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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 58/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - मन आवर्त्तनम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्ते॒ भूमिं॒ चतु॑र्भृष्टिं॒ मनो॑ ज॒गाम॑ दूर॒कम् । तत्त॒ आ व॑र्तयामसी॒ह क्षया॑य जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । भूमि॑म् । चतुः॑ऽभृष्टिम् । मनः॑ । ज॒गाम॑ । दूर॒कम् । तत् । ते॒ । आ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । इ॒ह । क्षया॑य । जी॒वसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते भूमिं चतुर्भृष्टिं मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । भूमिम् । चतुःऽभृष्टिम् । मनः । जगाम । दूरकम् । तत् । ते । आ । वर्तयामसि । इह । क्षयाय । जीवसे ॥ १०.५८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 58; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) हे मानस रोग में ग्रस्त मनुष्य ! तेरा (यत्-मनः) जो मन (चतुर्भृष्टिं भूमिम्) चार अर्थात् ऊँची, नीची, गीली, रेतीली, तपाने-सतानेवाली, विभक्तियों-स्थलियोंवाली भूमि को (दूरकं जगाम) दूर चला गया है उस (ते तत्…पूर्ववत्) ॥३॥

    भावार्थ

    मानस रोग के रोगी का मन भ्रान्त होकर जब-“मैं ऊँचे पर्वत पर हूँ, मुझे कौन उतारे, मैं खड्डे में हूँ, मुझे कौन उभारे, मैं रेतीली भूमि में पड़ा हूँ या मैं कीचड़ में धँसा जा रहा हूँ” आदि प्रलाप करे, तो उस समय उसको आश्वासन दिया जाये कि हमने वहाँ से तुझे बचा लिया है आदि। इस प्रकार उसकी चिकित्सा करे ॥३॥

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    विषय

    मनः-आवर्त्तन। इस लोक में पुनः आने, जन्म लेने आदि के निमित्त मन का पुनः २ आवर्तन।

    भावार्थ

    हे जीव ! (यत् ते मनः चतुर्भृष्टिम् भूमिम् दूरकम् जगाम) चारों ओर से भ्रंश वाली, गोल भूमि अथवा चारों पुरुषार्थों को बहुत २ प्रदान करने वाले उत्पादक लोक को भी प्राप्त करके दूर चला जाता है, (तत्) उसको हम (इह क्षयाय) यहां ऐश्वर्य और निवास तथा (जीवसे) जीवन प्राप्त करने के लिये (ते आ वर्त्तयामसि) तेरे मन को हम लौटा लेवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायना ऋषयः। देवता-मन आवर्तनम्॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः॥ द्वादशर्चं सूकम्॥

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    विषय

    चतुर्भृष्टि भूमि की ओर

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जो (ते मन:) = तेरा मन (चतुर्भृष्टिम्) = [चतुर्दिक्षु भृष्टिः भ्रंशो यस्याः ] गेंद की तरह गोल-सा होने के कारण चारों दिशाओं में झुकाववाली (भूमिम्) = भूमि की ओर (दूरकं जगाम) = दूर-दूर जाता है, (ते) = तेरे (तत्) = उस मन को (आवर्तयामसि) = लौटाते हैं जिससे (इह क्षयाय) = यहां ही निवास व गति के लिये हो और हम (जीवसे) = जीवन को उत्तम व दीर्घ बना पायें। [२] जमीन गोल है, चारों दिशाओं में झुकाववाली है। कभी-कभी मन पृथ्वी पर एक कोने से दूसरे कोने तक भटका करता है इस मन को हम भटकने से रोकें और जो कार्य कर रहे हैं उसी में केन्द्रित करें। यही जीवन को सुन्दर व दीर्घ बनाने का उपाय है।

    भावार्थ

    भावार्थ- पृथ्वी पर इधर-उधर भटकते हुए मन को रोककर हम प्रस्तुत कार्य में ही केन्द्रित करें ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते) हे मानसरोगे ग्रस्त जन ! तव (यत्-मनः) यन्मनोऽन्तःकरणम् (चतुर्भृष्टिं भूमिम्) चतस्रो भ्रष्टयो भर्जन्यो विषमभूमिविभक्तयो यस्यां तां भूमिम् (दूरकं जगाम) दूरं गतम् (ते तत्…) पूर्ववत् ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your mind that wanders far over lands and deserts burning and blazing all round, we bring it back for you, to be at peace here for the good life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानसिक रोग्याचे मन भ्रांत होऊन जेव्हा ‘मी उंच पर्वतावर आहे मला कोण उतरवील? मी खड्ड्यात आहे, मला वर कोण काढील? मी वाळवंटात पडलो आहे किंवा चिखलात रुतलो आहे.’ इत्यादी बडबड केल्यास त्याला त्यावेळी हे आश्वासन (ण्दल्हेात्त्ग्हु) द्यावे, की आम्ही तुला तेथून वाचविले आहे. या प्रकारे त्याची चिकित्सा करावी. ॥३॥

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