Notes

    इन्द्र - ईन्दारयिता इति निरुक्ते, मदी-हर्षे

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    Subject of the mantra

    Then, what order should the one who destroys the enemies give? this issue has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra) =destroyer of enemies, (yam) =which,(tvā) tumako, (yā) jo (dhārāḥ) vāṇī (ṛtasya) =truth and, (śukrasya) =by gallantry, (sadane) =in the place,abhi) =from front, (akṣaran)= is given, that,(prāpya) =by attaining, (imam) =this apparent, (sutam) =produced, (somam)= medicinal juice of Soma creeper, (piba) =drink, (tena) =by that, (jyeṣṭham) =extremely praised, (amartyam) =divine, (madam) =joy, (prāpya) =attaining, (śatrūn) =over enemy, (vijayasva) =be victorious.

    English Translation (K.K.V.)

    O destroyer of enemies! Having received the speech that is given to you from the front in the place of truth and gallantry, drink the medicinal essence of this apparently produced Soma creeper. Get victory over your enemies by attaining extremely praised divine joy through that.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    No man can achieve bravery without knowledge and good food, without them there is no special knowledge of truth and victory.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    TRANSLATOR’S NOTES- A creeper plant named Soma is found in nature, which has medicinal properties. The juice of this plant is called Soma.

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