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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 18
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    धे॒नूर्जि॑न्वतमु॒त जि॑न्वतं॒ विशो॑ ह॒तं रक्षां॑सि॒ सेध॑त॒ममी॑वाः । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण च॒ सोमं॑ सुन्व॒तो अ॑श्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धे॒नूः । जि॒न्व॒त॒म् । उ॒त । जि॒न्व॒त॒म् । विशः॑ । ह॒तम् । रक्षां॑सि । सेध॑तम् । अमी॑वाः । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धेनूर्जिन्वतमुत जिन्वतं विशो हतं रक्षांसि सेधतममीवाः । सजोषसा उषसा सूर्येण च सोमं सुन्वतो अश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धेनूः । जिन्वतम् । उत । जिन्वतम् । विशः । हतम् । रक्षांसि । सेधतम् । अमीवाः । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, complementary powers of the nation’s development and progress, develop the animal wealth for milk, develop and energise the agricultural, industrial and commercial classes, destroy evil and the saboteurs, eliminate all negativities and, in unison with the sun and the rise of every new day, create and recreate the soma of new joy and enthusiasm for life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषाचे हे कर्तव्य आहे की, त्यांनी गाई इत्यादी पशुपालक व व्यापारी वैश्य वर्गाला प्रसन्न ठेवावे. ॥१८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे राजानौ ! उत । धेनूर्गाः जिन्वतं=वर्धयतम् । तद्रक्षकान् विशो जिन्वतं प्रसादयतम् । शिष्टं व्याख्यातम् ॥१८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अश्विना) हे राजन् ! और हे मन्त्रिमण्डल ! आप दोनों मिलकर (धेनूः) गौवों को (जिन्वतम्) बढ़ाया करें (उत) और उनके रक्षक (विशः) वैश्य जाति अर्थात् व्यापारिक दल को (जिन्वतम्) प्रसन्न रक्खा करें ॥१८ ॥

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    विषय

    ज्ञानवृद्धि, कर्मवृद्धि, रक्षोहनन, दुष्टनाशन, क्षत्रविजय, गोवृद्धि, प्रजावृद्धि का उपदेश।

    भावार्थ

    ( धेनूः जिन्वतम् ) गौओं की वृद्धि करो, उनको अन्न, घास जलादि से खूब तृप्त, प्रसन्न कर रक्खो, और (विशः जिन्वतम्) प्रजाओं को बढ़ाओ, उनको तृप्त रक्खो। शेष पूर्ववत्। इति षोडशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्राणसाधना-गोदुग्ध सेवन

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप सोम के सम्पादन के द्वारा (धेनूः जिन्वतम्) = गौओं का वर्धन करो और गोदुग्ध द्वारा (विशः) = सब प्रजाओं का (जिन्वतम्) = वर्धन करो। अवशिष्ट मन्त्रभाग मन्त्र संख्या १६ पर द्रष्टव्य है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधक को चाहिए कि खुले वायु में प्रचार [घूमना] करनेवाली गौओं के दुग्ध का पान करके अपना वर्धन करे। प्राणसाधना के साथ गोदुग्ध सेवन करते हुए हम नीरोग जीवन बिताते हुए वृद्धि को प्राप्त करें।

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