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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अत्राह॒ गोर॑मन्वत॒ नाम॒ त्वष्टु॑रपी॒च्य॑म्। इ॒त्था च॒न्द्रम॑सो गृ॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑ । अह॑ । गोः । अ॒म॒न्व॒त॒ । नाम॑ । त्वष्टुः॑ । अ॒पी॒च्य॑म् । इ॒त्था । च॒न्द्रम॑सः । गृ॒हे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र। अह। गोः। अमन्वत। नाम। त्वष्टुः। अपीच्यम्। इत्था। चन्द्रमसः। गृहे ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राज्ञः सूर्यवत्कृत्यमुपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे राजादयो मनुष्या ! यूयं यथाऽत्र नाम गोश्चन्द्रमसस्त्वष्टुरपीच्यमस्तीत्थामन्वत तथाऽह न्यायप्रकाशाय प्रजागृहे वर्त्तध्वम् ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (अत्र) अस्मिञ्जगति (अह) विनिग्रहे (गोः) पृथिव्याः (अमन्वत) मन्यन्ते (नाम) प्रसिद्धं रचनं नामकरणं वा (त्वष्टुः) मूर्तद्रव्यछेदकस्य (अपीच्यम्) येऽप्यञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति तेषु साधुम् (इत्था) अनेन हेतुना (चन्द्रमसः) चन्द्रलोकादेः (गृहे) स्थाने ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्ज्ञातव्यमीश्वरविद्यावृद्ध्योर्हानिर्विपरीतता भवितुं न शक्या, सर्वेषु कालेषु सर्वासु क्रियास्वेकरससृष्टिनियमा भवन्ति। यथा सूर्यस्य पृथिव्या सहाकर्षणप्रकाशादिसम्बन्धाः सन्ति, तथैवान्यभूगोलैः सह सन्ति। कुत ईश्वरेण संस्थापितस्य नियमस्य व्यभिचारो न भवति ॥ १५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब राजा का सूर्य के समान करने योग्य कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (अत्र) इस जगत् में (नाम) प्रसिद्ध (गौः) पृथिवी और (चन्द्रमसः) चन्द्रलोक के मध्य में (त्वष्टुः) छेदन करनेहारे सूर्य का (अपीच्यम्) प्राप्त होनेवालों में योग्य प्रकाशरूप व्यवहार है (इत्था) इस प्रकार (अमन्वत) मानते हैं, वैसे (अह) निश्चय से जाके (गृहे) घरों में न्यायप्रकाशार्थ वर्त्तो ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि ईश्वर की विद्यावृद्धि की हानि और विपरीतता नहीं हो सकती। सब काल सब क्रियाओं में एकरस सृष्टि के नियम होते हैं। जैसे सूर्य का पृथिवी के साथ आकर्षण और प्रकाश आदि सम्बन्ध हैं, वैसे ही अन्य भूगोलों के साथ हैं। क्योंकि ईश्वर से स्थिर किये नियम का व्यभिचार अर्थात् भूल कभी नहीं होती ॥ १५ ॥

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    विषय

    चन्द्रमा के घर में

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार (अत्र अह) = अश्व के मस्तिष्क में ही = सब विषयों के ग्रहण करनेवाले मस्तिष्क में ही (गोः) = वेदवाणी का (अमन्वत) = मनन करते हैं । ज्ञान की वाणियों के ग्रहण के लिए सूक्ष्म विषयग्राही मस्तिष्क की आवश्यकता है ही । २. ज्ञानप्राप्ति के साथ ही (त्वष्टुः) = उस सृष्टि के निर्माता सर्वमहान् देवशिल्पी प्रभु के (अपीच्यम्) = अन्तर्हित - सब तेजस्वी पिण्डों में वर्तमान (नाम) = तेज व यश का भी ये (अमन्वत) = मनन करते हैं । ज्ञान प्राप्त होने पर ये लोग यह तो अनुभव करते ही हैं कि 'तेजस्तेजस्विनामहम्' - तेजस्विता का तेज वह प्रभु ही है, 'प्रभास्मि शशिसूर्ययोः' - सूर्य - चन्द्र आदि को वे प्रभु ही दीप्ति प्राप्त करा रहे हैं, 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' = प्रभु की दीप्ति से ही सब दीप्त हो रहा है । यह सब प्रभु का ही नाम, यश व तेज है । ३. (इत्था) = इस प्रकार [क] ज्ञान की वाणियों का मनन करने पर और [ख] सर्वत्र प्रभु का तेज देखने पर मनुष्य (चन्द्रमसः गृहे) = चन्द्रमा के घर में निवास करता हैः 'चदि आह्लादे' - आह्लाद में निवास करता है । इसका जीवन आनन्दमय होता है और शरीर छोड़ने पर यह चन्द्रलोक में ही जन्म लेता है । उसका जन्म फिर इस मर्त्यलोक में नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ = कुशाग्र बुद्धिवाला पुरुष ज्ञान की वाणियों का मनन करता है, सर्वत्र प्रभु के तेज को ही देखता है और जीवन को आनन्दमय बना पाता है ।

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    विषय

    दमन और प्रजारञ्जन दोनों का उत्तम परिणाम ।

    भावार्थ

    (अत्र) इस संसार में विद्वान् जन (त्वष्टुः) सूर्य के (गोः) किरणों के जैसे ( अपीच्यम् ) उत्तम, प्रकट, उज्ज्वल (नाम ) स्वरूप को ( अमन्वत ) जानते हैं ( इत्था ) इसी प्रकार के स्वरूप को वे ( चन्द्रमसः गृहे ) चन्द्रमा के भीतर भी जानें अर्थात् वहां भी वही सूर्य रश्मियों का प्रकाश है । उसी प्रकार राजा के पक्ष में— ( अत्र ) उस राष्ट्र में ( त्वष्टः ) तेजस्वी, तीक्ष्ण राजा की ( गोः ) वाणी, आज्ञा का जैसा ( अपीच्यम् ) उत्तम या प्रकट ( नाम ) शत्रु को दबाने वाला स्वरूप है ( इत्था ) वैसा ही ( चन्द्रमसः) चन्द्रमा के समान प्रजा के चित्तों को आह्लादकारी शीतल या मधुर स्वभाव के राजा की आज्ञा का भी ( गृहे ) राष्ट्र के वश करने के कार्य में ( अपीच्यम् नाम ) उत्तम परिणाम, उत्तम वशकारक प्रभाव ( अमन्वत ) मानते हैं । अर्थात् उग्रता से जैसे वश किया जाता है वैसे ही मधुरता, नम्रता, शीतलता से भी वश किया जाता है। राजा को भीम और कान्त, भयानक और कमनीय दोनों प्रकार का होना चाहिये ।

    टिप्पणी

    भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम् । अनुष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरत्नै रिवार्णवः ॥ रघुवंशे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब राजा का सूर्य के समान, करने योग्य कर्म का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे राजादयो मनुष्याः ! यूयं यथा अत्र नाम गोःचन्द्रमसः {गृहे} त्वष्टुः अपीच्यम् अस्ति इत्था अमन्वत तथा अह न्यायप्रकाशाय प्रजागृहे वर्त्तध्वम् ॥१५॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (राजादयो)=राजा आदि (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जैसे, (अत्र) अस्मिञ्जगति=इस संसार में, (नाम) प्रसिद्धं रचनं नामकरणं वा= प्रसिद्ध रचना या नाम रखी हुई, (गोः) पृथिव्याः=पृथिवी और, (चन्द्रमसः) चन्द्रलोकादेः= चन्द्रमा आदि लोकों के, {गृहे} स्थाने= स्थान में, (त्वष्टुः) मूर्तद्रव्यछेदकस्य=मूर्त पदार्थों को पृथक्-पृथक् भागों में बाँटनेवाले, (अपीच्यम्) येऽप्यञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति तेषु साधुम्= प्रकाशित करनेवाले व्यवहार में उत्तम, (अस्ति)=है। (इत्था) अनेन हेतुना=इस कारण से, (अमन्वत) मन्यन्ते=माना जाता है, (तथा)=वैसे ही, (अह) विनिग्रहे=रोकने में और, (न्यायप्रकाशाय)= न्याय के प्रकाश के लिये, (प्रजागृहे)= प्रजा के निवास में, (वर्त्तध्वम्)=निवास करो ॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि ईश्वर की विद्या की वृद्धि से कोई प्रतिकूलता और हानि नहीं हो सकती है, सब कालों और सब क्रियाओं में एकरस सृष्टि के नियम होते हैं। जैसे सूर्य का पृथिवी के साथ आकर्षण और प्रकाश आदि सम्बन्ध हैं, वैसे ही अन्य लोकों के साथ हैं। क्योंकि ईश्वर के बनाये नियम का अनुचित पालन नहीं होता है ॥१५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (राजादयो) राजा आदि (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यथा) जैसे (अत्र) इस संसार में, (नाम) प्रसिद्ध रचना या नाम रखी हुई (गोः) पृथिवी और (चन्द्रमसः) चन्द्रमा आदि लोकों के {गृहे} निवास स्थान में, (त्वष्टुः) मूर्त पदार्थों को पृथक्-पृथक् भागों में बाँटनेवाला व (अपीच्यम्) प्रकाशित करनेवाले व्यवहार में उत्तम (अस्ति) है और (इत्था) इस कारण से (अमन्वत) माना जाता है। (तथा) वैसे ही (अह) बंधन करने और (न्यायप्रकाशाय) न्याय का प्रकाश करने के लिये (प्रजागृहे) प्रजा के निवास में (वर्त्तध्वम्) रहो ॥१५॥

    संस्कृत भाग

    अत्र॑ । अह॑ । गोः । अ॒म॒न्व॒त॒ । नाम॑ । त्वष्टुः॑ । अ॒पी॒च्य॑म् । इ॒त्था । च॒न्द्रम॑सः । गृ॒हे ॥ विषयः- अथ राज्ञः सूर्यवत्कृत्यमुपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्ज्ञातव्यमीश्वरविद्यावृद्ध्योर्हानिर्विपरीतता भवितुं न शक्या, सर्वेषु कालेषु सर्वासु क्रियास्वेकरससृष्टिनियमा भवन्ति। यथा सूर्यस्य पृथिव्या सहाकर्षणप्रकाशादिसम्बन्धाः सन्ति, तथैवान्यभूगोलैः सह सन्ति। कुत ईश्वरेण संस्थापितस्य नियमस्य व्यभिचारो न भवति ॥१५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की ईश्वरीय विद्यावृद्धीमध्ये नुकसान किंवा विपरीतता असू शकत नाही. सर्व काळी सर्व क्रियेत सृष्टीचे नियम एकसारखे असतात. जसा सूर्याचा पृथ्वीबरोबर आकर्षण व प्रकाश इत्यादी संबंध असतो तसाच इतर भूगोलाबरोबर ही असतो. कारण ईश्वराच्या स्थिर नियमांचे उल्लंघन होऊ शकत नाही किंवा कधी चूक होऊ शकत नाही. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as here on the surface of the earth and in its environment, we know, there is the beautiful light of the sun penetrating and reaching everywhere, similarly, let all know, it is there on the surface of the moon. (Just as the sun holds and illuminates the earth and the moon, so should the ruler with his light of justice and power hold and brighten every home in the land.)

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Wisemen recognise the hidden ray of the sun in the mansion of the moon i. e. the moon borrows her light from the sun. It is the rays of the sun which are manifest in the world. In the same manner, O ye king and other officers of the State, you should mingle with the subjects in their homes for the manifestation of justice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्वष्टु :०) मूर्तद्रव्यछेदकस्य (सूर्यस्य) = Of the sun.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NOTES Men should know that it is not possible that there is decay or contradiction in God's knowledge. At all times and in all actions, there is uniformity of the Laws of the Universe. In the same manner, there is the relation between the sun and the earth through the attraction and light etc. in the same way, it is with other worlds. because there cannot be contradiction in God's eternal laws.

    Translator's Notes

    For the meaning of the word स्वष्टा the sun, there is the authority of Yaskacharya the author of the famous Nirukta where he says in 4. 4. 25. यथाप्यस्य (सूर्यस्य) एकः रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते ... आदित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति सुषुम्णो रश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः इति । (निरु० ४.४.२५) In the spiritual interpretation. the last line will mean. In the same way, there resides the light of God in our delightful mind. अध्यात्मपक्षे (त्वष्टु:) तूर्णमश्नुवतः परमात्मनः = Of all-pervading God. (चन्द्रमसः) निपुणनिर्मातुरन्तः करणस्य मनसः तथा च श्रुतिः-चन्द्रमा मनसो जातः (यजु० ३१.१३) = Of the mind.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of Commander he is?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā) =Like, (indraḥ) =commander, (aśvasya)=fast-moving horses, (yat) =that, (śaryaṇāvati)= From places containing violent substances to distant places in space, (parvateṣu)=in the mountains or the clouds, (apaśritam)=repeatedly reached, [jo usakā]=that his, (śiraḥ) =head, (asti) =is, (tat) =to that, (jaghāna)=disintegrate, (tat) =his, (vat) =like, (śatrusenāyā) =of the enemies army, (uttamā) =main, (aṅgam) =division, (chettum) =of disintegrating, (icchan) =desiring, (sukhāni) =to happiness, (vidat) jānakara (labhet) =attaining.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as the commander, who has reached the mountains or the clouds from the places rich in substances capable of being used for violence, is repeatedly torn to pieces by the fast-moving horses, which is his head, like his enemy, While desiring to disintegrate the main division of the army, one should attain happiness by knowing it.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun pierces the clouds dependent in the sky and makes them fall to the ground, in the same way the mountains are dependents in the forts, are also destroyed by the enemy and make them fall to the ground, without state management, the kingdom cannot be stable.

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