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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 28
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - वायु: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    उ॒च॒थ्ये॒३॒॑ वपु॑षि॒ यः स्व॒राळु॒त वा॑यो घृत॒स्नाः । अश्वे॑षितं॒ रजे॑षितं॒ शुने॑षितं॒ प्राज्म॒ तदि॒दं नु तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒च॒थ्ये॑ । वपु॑षि । यः । स्व॒ऽराट् । उ॒त । वा॒यो॒ इति॑ । घृ॒त॒ऽस्नाः । अश्व॑ऽइषितम् । रजः॑ऽइषितम् । शुना॑ऽइषितम् । प्र । अज्म॑ । तत् । इ॒दम् । नु । तत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उचथ्ये३ वपुषि यः स्वराळुत वायो घृतस्नाः । अश्वेषितं रजेषितं शुनेषितं प्राज्म तदिदं नु तत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उचथ्ये । वपुषि । यः । स्वऽराट् । उत । वायो इति । घृतऽस्नाः । अश्वऽइषितम् । रजःऽइषितम् । शुनाऽइषितम् । प्र । अज्म । तत् । इदम् । नु । तत् ॥ ८.४६.२८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 28
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vayu, refulgent ruler of the world of purity, decency and generosity soft as consecrated in ghrta, in this beautiful life of admirable nature and character, whatever you give for social achievement, emotional satisfaction and spiritual realisation is the same as you have given to me.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या साऱ्या आश्चर्यकारक प्रपंचाचा रचनाकार परमेश्वरच या सर्वांचा एकमात्र अध्यक्ष आहे. त्यानेच सर्व भोग साधकाला प्रदान केलेले आहेत व हे सर्व भोग साधकाला गतिशीलता, नम्रता व परमानंद प्रदान करतात. ॥२८॥

    टिप्पणी

    विशेष - या सूक्ताच्या २५ ते २८ मंत्रांचा देवता ‘वायू’ आहे. वायूचा अर्थ येथे ‘नियंता’ आहे = नियंता परमेश्वर. परमेश्वराने ऐश्वर्य प्रदान करून माणसाला सामर्थ्यवान बनविलेले आहे. या प्रतिज्ञेवर की, हे संपूर्ण ऐश्वर्य अभावपीडिताची पीडा दूर करण्यासाठी असावे हाच भाव पुढच्या मंत्रात व्यक्त केलेला आहे.

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वायो) हे जगन्नियन्ता! (यः) जो आप (उचथ्ये) प्रशंसनीय, स्तुत्य (वपुषि) इस आश्चर्यजनक प्रपञ्च में (स्वराट्) स्वयं अध्यक्षवत् आसीन हैं (उत) और (घृतस्नाः) ज्ञानरूप प्रकाश देते हैं! वह आप साधक को उसकी (अश्वेषितम्) आशुगति प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित, (रजेषितम्) अनुराग तथा तन्मयता प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित एवं (शुनेषितम्) परमानन्द प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित (अज्म) भोग्य को (प्र) प्रदान करते हैं; (नु) निश्चय ही (इदम्) यह मुझे प्राप्त हुए सब भोग्य (तत् तत्) वही वही ही हैं॥२८॥

    भावार्थ

    सकल आश्चर्यजनक प्रपञ्च (संसार) का रचने वाला परमेश्वर ही इसका एकमात्र प्रभाव है; उसने ही सारे भोग साधक को दिए हैं-और ये सब भोग साधक को गतिशीलता, तन्मयता और परमानन्द देते हैं॥२८॥ विशेष--सूक्त के २५ से २८ तक के मन्त्रों का देवता 'वायु' है। वायु का अर्थ यहाँ–'नियन्ता' है। परमेश्वर ने ऐश्वर्य देकर मनुष्य को सामर्थ्य दी है परन्तु इस शर्त सहित कि यह सारा ऐश्वर्य अभाव पीड़ितों की पीड़ा मिटाने के लिये हो। यही भाव अगले मन्त्रों में है।

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    विषय

    स्वराष्ट्र शासक।

    भावार्थ

    (यः) जो पुरुष (उचथ्ये) वचन योग्य, स्तुति पात्र ( वपुषि ) भव्य, बलवान् दर्शनीय शरीर में ( घृत-स्नाः ) जल से वा तेज से सदा स्नान करने वाला, नित्य शुद्ध, तेजस्वी ( उत स्वराड् ) और स्वयं अपने तेज से वा धन से चमकने वाला, शुद्ध पवित्र कान्तिमान् हो (तत्) वह (अश्वेषितं) अश्वों से प्राप्त होने योग्य, और (रजेषितं) गर्दभों या ऊंटों से वा लोक में बसे प्रजाजनों से प्राप्त होने योग्य और ( शुनेषितम् ) सुख से प्राप्त होने योग्य ( इदं नु तत् ) यह सब नाना प्रकार के उत्तम (अज्म) अन्न, बल और ऐश्वर्य ( प्र ) अच्छी प्रकार प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'अश्वेषितं रजेषितं शुनेषितं' अज्म

    पदार्थ

    [१] (उचथ्ये) = स्तुति में उत्तम [स्तुत्य] (वपुषि) = शरीर में (यः) = जो (स्वराट्) = स्वयं शासन करनेवाला बनता है। (उत) = और हे (वायो) = गति के द्वारा सब बुराइयों का संहार करनेवाले प्रभो ! जो (घृतस्ना:) = ज्ञान की दीप्ति में स्नान करके अपना शोधन करता है। यही घर को उत्तम बनाता है। [२] (अश्वेषितं) = [अश् व्याप्तौ] सर्वव्यापक प्रभु से प्रापित (रजेषितं) = [रज्] रञ्जनात्मक- आनन्दमय- प्रभु से प्राप्ति तथा (शुनेषितं) = [शुन गतौ ] गतिमय प्रभु से प्रापित (तत्) = वह (इदं) = यह (नु) = निश्चय से (तत् प्र अज्म) = वह प्रकृष्ट गृह है [ अज्म- home ] । प्रभु ने यह शरीररूप गृह प्राप्त कराया है। हमें चाहिए कि हम भी कुछ व्यापक उदारवृत्तिवाले बनें, आनन्दमय स्वभाववाले बनें तथा गतिशील हों। तभी यह शरीरगृह उत्तम बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस शरीरगृह में हम स्तुति करनेवाले बनें, ज्ञान में अपने को पवित्र करें। उदार प्रसन्न व गतिशील बनकर शरीरगृह को उत्तम बनाएँ। इसके लिए ऐसा कहा जा सके कि -'घर तो यह है। '

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