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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 23
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दे॒वेन॑ नो॒ मन॑सा देव सोम रा॒यो भा॒गं स॑हसावन्न॒भि यु॑ध्य। मा त्वा त॑न॒दीशि॑षे वी॒र्य॑स्यो॒भये॑भ्य॒: प्र चि॑कित्सा॒ गवि॑ष्टौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वेन॑ । नः॒ । मन॑सा । दे॒व॒ । सो॒म॒ । रा॒यः । भा॒गम् । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । अ॒भि । यु॒ध्य॒ । मा । त्वा । त॒न॒त् । ईशि॑षे । वी॒र्य॑स्य । उ॒भये॑भ्यः । प्र । चि॒कि॒त्स॒ । गोऽइ॑ष्टौ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवेन नो मनसा देव सोम रायो भागं सहसावन्नभि युध्य। मा त्वा तनदीशिषे वीर्यस्योभयेभ्य: प्र चिकित्सा गविष्टौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवेन। नः। मनसा। देव। सोम। रायः। भागम्। सहसाऽवन्। अभि। युध्य। मा। त्वा। तनत्। ईशिषे। वीर्यस्य। उभयेभ्यः। प्र। चिकित्स। गोऽइष्टौ ॥ १.९१.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 23
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे सहसावन् देव सोम त्वं देवेन मनसा शत्रुभिः सह रायोऽभियुध्य यस्त्वं नोऽस्मभ्यम् रायो भागमीशिषे तं त्वा गविष्टौ शत्रुर्मा तनत् क्लेशयुक्तं क्लेशप्रदं वा मा कुर्यात् त्वं वीर्यस्योभयेभ्यो मा प्रचिकित्स ॥ २३ ॥

    पदार्थः

    (देवेन) दिव्यगुणसम्पन्नेन (नः) अस्मभ्यम् (मनसा) शिल्पक्रियादिविचारेण (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) सर्वविद्यायुक्त (रायः) धनस्य (भागम्) भजनीयमंशम् (सहसावन्) अत्यन्तबलवन्। सहसेत्यव्ययम्। भूमार्थे मतुप् च। (अभि) आभिमुख्ये (युध्य) युध्यस्व। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (मा) निषेधे (त्वा) (तनत्) विस्तारयेत् (ईशिषे) (वीर्यस्य) पराक्रमस्य (उभयेभ्यः) सोमाद्योषधिगणेभ्यः शत्रुभ्यश्च (प्र) (चिकित्स) (गविष्टौ) गवामिन्द्रियपृथिवीराज्यविद्याप्रकाशानामिष्टयो यस्मिँस्तस्मिन् ॥ २३ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः परमोत्तमस्य सेनाध्यक्षस्यौषधिगणस्य वाश्रयं कृत्वा युद्धं प्रवृत्योत्साहे स्वसेनां संयोज्य शत्रुसेनां पराजय्य चक्रवर्त्तिराज्यैश्वर्य प्राप्तव्यमिति ॥ २३ ॥अत्राध्येत्रध्यापकादीनां विद्याध्ययनादिकर्मणां च सिद्धिकारकस्य सोमार्थस्योक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इत्येकनवतितमं सूक्तं ९१ वर्गश्च २३ समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

    पदार्थ

    हे (सहसावन्) अत्यन्त बलवान् (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) सर्व विद्या और सेना के अध्यक्ष ! आप (देवेन) दिव्यगुणयुक्त (मनसा) विचार से (रायः) राज्यधन के लाभ को (अभि) शत्रुओं के सम्मुख (युध्य) युद्ध कीजिये जो आप (नः) हमारे लिये धन के (भागम्) भाग के (ईशिषे) स्वामी हो उस (त्वा) तुझको (गविष्टौ) इन्द्रिय और भूमि के राज्य के प्रकाशों की सङ्गतियों में शत्रु (मा तनत्) पीड़ायुक्त न करें। आप (वीर्यस्य) पराक्रम को (उभयेभ्यः) अपने और पराये योद्धाओं से (मा प्रचिकित्स) संशययुक्त मत हो ॥ २३ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि परम उत्तम सेनाध्यक्ष और ओषधिगण का आश्रय और युद्ध में प्रवृत्ति कर उत्साह के साथ अपनी सेना को जोड़ और शत्रुओं की सेना का पराजय कर चक्रवर्त्ति राज्य के ऐश्वर्य को प्राप्त हों ॥ २३ ॥इस सूक्त में पढ़ने-पढ़ानेवालों आदि की विद्या के पढ़ने आदि कामों की सिद्धि करनेवाले (सोम) शब्द के अर्थ के कथन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ९१ इक्कानवाँ सूक्त और वर्ग २३ तेईस समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    दिव्य मन व सम्पत्ति

    पदार्थ

    १. हे (देव) = सब - कुछ देनेवाले ! (सोम) = शान्त ! (सहसावन्) = बलसम्पन्न प्रभो ! (देवेन मनसा) = दिव्य मन के साथ (रायः भागम्) = धन के हमारे सेवनीय अंश को (नः) = हमारे लिए (अभियुध्य) = युद्ध के द्वारा प्रेरित कीजिए । हमें सम्पत्ति प्राप्त हो और उस सम्पत्ति के साथ दिव्यवृत्तिवाला मन भी प्राप्त हो । हम धन का दुरुपयोग करते हुए विलास में न फंस जाएँ । २. इस प्रार्थना करनेवाले जीव से प्रभु कहते हैं कि बस, तुझे यह ध्यान रखना है कि (त्वा) = तुझे काम - क्रोधादि की कोई भी वासना (मा) = मत (तनत्) = हिंसित करनेवाली हो [तनति = to pain or afflict with disease] | इन वासनाओं के कारण तेरा शरीर रुग्ण न हो जाए । तू (वीर्यस्य ईशिषे) = वीर्य का ईश बनता है । वासनाएँ तेरे वीर्य को नष्ट करनेवाली न हों । (गविष्टौ) = इस जीवन - संग्राम [Battle] में तू (उभयेभ्यः) = दोनों से (प्रचिकित्सा) = होनेवाले उपद्रवों को दूर कर । शरीर में होनवाले रोगों के उपद्रवों को और मन में होनेवाले काम - क्रोधादि के क्षोभ को तू दूर करनेवाला बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हमें दिव्य मन के साथ सम्पत्ति प्राप्त हो । हम रोगों व वासनाओं से पीड़ित न हों । वीर्य के ईश बनें ।

    विशेष / सूचना

    विशेष = सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि प्रभु हमें सरलतम मार्ग से ले - चलते हैं [१] । इस मार्ग से चलते हुए हम उत्तम प्रज्ञान व शक्तिवाले बनते हैं [२] । हम राजा वरुण के समान बनें [३], ओषधियों व जलों को ही शक्ति का स्रोत समझें [४], सत्कर्मों का सेवन करते हुए प्रभुरक्षण के पात्र हों [५] । प्रभु - रक्षा में मृत्यु कहाँ [६] । पूजा की वृत्तिवाले, गुणग्राही, यज्ञशील बनकर धन व बल प्राप्त करें [७] । प्रभुभक्तों के मित्र बनें [८] । 'दाश्वान्' सदा प्रभुरक्षण का पात्र होता है [९] । हम यज्ञशील व प्रभु के उपासक बनें [१०] । वे प्रभु उत्तम सुख देनेवाले हैं [११], प्रभु प्राणशक्ति के वर्धक व रोगों के नाशक हैं [१२] । हमारा हृदय प्रभु का मन्दिर बन जाए [१३] । इससे हम सबल व प्रज्ञावान् बनेंगे [१४], निन्दा व पाप से दूर रहेंगे [१५] । प्रभु हमें वीर्य व बल देंगे [१६], ज्ञानदीप्ति के द्वारा हमारा वर्धन करेंगे [१७] । हम दुग्ध व अन्न का प्रयोग करते हुए ज्ञान में रुचिवाले हों [१८] । ज्ञान द्वारा भवसागर को तैरनेवाले हों [१९] । प्रभु दाश्वान् को उत्तम गौएँ, घोड़े व सन्तान प्राप्त कराते हैं [२०] । प्रभु में निवास करनेवाला अपराजित होता है [२१] । प्रभु ने हमारे कल्याण के लिए ओषधियों, जलों व सूर्यकिरणों का निर्माण किया है [२२] । प्रभुकृपा से हमें दिव्य मन के साथ सम्पत्ति प्राप्त हो [२३] । 'उषा प्रकाश करती है । उषर्बुध व्यक्ति का मानस भी प्रकाशमय होता है', इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -

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    विषय

    पक्षान्तर में उत्पादक परमेश्वर और विद्वान् का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( देव ) विजय की कामना करने हारे ! हे ( सोम ) सबके आज्ञापक ! ऐश्वर्यवन् ! हे ( सहसावन ) बलवन् ! तू ( नः ) हमारे ( रायः ) ऐश्वर्य के ( भागम् ) सेवन तथा प्राप्त करने योग्य अंश को उद्देश्य करके (मनसा) विचार, ज्ञान तथा शत्रुको स्तम्भन कर लेने में समर्थ, दृढ़ बल से ( अभि युध्य ) मुकाबले पर लड़, शत्रु पर खूब प्रहार कर । वह शत्रु ( त्वा ) तुझे ( मा तनत् ) पीड़ित न कर सके, तुझ पर बल न जमा सके । तू ( ईशिषे ) हमारे समस्त ऐश्वर्य का स्वामी है। तू (गविष्टौ ) पृथिवी, पशु सम्पत्ति, इन्द्रियों से भोग्य पदार्थों और ज्ञान और वाणी प्रकाश की नाना कामनाओं को प्राप्त कराने वाले संग्राम या प्रति स्पर्द्धा में ( प्रचिकित्स ) खूब अच्छी प्रकार विचार करके बाधक शत्रुओं और रोगादि दुःख कारणों को दूर कर । इति त्रयोविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी अत्यंत उत्तम सेनाध्यक्ष व औषधींचा आश्रय घ्यावा व युद्धाची प्रवृत्ती ठेवून उत्साहाने आपली सेना जमवावी आणि शत्रूच्या सेनेचा पराभव करून चक्रवर्ती राज्याचे ऐश्वर्य प्राप्त करावे. ॥ २३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, lord of generosity and invincible force, move and, with brilliance of mind and intelligence, fight against opposition for the creation of our share of wealth. No one would oppose and thwart you. You rule the strength for both body and mind. In the battles of humanity for light, freedom and prosperity, increase your power and influence.

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