ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
गिरो॑ जुषेथामध्व॒रं जु॑षेथां॒ विश्वे॒ह दे॑वौ॒ सव॒नाव॑ गच्छतम् । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण॒ चेषं॑ नो वोळ्हमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठगिरः॑ । जु॒षे॒था॒म् । अ॒ध्व॒रम् । जु॒षे॒था॒म् । विश्वा॑ । इ॒ह । दे॒वौ॒ । सव॑ना । अव॑ । ग॒च्छ॒त॒म् । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरो जुषेथामध्वरं जुषेथां विश्वेह देवौ सवनाव गच्छतम् । सजोषसा उषसा सूर्येण चेषं नो वोळ्हमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठगिरः । जुषेथाम् । अध्वरम् । जुषेथाम् । विश्वा । इह । देवौ । सवना । अव । गच्छतम् । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Divine Ashvins, listen to our song and understand, join and cherish our yajnic project of non- violent creation, come to all our sessions, O generous harbingers of food, energy and wealth and, united with the dawn and the sun, bring us plenty of food, energy and all round advancement to our heart’s desire here and now.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व मंत्रिमंडळाने आपल्या भिन्न भिन्न प्रजेच्या भिन्न भिन्न भाषांना जाणावे, ज्यामुळे ते त्यांच्या सुखदु:खांना जाणू शकतील. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे देवौ राजानौ । युवाम् । अस्माकं गिरो वाणीर्विविधा भाषाः । जुषेथां सेवेथाम् । तथा अध्वरं अखिलयज्ञञ्च जुषेथाम् । अन्यद् व्याख्यातम् ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(देवौ) हे देव ! हे राजन् ! हे अमात्यगण ! आप सब (गिरः) हम लोगों की सब प्रकार की भाषाओं को (जुषेथाम्) जानें और (अध्वरम्) अखिल यज्ञ को (जुषेथाम्) सेवें (इह) इस संसार में ॥६ ॥
विषय
उषा-सूर्यवत् उनके कर्तव्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) बलवान्, ऐश्वर्य भोगने और इन्द्रियों को वश करने वाले स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( गिरः जुषेथाम् ) विद्वान् उपदेष्टा पुरुषों और वेद वाणियों का प्रेमपूर्वक सेवन करो। ( देवौ ) दानशील और कामना युक्त वा व्यवहारज्ञ होकर ( अध्वरं जुषेथाम् ) यज्ञ और अहिंसाव्रत का प्रेमपूर्वक सेवन करो ( इह विश्वा सवना अव गच्छतम् ) यहां जगत में समस्त ऐश्वर्यो, अधिकारों, ज्ञानादि को प्राप्त करो। ( स-जोषसा उषसा ) प्रीतियुक्त कान्तिमती प्रभात वेला वा दाहक शक्ति और ( स-जोषसा सूर्येण च ) प्रीतियुक्त सूर्यवत् परस्पर के साथ मिलकर प्रीतियुक्त होकर ( इषं वोढम् ) अन्न, वृष्टि आदि के तुल्य अपनी उत्तम कामना को धारण करो। परस्पर विवाह करो। इति चतुर्दशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान-यज्ञ
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (गिरः जुषेथाम्) = आप ज्ञान की वाणियों का सेवन करो। प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता होकर हमारी ज्ञान प्रवणता होती ही है। उस ज्ञान के अनुसार (अध्वरम्) = हिंसारहित कर्मों का (जुषेथाम्) = सेवन करो। अवशिष्ट मन्त्र भाग मन्त्र संख्या चार में व्याख्यात है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारी रुचि ज्ञान व यज्ञों की ओर प्रेरित होती है।
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