ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 13
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - सोमः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं सो॑म पि॒तृभि॑: संविदा॒नोऽनु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तन्थ । तस्मै॑ त इन्दो ह॒विषा॑ विधेम व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सो॒म॒ । पि॒तृऽभिः॑ । स॒म्ऽवि॒दा॒नः । अनु॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । त॒त॒न्थ॒ । तस्मै॑ । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑यः । र॒यी॒णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सोम पितृभि: संविदानोऽनु द्यावापृथिवी आ ततन्थ । तस्मै त इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । सोम । पितृऽभिः । सम्ऽविदानः । अनु । द्यावापृथिवी इति । आ । ततन्थ । तस्मै । ते । इन्दो इति । हविषा । विधेम । वयम् । स्याम । पतयः । रयीणाम् ॥ ८.४८.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O soma, immortal joy and inspiration of existence, known well and abiding by the ancients and pranic energies of nature, you pervade over heaven and earth. O soma, peace, power and joy of the world, we pray to you for strength and joy with homage and oblations so that we may be masters, protectors and promoters of the wealths, honours and excellences of life.
मराठी (1)
भावार्थ
वेदाची एक शैली आहे की, भौतिक पदार्थांचे वर्णन करून त्याच नावाने शेवटी ईश्वराची प्रार्थना केली जाते. त्यासाठी या तीन मंत्रांनी ईश्वराच्या प्रार्थनेचे विधान आहे. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
अतः परं सोमवाच्येश्वरप्रार्थना ।
पदार्थः
हे सोम=सर्वप्रिय परमदेव ! त्वम् । पितृभिः=रक्षकैः परमाणुभिः सह । संविदानः=संगच्छमानः । अनु=कर्मेण । द्यावापृथिवी । आततन्थ=विस्तारितवान् । अन्यत्स्पष्टम् ॥१३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
यहाँ से सोमवाच्येश्वर प्रार्थना कही जाती है ।
पदार्थ
(सोम) हे सर्वप्रिय देव महेश ! (पितृभिः) परस्पर रक्षक परमाणुओं के साथ (संविदानः) विद्यमान (त्वम्) तू (अनु) क्रमशः (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक प्रभृति को (आततन्थ) बनाया करता है । (इन्दो) हे जगदाह्लादक ईश ! (तस्मै+ते) उस तेरी (हविषा) हृदय से और नाना स्तोत्रादिकों से (विधेम) सेवा करें । आपकी कृपा से (वयम्+रयीणाम्+पतयः+स्याम) हम सब धनों के अधिपति होवें ॥१३ ॥
भावार्थ
वेद की एक यह रीति है कि भौतिक पदार्थों का वर्णन कर उसी नाम से अन्त में ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, अतः अगले तीन मन्त्रों से ईश्वर की प्रार्थना का विधान है ॥१३ ॥
विषय
सोम, व्यापक प्रभु की परिचर्या। (
भावार्थ
हे ( सोम ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वा ) तू ( पितृभिः ) पालक शासक जनों से ( संविदानः ) संमति करता हुआ, ( द्यावापृथिवी ) सूर्य पृथिवीवत् स्त्री पुरुष, गुरु शिष्य और शास्य शासक दोनों वर्गों को ( अनु आ ततन्थ ) अपने वश करता है, हे ( इन्दो ) ऐश्वर्यवन् ! ( वयं तस्मै ते ) हम उस तेरे लिये उत्तम ( हविषा ) अन्न वचनादि से (विधेम) सेवा करें (वयं रयीणां पतयः स्याम ) हम देह, प्राण, धनैश्वर्यादि के स्वामी हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
द्यावापृथिवी का विस्तार
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्य! (त्वं) = तू (पितृभिः) = इन रक्षा करनेवाले लोगों के साथ (संविदानः) = ऐकमत्य को प्राप्त हुआ हुआ संगत हुआ हुआ (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर को (अनु आततन्थ) = अनुकूलता से विस्तृत करनेवाला हो। तू मस्तिष्क को दीप्त व शरीर को सुदृढ़ बना । [२] हे (इन्दो) = सोम ! (तस्मै ते) = उस तेरे लिए (हविषा विधेम) = त्यागपूर्वक अदन के साथ प्रभुपूजन करें । त्यागपूर्वक अदन व प्रभुपूजन करते हुए हम तेरा रक्षण करें और (वयं) = हम (रयीणां) = सब आवश्यक ऐश्वर्यों के (पतयः स्याम) = स्वामी हों।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम मस्तिष्क व शरीर का ठीक विकास करता है- आवश्यक ऐश्वर्यों को प्राप्त कराता है।
मन्त्रार्थ
(सोम) हे सोम! (त्वं पितृभिः संविदानः) तू प्राणों के साथ संयुक्त दुआ सात्म्य को प्राप्त दुआ (द्यावापृथिवीततन्थ) मेरे ऊपर नीचे के प्रतिष्ठानों को "प्रतिष्ठे वै द्यावापृथिवी" (कौ० ३।८) विकसित करता है (इन्दो तस्मै ते हविषा विधेम) हे सोम उस तेरे लिए-तेरे सेवनार्थ हाव-भाव उत्साह प्रदर्शित करते हैं (वयं रयीणां पतयः स्याम) तेरे पान से हम विविध ऐश्वर्यगुणों के स्वामी होवें ॥१३॥
विशेष
ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)
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