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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निं न मा॑ मथि॒तं सं दि॑दीप॒: प्र च॑क्षय कृणु॒हि वस्य॑सो नः । अथा॒ हि ते॒ मद॒ आ सो॑म॒ मन्ये॑ रे॒वाँ इ॑व॒ प्र च॑रा पु॒ष्टिमच्छ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । न । मा॒ । म॒थि॒तम् । सम् । दि॒दी॒पः॒ । प्र । च॒क्ष॒य॒ । कृ॒णु॒हि । वस्य॑सः । नः॒ । अथ॑ । हि । ते॒ । मदे॑ । आ । सो॒म॒ । मन्ये॑ । रे॒वान्ऽइ॑व । प्र । च॒र॒ । पु॒ष्टिम् । अच्छ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं न मा मथितं सं दिदीप: प्र चक्षय कृणुहि वस्यसो नः । अथा हि ते मद आ सोम मन्ये रेवाँ इव प्र चरा पुष्टिमच्छ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । न । मा । मथितम् । सम् । दिदीपः । प्र । चक्षय । कृणुहि । वस्यसः । नः । अथ । हि । ते । मदे । आ । सोम । मन्ये । रेवान्ऽइव । प्र । चर । पुष्टिम् । अच्छ ॥ ८.४८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Light and shine me like fire from wood by friction, give me the eye to see the light and raise us to be masters of wealth, honour and excellence. O soma, drink of immortality, in the ecstasy of exhilaration, I concentrate and meditate on the self in the peace of divinity like a wealthy man of spiritual profusion. O bliss of exuberance, stimulate, inspire and raise me well to perfect health of body, mind and soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अशा अन्नाचे सेवन करावे ज्याने माणूस अग्नीप्रमाणे तेजस्वी असल्याचा भास व्हावा. डोळ्याची शक्ती वाढवी व दिवसागणिक धनवान व्हावा. मद्य इत्यादी पान लंपटता, द्यूत इत्यादी कुकर्मात धनाचा व्यय करता कामा नये. जेव्हा जेव्हा अन्न प्राप्त होईल तेव्हा तेव्हा ईश्वराला धन्यवाद द्यावा व सदैव अदीन भावाने राहावे ही शिकवण यावरून मिळते. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे सोम ! मा=माम् । मथितम् । अग्निं न=अग्निमिव । संदिदीपः=संदीपय । पुनः । प्रचक्षय=प्रदर्शय=नेत्रशक्तिं देहि । पुनः । नोऽस्मान् । वस्यसः=अतिशयेन वसुमतः । कृणुहि=कुरु । हे सोम ! अथाधुना हि । ते=तव । मदे=आनन्दे । आ मन्ये=ईश्वरीयभावस्य मननं करोमि । रेवान् इव । अहमपि । पुष्टिम् । अच्छ प्रचर=प्रचरेयम् ॥६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे सोम ! (मा) मुझको (मथितम्) दो लकड़ियों से मथ कर निकाले हुए (अग्निं+न) अग्नि के समान (संदिदीपः) संदीप्त कर जगत् में अग्नि के समान चमकीला और तेजस्वी बना । (प्रचक्षय) दिखला अर्थात् नयन में देखने की पूरी शक्ति दे और (नः) हमको (वस्यसः) अतिशय धनिक (कृणुहि) बना (अथ+हि) इस समय (ते+मदे) तेरे आनन्द में (अमन्ये) ईश्वरीय भाव का मनन करता हूँ या उसकी स्तुति करता हूँ । मैं (रेवान्+इव) धनसम्पन्न पुरुष के समान (अच्छ) अच्छे प्रकार (पुष्टिम्) पोषण और विश्राम (प्रचर) प्राप्त करूँ, या मुझको वह अन्न पुष्टिप्रद हो ॥६ ॥

    भावार्थ

    वैसा अन्न सेवन करे, जिससे वह अग्निवत् तेजस्वी भासित हो, नेत्र की शक्ति बढ़े और वह दिन-२ धनवान् ही होता जाए अर्थात् मद्यादि पान कर लम्पटता द्यूतादि कुकर्म में धनव्यय न करे । जब-२ अन्न प्राप्त हो, तब-२ ईश्वर को धन्यवाद दे और सदा अदीनभाव रहे । ये सब शिक्षाएँ इससे मिलती हैं ॥६ ॥

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    विषय

    विद्वान् सोम से ज्ञान की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे ( सोम ) अन्न ओषधि रसवत् वीर्य एवं विद्वन् ! वीर ! तू ( मथितं अग्निं न ) मथित अग्नि के समान ( मा सं दिदीपः ) मुझे अच्छी प्रकार तेजस्वी कर। ( प्र चक्षय ) उत्तम ज्ञान का दर्शन करा। ( नः वस्यसः कृणुहि ) हमें उत्तम धन सम्पन्न कर। ( अथ ) और ( ते हि मदः मन्ये ) मैं स्वीकार करता हूं कि तेरा ही यह सब सुख, हर्ष है। तू ( रेवान् इव ) धनसम्पन्न के समान ( अच्छ पुष्टिम् प्र चर ) उत्तम पुष्टि प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    विषय

    दीप्ति उल्ला व पुष्टि

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (मा) = मुझे (मथितं अग्निं न) = मथी हुई अग्नि के समान (सन्दिदीपः) = संदीप्त कर, जैसे मथित अग्नि चमक उठती है, इसी प्रकार हम तेरे से चमक उठें। (प्रचक्षय) = तू हमें प्रकृष्ट चक्षुवाला बना। हमारी दर्शन शक्ति को बढ़ा। (नः) = हमें (वस्यसः) = प्रशस्त वसुओंवाला (कृणुहि) = कर । [२] (अथा) = अब हे सोम ! (मदे) = मद व उल्लास के निमित्त मैं (हि) = निश्चय से (ते आमन्ये) = तेरा स्तवन करता हूँ। (रेवान् इव) = तू सब धनोंवाले की तरह होता हुआ (पुष्टिम् अच्छ) = पोषण की ओर प्रचर-गतिवाला हो। हे सोम ! तू हमारे अंग-प्रत्यंग को पुष्ट करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमें दीप्त प्रकृष्ट चक्षुवाला - प्रशस्त वसुओंवाला - उल्लासमय व पुष्ट करे।

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    मन्त्रार्थ

    (सोम) हे सोम ! तू (मथितम्-अग्नि) मथित अग्नि की भाँति (मा-संदिदीप) सम्यक् सन्दीप्त कर अतः (प्रचक्षय) मुझे सुख का दर्शन करा (नः-वस्यसः कृणुहि) हमें अतिशय से उत्तम धन वाले बना (अथ हि) अनन्तर ही (ते मद-आ मन्ये) तेरे हर्ष मैं मैं तेरी स्तुति: करता हूँ "मन्यते अर्चतिकर्मा" (निघ० २।६) (रेवान् इव पुष्टिम्-अच्छ प्रचर) तू धनवान् साक्षात् हो पुष्टियों के पोषण के अर्थ मुझे प्राप्त रहे ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)

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