ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 15
द॒दी रेक्ण॑स्त॒न्वे॑ द॒दिर्वसु॑ द॒दिर्वाजे॑षु पुरुहूत वा॒जिन॑म् । नू॒नमथ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद॒दिः । रेक्णः॑ । त॒न्वे॑ । द॒दिः । वसु॑ । द॒दिः । वाजे॑षु । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । वा॒जिन॑म् । नू॒नम् । अथ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ददी रेक्णस्तन्वे ददिर्वसु ददिर्वाजेषु पुरुहूत वाजिनम् । नूनमथ ॥
स्वर रहित पद पाठददिः । रेक्णः । तन्वे । ददिः । वसु । ददिः । वाजेषु । पुरुऽहूत । वाजिनम् । नूनम् । अथ ॥ ८.४६.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord universally invoked and adored, give us health for our body, give wealth, give us power and speed in our battles of life, and give us all this soon and for sure.
मराठी (1)
भावार्थ
आपत्तीमध्ये व संपत्तीमध्ये सर्व काळी ईश्वराची स्तुती व प्रार्थना करा. ॥१५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे पुरुहूत ! पुरुभिर्बहुभिराहूत पूजित देव ! त्वम् । तन्वे=शरीराय शरीरपोषणाय । रेक्णो धनम् । ददिः=दाता भव । पुनः । वसु=कोशम् । ददिः=दाता भव । धनस्य कोशस्य च दाता भवेत्यर्थः । वाजेषु=संग्रामेषु उपस्थितेषु । वाजिनं=अश्वादिपशुम् । ददिः । अथ । नूनं=निश्चितं यथा तथा देहि ॥१५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(पुरुहूत) हे सर्वजनाहूत हे सर्वमानव सुपूजित देव ! मेरे (तन्वे) शरीर के पोषण के लिये तू (रेक्णः) धन का (ददिः) दाता हो (वसु+ददिः) कोश दे (वाजेषु) संग्राम उपस्थित होने पर (वाजिनम्) नाना प्रकार के अश्व आदि पशु (ददिः) दे । ये सब (नूनम्) निश्चय करके दे (अथ) और भी जो आवश्यकता हो, उसे भी तू पूर्ण कर ॥१५ ॥
भावार्थ
आपत्ति और सम्पत्ति, सब समय में ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करो ॥१५ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे (पुरु-हूत) बहुतों से पुकारने योग्य बहु-स्तुत ! तू (तन्वे) हमारे शरीर के लिये ( रेक्णः ददिः ) धन देने वाला हो। ( वाजेषु वसु ददिः ) संग्रामों और ऐश्वर्यों के लिये नाना ऐश्वर्य देने वाला हो, ( नूनम् अथ ) और शीघ्र ही ( वाजिनम् ददिः ) अन्नादियुक्त ऐश्वर्य प्रदान कर। इति तृतीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
रेक्ण वसु वाजिनम् [धन व शक्ति]
पदार्थ
[१] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! आप (तन्वे) = हमारे शरीरों के रक्षण के लिए (रेक्णः) = धन को (ददिः) = देनेवाले हैं। आप (नूनं) = शीघ्र ही (अथ) = अभी ही (वसु) = निवास के लिए आवश्यक धन को (ददि:) = देनेवाले हैं। [२] हे प्रभो ! आप (वाजेषु) = संग्रामों में (वाजिनम्) = [Power] शक्ति को (ददिः) = देनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु शरीर के लिए आवश्यक धनों को देते हैं और संग्रामों में शक्ति को प्राप्त कराते हैं।
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