ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 25
आ नो॑ वायो म॒हे तने॑ या॒हि म॒खाय॒ पाज॑से । व॒यं हि ते॑ चकृ॒मा भूरि॑ दा॒वने॑ स॒द्यश्चि॒न्महि॑ दा॒वने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । वा॒यो॒ इति॑ । म॒हे । तने॑ । या॒हि । म॒खाय॑ । पाज॑से । व॒यम् । हि । ते॒ । च॒कृ॒म । भूरि॑ । दा॒वने॑ । स॒द्यः । चि॒त् । महि॑ । दा॒वने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो वायो महे तने याहि मखाय पाजसे । वयं हि ते चकृमा भूरि दावने सद्यश्चिन्महि दावने ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । वायो इति । महे । तने । याहि । मखाय । पाजसे । वयम् । हि । ते । चकृम । भूरि । दावने । सद्यः । चित् । महि । दावने ॥ ८.४६.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 25
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vayu, lord of mighty motion, come for the great expansion of the speed and power of our yajna. Lord of high generosity, we adore you always and glorify you as a great, liberal and universal ultimate giver.
मराठी (1)
भावार्थ
तो ईश्वर आमच्या संपूर्ण आवश्यकता जाणतो व आमच्या कर्मानुसार पूर्ण करतो. त्याच्यापेक्षा दानी कोण आहे? हे माणसांनो! त्याचीच स्तुती करा. ॥२५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे वायो=सर्वगते सर्वशक्ते महेश ! त्वम् । नोऽस्माकम् । महे=महते । तने=विस्ताराय । पुनः । मखाय=यज्ञाय । पुनः । पाजसे=बलाय । आयाहि । हि=यस्मान् । वयम् । भूरि=बहु । दावने=दात्रे । महि=महत् । दावने=दात्रे । ते=तुभ्यम् । सद्यश्चित् । चक्रिम=स्तुतिं कुर्मः ॥२५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(वायो) हे सर्वगते, सर्वशक्ते महेश ! आप (नः) हमारे (महे+तने) महान् विस्तार के लिये (मखाय) यज्ञ के लिये (पाजसे) बल के लिये (आ+याहि) हमारे गृह पर हृदय में और शुभकर्मों में आवें, आप (भूरि+दावने) बहुत-बहुत देनेवाले हैं, आप (महि+दावने) महान् वस्तु देनेवाले हैं, हे भगवन् (सद्यः+चित्) सर्वदा (ते) उस आपके लिये (वयम्+हि) हम मनुष्य (चक्रिम) स्तुति करते हैं, आपकी कीर्ति गाते हैं ॥२५ ॥
भावार्थ
वह ईश्वर हमारी सम्पूर्ण आवश्यकताएँ जानता और यथाकर्म पूर्ण करता है । उससे बढ़कर कौन दानी है । हे मनुष्यों ! उसी की स्तुति प्रार्थना करो ॥२५ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( वायो ) वायुवत् बलशालिन् ! तू ( महे तने ) बड़े भारी धनैश्वर्य और ( मखाय पाजसे ) उत्तम पूज्य, बल प्राप्त करने के लिये ( नः ) हमें (आयाहि ) प्राप्त हो। ( दावने ते ) दानशील तेरे लिये ( वयं ) हम ( हि ) अवश्य ( भूरि चकृम ) बहुत कुछ करें और ( दावने ) ज्ञान के दाता गुरु के लिये हम (सद्यः चित् महि चकृम) आज के समान सदा ही आदर सत्कार किया करें। इति पञ्चमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
तने, मखाय, पाजसे
पदार्थ
[१] हे (वायो) = गति के द्वारा सब बुराइयों का विध्वंस करनेवाले प्रभो ! (आयाहि) = आप आइये। (न:) = हमारे (महे) = महान् (तने) = शक्ति के विस्तार के लिए आप हमें प्राप्त होइये । (मखाय) = यज्ञों के लिए तथा (पाजसे) = शक्ति के लिए आप हमें प्राप्त होइए। [२] (वयं) = हम भूरिदावने खूब ही देनेवाले (ते) = आपके लिए (हि) = निश्चय से (चकृमा) = स्तुति को करें। (महिदावने) = महान् दाता के लिए (सद्यः चित्) = शीघ्र ही स्तुति को करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्तवन द्वारा हम प्रभु के सान्निध्य को प्राप्त करें। यह सान्निध्य हमारी शक्तियों के विस्तार के लिए यज्ञ की प्रवृत्ति के लिए तथा बल के लिए हो। उस महान् दाता प्रभु का स्मरण करते हुए हम भी दानशील बनें।
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