ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 11
अप॒ त्या अ॑स्थु॒रनि॑रा॒ अमी॑वा॒ निर॑त्रस॒न्तमि॑षीची॒रभै॑षुः । आ सोमो॑ अ॒स्माँ अ॑रुह॒द्विहा॑या॒ अग॑न्म॒ यत्र॑ प्रति॒रन्त॒ आयु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । त्याः । अ॒स्थुः॒ । अनि॑राः । अमी॑वाः । निः । अ॒त्र॒स॒न् । तमि॑षीचीः । अभै॑षुः । आ । सोमः॑ । अ॒स्मान् । अ॒रु॒ह॒त् । विऽहा॑याः । अग॑न्म । यत्र॑ । प्र॒ऽति॒रन्ते॑ । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप त्या अस्थुरनिरा अमीवा निरत्रसन्तमिषीचीरभैषुः । आ सोमो अस्माँ अरुहद्विहाया अगन्म यत्र प्रतिरन्त आयु: ॥
स्वर रहित पद पाठअप । त्याः । अस्थुः । अनिराः । अमीवाः । निः । अत्रसन् । तमिषीचीः । अभैषुः । आ । सोमः । अस्मान् । अरुहत् । विऽहायाः । अगन्म । यत्र । प्रऽतिरन्ते । आयुः ॥ ८.४८.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let those difficult ailments subside and go far from here. Even though they are strong and fearful, let them be off from here. Potent soma has risen up in vigour and has energised us, and we have reached where life increases and delights through age in ecstasy.
मराठी (1)
भावार्थ
उत्तमोत्तम अन्न खाण्यापिण्याने व उत्तम गृहात राहण्याने रोग होत नाहीत व शरीरात विद्यमान असणारे रोगही नष्ट होतात, यात शंका नाही. ॥११॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
त्याः=ताः । अनिराः=निराकर्तुमशक्याः । अमीवाः=सर्वे रोगाः । मम शरीरात् । अपास्थुः=अपगच्छन्तु । ताः सम्प्रति । निरत्रसन्=नितरां त्रस्ताः । पुनः । अभैषुः=भीता बभूवुः । कीदृशः=तमिषीचीः=बलवत्यः । अपगमे कारणमाह− सोमः=उत्तमोत्तमो रसः । अस्मान् अरुहत् । यो विहायाः=सर्वरोगविनाशकः । वयञ्च तत्रागन्म यत्र । आयुः । प्रतिरन्ते=प्रवर्धते ॥११ ॥
हिन्दी (4)
विषय
N/A
पदार्थ
(त्याः) वे (अनिराः) अनिवार्य (अमीवाः) सर्व रोग हमारे शरीर से (अप+अस्थुः) दूर हो जाएँ । वे यद्यपि (तमिषीचीः) अत्यन्त बलवान् हैं, तथापि अब (निरत्रसन्) उनकी शक्ति न्यून हो गई और वे (अभैषुः) अत्यन्त दुर्बल हो गए हैं । इसके जाने का कारण यह है कि (सोमः) उत्तमोत्तम रस और अन्न (अस्मान्) हम लोगों को (आ+अरुहत्) प्राप्त होते हैं, जो (विहायाः) सर्व रोगों के विनाशक हैं और हम लोग (अगन्म) वहाँ आकर बसें, (यत्र) जहाँ (आयुः) आयु (प्रति+रन्ते) बढ़ती है ॥११ ॥
भावार्थ
इसमें सन्देह नहीं कि उत्तमोत्तम अन्न के खाने-पीने से और उत्तम गृह में रहने से रोग नहीं होते और शरीर में विद्यमान रोग भी नष्ट हो जाते हैं ॥११ ॥
विषय
सोम अभिषिक राजा।
भावार्थ
जिस प्रकार सोम ओषधि के पान करने पर ( अनिराः ) बल रहित कर देने वाली वा जल अन्न न खाने देने वाली ( त्याः अमीवाः ) वे दुःखजनक रोगपीड़ाएं ( अप अस्थुः ) दूर हो जाती हैं उसी प्रकार राजा के अभिषेक कर देने पर समस्त दुःखदायी विपत्तियां भी ( अप अस्थुः ) दूर हो जाती हैं। ( तमिषीचीः ) अन्धकार ला देने वाली बाधाओं के समान बलवती सेनाएं भी उससे ( निः-अत्रसन् अभैषुः ) डरती और भय मानती हैं। वह (सोमः) सोम ( विहायाः ) आकाश के समान महान् होकर ( अस्मान् आ अरुहत् ) हम पर अध्यक्ष होकर रहे, ( यत्र ) जिसके आश्रय रह कर लोग ( आयुः प्रतिरते ) अपना जीवन बढ़ा लेते हैं हम उसी को ( अगन्म ) प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
अनिरा: अमीवाः अप अस्थुः
पदार्थ
[१] (विहायाः) = महान् यह (सोमः) = वीर्य (अस्मान् आ अरुहत्) = हमारे अङ्ग-प्रत्यङ्गों में आरुढ़ हुआ है। सो (त्याः) = वे (अनिरा:) = जिनका दूर करना कठिन है, अथवा [इरा अन्न] अन्नाभाववाली-जिनमें भूख मर जाती है, वे (अमीवा:) = बीमारियाँ (अप अस्थुः) = हमारे से दूर स्थित हुई हैं। ये (तमिषीची:) = बलसम्पन्न- अतिप्रबल रोग (निरत्रसन्) = निश्चय से हमें डराते हैं और (अभैषुः) = भयभीत करते हैं। सोमरक्षण द्वारा ये हमारे से भयभीत होकर दूर हो जाते हैं। [२] इस सोमरक्षण के द्वारा मनुष्य उस स्थिति में (अगन्म) = जाते हैं, (यत्र) = जिसमें कि (आयुः प्रतिरन्ते) = अपने आयुष्य को बढ़ानेवाले होते हैं। सोम सब रोगों को दूर करके हमारे लिए दीर्घजीवन को देनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के द्वारा भयंकर रोग भी दूर हो जाते हैं और इस प्रकार नीरोगता व दीर्घजीवन प्राप्त होता है।
मन्त्रार्थ
(त्याः-अनिराः-तमिषीची:-अमीवा:-अपस्थुः) सोमपान सेवे अचल-जमकर बैठने वाली, बल को प्राप्त हुई- बलवती "तवीषी बलनाम तवतेर्गतिकर्मणः" (निरु० ९।२५) 'वकारस्य मकारश्छान्दसो वर्णव्यत्ययेन ततोऽञ्चधातोः क्विप् स्त्रियांतमीषीची' कृमिव्याधियां या रोगकारक कृमिजातियाँ दूर हो जाती हैं (निरत्रसन्-अभैपुः) तथा बास को प्राप्त हो जाती हैं और भय कर जाती हैं (सोमः अस्मान्-विहायाः-आरुहत्) सोम हमें रोगों से ऊपर नीरोगता के आकाश में चढा देता है (अगन्म) हम पहुँच जाते हैं (यत्र-आयु: प्रतिरन्ते) जहां आयु को प्रवृद्ध करते हैं ॥११॥
विशेष
ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)
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