ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 16
विश्वे॑षामिर॒ज्यन्तं॒ वसू॑नां सास॒ह्वांसं॑ चिद॒स्य वर्प॑सः । कृ॒प॒य॒तो नू॒नमत्यथ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑षाम् । इ॒र॒ज्यन्त॑म् । वसू॑नाम् । स॒स॒ह्वांस॑म् । चि॒त् । अ॒स्य । वर्प॑सः । कृ॒प॒ऽय॒तः । नू॒नम् । अति॑ । अथ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेषामिरज्यन्तं वसूनां सासह्वांसं चिदस्य वर्पसः । कृपयतो नूनमत्यथ ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वेषाम् । इरज्यन्तम् । वसूनाम् । ससह्वांसम् । चित् । अस्य । वर्पसः । कृपऽयतः । नूनम् । अति । अथ ॥ ८.४६.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Sing in praise of Indra, ruler and promoter of the wealth and beauty of this world as it is and as it might be in future. He is challenger and vanuisher of the enemies.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर संपूर्ण संपत्ती व संपूर्ण रूपरंगाचा अधिपती आहे. आम्ही त्याची उपासना करतो तशीच सर्वांनी करावी. ॥१६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
विश्वेषां=सर्वेषाम् । वसूनाम्=धनानाम् इरज्यन्तमीशानां स्वामिनं परमात्मानम् । वयं स्तुमः । कीदृशम् । सासह्वांसम्=सर्वेषां विघ्नानामभिभवितारम् । पुनः । नूनमिदानीम् । अथ=भविष्यति काले च । अतिकृपयतः=अतिशयेन कल्पयतो धारयतः । अस्य दृश्यमानस्य । वर्पसो रूपस्य चिदपि । ईशानम् ॥१६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हम उपासक गण (विश्वेषाम्+वसूनाम्) सर्वसम्पत्तियों के (इरज्यन्तम्) स्वामी परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना करते हैं, जो (सासह्वांसम्) हमारे निखिल विघ्नों, रोगों और मानसिक क्लेशों का निवारण करनेवाला है, जो (अस्य+वर्पसः+चित्) इस संसार के सब रूपों का भी स्वामी है । जो रूप (नूनम्) इस समय या (अथ) आगे (अति कृपयतः) होनेवाला है, उस सबका वही स्वामी है ॥१६ ॥
भावार्थ
परमात्मा सर्वसम्पत्तियों और सर्व रूपरङ्गों का अधिपति है, उसकी उपासना हम करते हैं और इसी प्रकार सब करें ॥१६ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
( अथ ) और ( विश्वेषां वसूनां ) समस्त प्रजाजनों के ( इरज्यन्तम् ) स्वामी और ( अस्य ) इस ( कृपयतः ) सामर्थ्यवान् ( वर्पसः ) रूपवान्, देहधारी वा तेज को ( सासह्वांसं ) अपने अधीन रखने वाले तेरी स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वसु प्राप्ति व शत्रुदलन
पदार्थ
[१] तू (विश्वेषां) = सब (वसूनां) = वसुओं के निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों के (ईरज्यन्तं) = स्वामी, और (अस्य) = इस (कृपयतः) = [युद्धं कल्पयतः] युद्ध को करते हुए (वर्पस:) = तेजस्वी शत्रु के (सासह्वांसं) = अभिभूत करनेवाले प्रभु को (नूनं) = निश्चय से स्तुत कर। [२] हे जीव ! (अथ) = अब (नूनं) = शीघ्र ही (अतिचित्) = अभी ही तू उस प्रभु को स्तुत कर। यह प्रभुस्तवन ही तेरे जीवन को सब वसुओं के प्राप्त कराने के द्वारा उत्तम बनाएगा और तेरे सब शत्रुओं को अभिभूत करके तेरे जीवन को मधुर बनाएगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभुस्तवन करें। यही सब वसुओं को प्राप्त करने व सब शत्रुओं को अभिभूत करने का मार्ग हैं।
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