ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 6
नकि॒ष्ट्वद्र॒थीत॑रो॒ हरी॒ यदि॑न्द्र॒ यच्छ॑से। नकि॒ष्ट्वानु॑ म॒ज्मना॒ नकिः॒ स्वश्व॑ आनशे ॥
स्वर सहित पद पाठनकिः॑ । त्वत् । र॒थीत॑रः । हरी॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । यच्छ॑से । नकिः॑ । त्वा॒ । अनु॑ । म॒ज्मना॑ । नकिः॑ । सु॒ऽअश्वः॑ । आ॒न॒शे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नकिष्ट्वद्रथीतरो हरी यदिन्द्र यच्छसे। नकिष्ट्वानु मज्मना नकिः स्वश्व आनशे ॥
स्वर रहित पद पाठनकिः। त्वत्। रथीतरः। हरी। यत्। इन्द्र। यच्छसे। नकिः। त्वा। अनु। मज्मना। नकिः। सुऽअश्वः। आनशे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यस्त्वं रथीतरस्स हरी नकिर्यच्छसे त्वा त्वां मज्मना कश्चित् किं नकिरन्वानशे त्वदधिकः कश्चित् स्वश्वः किं नकिर्विद्यते तस्मात् त्वं सर्वैरङ्गैर्युक्तो भव ॥ ६ ॥
पदार्थः
(नकिः) प्रश्ने (त्वत्) (रथीतरः) अतिशयेन रथयुक्तो योद्धा (हरी) अश्वौ (यत्) यः (इन्द्र) सेनेश (यच्छसे) ददासि (नकिः) (त्वा) त्वाम् (अनु) आनुकूल्ये (मज्मना) बलेन (नकिः) न किल (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः (आनशे) व्याप्नोति ॥ ६ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यूयं सेनेशमेवमुपदिशत किं त्वं सर्वेभ्योऽधिकः? किं त्वया सदृश एव नास्ति? किं कश्चिदपि त्वां विजेतुं न शक्नोति? तस्मात् त्वया समाहितेन वर्त्तितव्यमिति ॥ ६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सेना के धारण करनेहारे सेनापति ! (यत्) जो तू (रथीतरः) अतिशय करके रथयुक्त योद्धा है सो (हरी) अग्न्यादि वा घोड़ों को (नकिः) (यच्छसे) क्या रथ में नहीं देता अर्थात् युक्त नहीं करता? क्या (त्वा) तुझको (मज्मना) बल से कोई भी (नकिः) (अन्वानशे) व्याप्त नहीं हो सकता? क्या (त्वत्) तुझसे अधिक कोई भी (स्वश्वः) अच्छे घोड़ोंवाला (नकिः) नहीं है? इससे तू सब अङ्गों से युक्त हो ॥ ६ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम सेनापति को इस प्रकार उपदेश करो कि क्या तू सब से बड़ा है? क्या तेरे तुल्य कोई भी नहीं है? क्या कोई तेरे जीतने को भी समर्थ नहीं है? इससे तू निरभिमानता से सावधान होकर वर्त्ता कर ॥ ६ ॥
विषय
इन्द्रिय = नियमन [जितेन्द्रियता]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (यत्) = चूँकि तू (हरी) = इन इन्द्रियाश्वों को (यच्छसे) = काबू करता है, इसलिए (त्वत् रथितरः नकिः) = तुझसे बढ़कर अन्य उत्तम रथी नहीं है । रथी का महत्त्व तो इसी में है कि रथवाहक घोड़े पूर्णरूप से उसके वश में हों । २. इस प्रकार उत्तम रथी बनने के कारण (मज्मना) = बल के दृष्टिकोण से (नकिः त्वा अनु) = कोई भी तेरा मुक़ाबला नहीं कर सकता । उत्तम रथी वही है जो इन्द्रियाश्वों को वश में रखता है । वशीभूत इन्द्रियोंवाला, बल का रक्षण करता हुआ अनुपम शक्तिशाली बनता है । ३. (नकिः स्वश्वः आनशे) = कोई भी, कितने भी उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला होता हुआ भी [सु+अश्वः] तुझे प्राप्त नहीं कर सकता, अर्थात् तेरा प्रतिद्वन्द्वी नहीं बन पाता । किसी एक व्यक्ति को माता = पिता से कितना भी सुन्दर शरीर प्राप्त हो जाए, परन्तु वह स्वयं अजितेन्द्रिय होता हुआ जितेन्द्रिय पुरुष की प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता ।
भावार्थ
भावार्थ = जितेन्द्रियता ही हमें उत्तम रथी, बलवान् व अनुपम [सर्वाग्रणी] बनाती है ।
विषय
सर्वोच्च महारथी पद । सर्वोच्च इन्द्र ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( यत् हरी यच्छसे ) जब तू अश्वों को जोड़ता है तब क्या ( त्वत् रथीतरः नकिः ) तुझसे बढ़कर उत्तम रथारोही कोई नहीं होता ? और (त्वा अनु) तेरे बराबर क्या ( मज्मना ) बल में भी ( नकिः ) कोई दूसरा नहीं होता? और क्या (स्वश्वः नकिः आनशे ) उत्तम अश्वारोही भी तुझ से दूसरा नहीं होता ? होता है। तब तू अतिगर्व में मत भूल । सावधान होकर राज्य शासन कर । अथवा [ नकिर्निषेधार्थे ] हे इन्द्र ! जब तू (हरी यच्छसे) अश्वों को जोड़ता है तब ( त्वद् रथीतरः नकिः) तुझसे दूसरा बड़ा महारथी नहीं । ( त्वा अनु मज्मना नकिः ) तेरे जैसा बल में दूसरा नहीं। (स्वश्वः नकिः आनशे) तुझ से दूसरा उत्तम अश्वारोही कोई राष्ट्र को नहीं भोग सकता । अर्थात् तू ही सबसे बड़ा महारथी, बलशाली और उत्तम अश्वारोही राष्ट्र का पालक हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सेनापति कैसा हो?इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! यः त्वं रथीतरः स हरी नकिः यच्छसे त्वा त्वां मज्मना कश्चित् किं नकिः अनु आनशे त्वत् अधिकः कश्चित् स्वश्वः किं नकिः विद्यते तस्मात् त्वं सर्वैः अङ्गैः युक्तः भव ॥६॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (इन्द्र) सेनेश=सेनापति! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (रथीतरः) अतिशयेन रथयुक्तो योद्धा= अतिशय रूप से रथ में सवार योद्धा, (सः)वह, (हरी) अश्वौ=दो अश्वों में, (नकिः) प्रश्ने=क्या नहीं है, (यच्छसे) ददासि=देते हो, (त्वा) त्वाम्= तुमको, (मज्मना) बलेन=बल से, (कश्चित्)=कोई, (किम्)=क्या, (नकिः) प्रश्ने= क्या नहीं है, (अनु) आनुकूल्ये=अनुकूलता से, (आनशे) व्याप्नोति= व्याप्त होता है, (त्वत्) =तुम से, (अधिकः)=बढ़कर, (कश्चित्)=कोई, {नकिः} न किल=निश्चित रूप से नहीं है, (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः=उत्तम अश्वोंवाला, (किम्) =क्या, (नकिः) प्रश्ने= क्या नहीं है, (विद्यते)=उपस्थित रहता है, (तस्मात्)= इसलिये, (त्वम्)=तुम, (सर्वैः)=समस्त, (अङ्गैः)= अङ्गों से, (युक्तः) = युक्त, (भव)=होओ ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे मनुष्यों ! तुम सेनापति को ही उपदेश करो कि क्या तुम सब से बड़े हो? क्या तुम्हारे समान कोई नहीं है? क्या कोई भी तुमको जीत नहीं सकता है? इसलिये तुम्हारे द्वारा सावधान होकर समरसतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्र) सेनापति! (यः) जो (त्वम्) तुम (रथीतरः) अतिशय रूप से रथ में सवार योद्धा को (सः) उन (हरी) दो अश्वों को (नकिः) नहीं (यच्छसे) देते हो? (त्वा) तुमको (मज्मना) बल से (कश्चित्) कोई (किम्) क्या (नकिः +अनु+ आनशे) अनुकूलता से व्याप्त नहीं होता है? (त्वत्) तुम से (अधिकः) बढ़कर (कश्चित्) कोई {नकिः} निश्चित रूप से नहीं है। (स्वश्वः) उत्तम अश्वोंवाले (किम्) क्या (नकिः+विद्यते) उपस्थित नहीं हैं? (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तुम (सर्वैः) समस्त (अङ्गैः) अङ्गों से (युक्तः) युक्त (भव) होओ, [अर्थात् सेमापति के लिये अश्व आदि सेना के अङ्ग के रूप में आवश्यक हैं] ॥६॥
संस्कृत भाग
नकिः॑ । त्वत् । र॒थीत॑रः । हरी॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । यच्छ॑से । नकिः॑ । त्वा॒ । अनु॑ । म॒ज्मना॑ । नकिः॑ । सु॒ऽअश्वः॑ । आ॒न॒शे॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यूयं सेनेशमेवमुपदिशत किं त्वं सर्वेभ्योऽधिकः? किं त्वया सदृश एव नास्ति? किं कश्चिदपि त्वां विजेतुं न शक्नोति? तस्मात् त्वया समाहितेन वर्त्तितव्यमिति ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही सेनापतीला असा उपदेश करा (प्रश्न विचारा) की तू सर्वात मोठा आहेस काय? तुझी तुलना कुणाशी होऊ शकत नाही काय? तुला जिंकण्यास कुणी समर्थ होऊ शकत नाही काय? त्यासाठी अभिमान न करता सावधानीने वाग. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, while you yoke and drive the horses, powers of the chariot of your dominion, none could be a better master of the chariot. None could equal you in power, courage and force. None as master of horse and chariot could claim even to approach you in power, efficiency and glory.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the sixth Mantra. Soma or Juice of nourishing herbs.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (Commander of the army) when you harness your horses, there is no one a better fighter with a good chariot than you, no one is equal to you in strength, no one although well-horsed has overtaken you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र) सेनेश = Commander of the army. (मन्मना) बलेने = By strength.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, you should tell the commander-in chief of the army to consider whether he is the best and there is none other who is equal to him and whether there is none who can conquer him. He should think over it coolly and be cautious and more attentive to his duties.
Translator's Notes
In the Gopath Brahmana i. e. 2-9 it is clearly stated सेनेन्द्रस्य पत्नी i. e. Army is said to be the wife of Indra It is therefore quite clear that Indra means the Commander of the Army.
Subject of the mantra
Then, what kind of Commander should he be? This topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra) =commander of army, (yaḥ) =that, (tvam) =you, (rathītaraḥ)=to excessively riding warrior, (saḥ) =those, (harī) =two horses, (nakiḥ) =not,(yacchase) =give, (tvā) =to you, (majmanā)= by force. (kaścit) =any, (kim) =what, (nakiḥ +anu+ ānaśe)=does not pervade optimally, (tvat) =by you, (adhikaḥ)= better, (kaścit) =any,{nakiḥ}=is definitely not, (svaśvaḥ) =having better horses, (kim) =what, (nakiḥ+vidyate) =Are not present, (tasmāt) =therefore, (tvam) =you, (sarvaiḥ) =all, (aṅgaiḥ) =in division, (yuktaḥ) =equipped, (bhava) =be, [arthāt semāpati ke liye aśva ādi senā ke aṅga ke rūpa meṃ āvaśyaka haiṃ]= that is, for commander of army, horse etc. are necessary in the form of army divisions.
English Translation (K.K.V.)
O commander of army! Which do you not excessively give to the warrior riding in the chariot of those two horses? What is not pervaded by force and favour to you? There is definitely no one better than you. Are those with good horses not present? Therefore, you should be equipped with all the army divisions, that is, for commander of army, horse etc. are necessary in the form of army divisions.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O humans! You preach to the commander of the army only, are you the greatest of all? Is there no one like you? Can no one conquer you? Therefore, you should be careful and behave harmoniously.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal