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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 58/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - मन आवर्त्तनम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्ते॑ अ॒पो यदोष॑धी॒र्मनो॑ ज॒गाम॑ दूर॒कम् । तत्त॒ आ व॑र्तयामसी॒ह क्षया॑य जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । अ॒पः । यत् । ओष॑धीः । मनः॑ । ज॒गाम॑ । दूर॒कम् । तत् । ते॒ । आ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । इ॒ह । क्षया॑य । जी॒वसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते अपो यदोषधीर्मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । अपः । यत् । ओषधीः । मनः । जगाम । दूरकम् । तत् । ते । आ । वर्तयामसि । इह । क्षयाय । जीवसे ॥ १०.५८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 58; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) हे मानसरोगग्रस्त जन ! तेरा (यत्-मनः) जो मन (यत्-अपः-ओषधीः-दूरकं जगाम) जो जलों तथा ओषधियों के प्रति दूर चला गया है (ते तत्……) पूर्ववत् ॥७॥

    भावार्थ

    मानसरोगग्रस्त रोगी का मन भ्रान्त हुआ जलों में पुनः-पुनः स्नान, पान, क्रीडन आदि में रुचि रख रहा हो तथा ओषधि-वनस्पतियों में उनके पुनः-पुनः स्मरण, आस्वादन रुचि या अरुचि में प्रवाहित हो तो तत्तदुपयुक्त  आश्वासन देकर रोगी के मन को शान्ति देनी चाहिए ॥७॥

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    विषय

    मनः-आवर्त्तन। इस लोक में पुनः आने, जन्म लेने आदि के निमित्त मन का पुनः २ आवर्तन।

    भावार्थ

    (यत् ते मनः अपः ओषधीः दूरकं जगाम) जो तेरा मन जलों, प्राणों, ओषधियों वा तत्-तुल्य शरीरों वा सुखों को प्राप्त करने की आशा से दूर दूर तक जाता है उसको भी हम (इह क्षयाय जीवसे) यहां रहने और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिये (आवर्त्तयामसि) लौटा लेवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायना ऋषयः। देवता-मन आवर्तनम्॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः॥ द्वादशर्चं सूकम्॥

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    विषय

    जलों व ओषधियों की ओर

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जो (ते) = तेरा (मनः) = मन (अपः) = जलों की ओर व (यत्) = जो (ओषधीः) = ओषधियों की ओर (दूरकं जगाम) = दूर-दूर जाता है (ते) = तेरे (तत्) = उस मन को (आवर्तयामसि) = लौटाते हैं । यह निरुद्ध मन (इह क्षयाय) = यहाँ ही निवास व गति के लिये हो और इस प्रकार (जीवसे) = दीर्घ व उत्तम जीवन के लिये हो । [२] कई बार यह मन खान-पान की दुनियाँ में ही घूमता रहता है, उस समय जीवन के एकदम भौतिक प्रवृत्ति का बन जाने की आशंका हो जाती है। इन भौतिक विषयों में फँसकर यह जीवन की अवनति का ही कारण बनता है । इसे उधर से हटाकर हम अपने कर्त्तव्य कर्मों में केन्द्रित करने का प्रयत्न करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - मन सदा खान-पान की चीजों में ही न भटकता रहे उसे हम कर्त्तव्य कर्मों में केन्द्रित करें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते) हे मानसरोगग्रस्त जन ! तव (यत्-मनः) यदन्तःकरणम् (यत्-अपः-ओषधीः-दूरकं जगाम) यज्जलानि प्रति-ओषधीः प्रति दूरंगतम् (ते तत्……) पूर्ववत् ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your mind that wanders far over waters, herbs and trees, we bring back to normalcy for you to be at peace for the good life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानसरोगग्रस्त रोग्याचे मन भ्रमिष्ठ बनून जलात पुन्हा पुन्हा स्नान, पान, क्रीडन इत्यादीमध्ये रुची ठेवत असल्यामुळे औषधी - वनस्पतीमध्ये त्यांचे पुन्हा पुन्हा स्मरण, आस्वादन रुची किंवा अरुचीमध्ये प्रवाहित झाल्यास त्याला उपयुक्त आश्वासन देऊन रोग्याचे मन शांत केले पाहिजे. ॥७॥

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