ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 58/ मन्त्र 8
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - मन आवर्त्तनम्
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यत्ते॒ सूर्यं॒ यदु॒षसं॒ मनो॑ ज॒गाम॑ दूर॒कम् । तत्त॒ आ व॑र्तयामसी॒ह क्षया॑य जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । सूर्य॑म् । यत् । उ॒षस॑म् । मनः॑ । ज॒गाम॑ । दूर॒कम् । तत् । ते॒ । आ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । इ॒ह । क्षया॑य । जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते सूर्यं यदुषसं मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । सूर्यम् । यत् । उषसम् । मनः । जगाम । दूरकम् । तत् । ते । आ । वर्तयामसि । इह । क्षयाय । जीवसे ॥ १०.५८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 58; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते) हे मानसरोगग्रस्त मनुष्य ! तेरा (यत्-मनः) जो मन (सूर्यं यत्-उषसं दूरकं जगाम) सूर्य के प्रति और जो उषा के प्रति दूर चला गया है (ते तत्……) पूर्ववत् ॥८॥
भावार्थ
मानसिक रोगी को जब भ्रान्ति से जाग्रत् में अथवा अर्द्धनिद्रा में सूर्य या उषा उसकी पीतिमा मन में बसी जा रही हो, आँखें भी खोलने को तैयार न हो और कहे कि सूर्य या प्रकाश बहुत तीव्र है, तो ऐसी अवस्था में मन को आश्वासन दें ॥८॥
विषय
मनः-आवर्त्तन। इस लोक में पुनः आने, जन्म लेने आदि के निमित्त मन का पुनः २ आवर्तन।
भावार्थ
(यत् ते मनः सूर्यं उषसम् दूरकम् जगाम) जो तेरा मन सूर्य वा प्रभातिक वेला को वा तुझे चाहनेवाले किसी व्यक्ति को लक्ष्य कर दूर चला जाता है, उसको भी (इह क्षयाय जीवसे तत् ते आवर्त्तयामसि) यहां ऐश्वर्य प्राप्ति, निवास एवं सुखमय जीवन के लाभार्थ पुनः प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बन्ध्वादयो गौपायना ऋषयः। देवता-मन आवर्तनम्॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः॥ द्वादशर्चं सूकम्॥
विषय
सूर्य व उषा की ओर
पदार्थ
[१] (यत्) = जो (ते मनः) = तेरा मन (सूर्यम्) = सूर्य की ओर, और (यत्) = जो (उषसम्) = उषा की ओर (दूरकं जगाम) = दूर-दूर जाता है कभी सूर्य का ध्यान करता है और कभी उषा का (तत्) = उस (ते) = तेरे मन को (इह) = यहाँ (क्षयाय आवर्तयामसि) = जीवन के प्रस्तुत कार्यों में निवास के लिये लौटाते हैं (जीवसे) = जिससे यह मन दीर्घ व उत्तम जीवन का कारण बने । [२] सूर्य व उषाकाल के सोचने का यहां भाव यह है कि मन इस रूप में सोचा करता है कि- 'प्रातः काल होगा, सूर्य निकलेगा और मैं वहाँ जाऊँगा, उससे मिलूँगा, यह आनन्द लूँगा और वह आनन्द प्राप्त करूँगा।' मन को इस प्रकार सोचते रहने से रोककर कर्त्तव्य कर्म में लगाना ही ठीक है ।
भावार्थ
भावार्थ-मन को 'सवेरा होगा, सूर्य निकलेगा, यह खायेंगे, वह पीयेंगे' इस प्रकार सोचते रहने से रोककर प्रस्तुत कर्म में लगाना ही ठीक है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) हे मानसरोगग्रस्त जन ! तव (यत्-मनः) यन्मनः (सूर्यं यत्-उषसं दूरकं जगाम) सूर्यं प्रति यच्च-उषसं प्रति दूरं गतम् (ते तत्……) पूर्ववत् ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Your mind that wanders far to the sun and the dawn, we bring back to normalcy, here to be at peace for you for the good life.
मराठी (1)
भावार्थ
मानसिक रोगी जेव्हा भ्रमाने जागृत अवस्थेत किंवा अर्धनिद्रेत सूर्य किंवा उषेची लाली त्याच्या मनात ठसलेली असेल व डोळे उघडण्यासही तयार नसेल व सूर्याचा प्रकाश अत्यंत तीव्र आहे असे म्हणत असेल तर अशा अवस्थेत मनाला आश्वासन द्यावे. ॥८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal