ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 17
इन्द्रा॑य पवते॒ मद॒: सोमो॑ म॒रुत्व॑ते सु॒तः । स॒हस्र॑धारो॒ अत्यव्य॑मर्षति॒ तमी॑ मृजन्त्या॒यव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । प॒व॒ते॒ । मदः॑ । सोमः॑ । म॒रुत्व॑ते । सु॒तः । स॒हस्र॑ऽधारः । अति॑ । अव्य॑म् । अ॒र्ष॒ति॒ । तम् । ई॒म् इति॑ । मृ॒ज॒न्ति॒ । आ॒यवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय पवते मद: सोमो मरुत्वते सुतः । सहस्रधारो अत्यव्यमर्षति तमी मृजन्त्यायव: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । पवते । मदः । सोमः । मरुत्वते । सुतः । सहस्रऽधारः । अति । अव्यम् । अर्षति । तम् । ईम् इति । मृजन्ति । आयवः ॥ ९.१०७.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 17
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मरुत्वते, सुतः) कर्मयोगिना साक्षात्कृतः (सोमः) सर्वोत्पादकः परमात्मा (मदः) आह्लादको भूत्वा (इन्द्राय) कर्मयोगिने (पवते) पवित्रतां प्रददाति (सहस्रधारः) विविधशक्तिमान् परमात्मा (अति, अव्यं) अतिरक्षां (अर्षति) प्राप्नोति (तमीम्) तं च (आयवः) कर्मयोगिनः (मृजन्ति) साक्षात्कुर्वन्ति ॥१७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मरुत्वते) कर्मयोगी द्वारा (सुतः) साक्षात्कार किया हुआ (सोमः) सर्वोत्पादक परमात्मा (मदः) आह्लादक बनकर (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (पवते) पवित्रता प्रदान करता है, (सहस्रधारः) अनन्तशक्तियुक्त परमात्मा (अति, अव्यम्) अत्यन्त रक्षा को (अर्षति) प्राप्त होता अर्थात् करता है (तम्) उक्त परमात्मा को (आयवः) कर्मयोगी लोग (मृजन्ति) साक्षात्कार करते हैं ॥१७॥
भावार्थ
यहाँ भी कर्मयोगी उपलक्षणमात्र है, वास्तव में सब प्रकार के योगियों का यहाँ ग्रहण है कि वह परमात्मा का साक्षात्कार करके सुरक्षित रहकर आह्लादक तथा सुखकारी पदार्थों का उपभोग करते हैं ॥१७॥
विषय
जितेन्द्रियता- प्राणसाधना व क्रियाशीलता
पदार्थ
(सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (सोमः) = सोम-वीर्य (मरुत्वते) = प्राणों की साधना करनेवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मदः) = उल्लासजनक होता हुआ (पवते) = प्राप्त होता है । प्राणसाधना व इस साधना द्वारा प्राप्त जितेन्द्रियता सोमरक्षण का साधन बनती है। (सहस्त्रधारः) = ये हजारों प्रकार से धारण करनेवाला सोम (अव्यम्) = रक्षकों में उत्तम पुरुष को (अति अर्षति) = अतिशयेन प्राप्त होता है । (तम्) = उस सोम को (ईम्) = निश्चय से (आयवः) = गतिशील पुरुष (मृजन्ति) = शुद्ध कर पाते हैं, इसे वासनाओं के उबाल से मलिन नहीं होने देते। क्रियाशीलता से सोम पवित्र बना रहता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का संरक्षण 'जितेन्द्रिय-प्राणसाधक-क्रियाशील' पुरुष ही कर पाते हैं।
विषय
मेघवत् आनन्दवर्षी प्रभु।
भावार्थ
(मदः सोमः) आनन्दमय, सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक प्रभु (सुतः) उपासित होकर (मरुत्वते इन्द्राय) नाना प्राणों के स्वामी जीव के लिये (सहस्र-धारः) सहस्रों धारा वाले मेघ के समान अनेक सुख, शान्ति का दाता होकर (पवते) उस पर कृपा करता है। (अव्यम् अति अर्षति) इस पार्थिव और प्राणमय आवरण से पार कर अन्तरात्मा में प्रकट होता है, (आयवः) इस तक पहुंचने वाले जन (तम् ईम् मृजन्ति) उसी को शोध लगाते हैं, उसी का परिष्कार करते हैं, उसी को वाणियों, और स्तुतियों से अलंकृत करते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, joy of existence, invoked and realised, flows purifying and consecrating for Indra, the vibrant soul, in a thousand streams of ecstasy and overflows the heart and soul of the devotee. That Spirit of the universe, intelligent dedicated yogis realise, exalt and glorify.
मराठी (1)
भावार्थ
येथेही कर्मयोगी उपलक्षण मात्र आहे. वास्तविक सर्व प्रकारच्या योग्यांचे ग्रहण केलेले आहे व ते परमेश्वराचा साक्षात्कार करून सुरक्षित राहून आल्हादक व सुखकारक पदार्थांचा उपयोग करतात. ॥१७॥
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