ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 20
उ॒ताहं नक्त॑मु॒त सो॑म ते॒ दिवा॑ स॒ख्याय॑ बभ्र॒ ऊध॑नि । घृ॒णा तप॑न्त॒मति॒ सूर्यं॑ प॒रः श॑कु॒ना इ॑व पप्तिम ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । अ॒हम् । नक्त॑म् । उ॒त । सो॒म॒ । ते॒ । दिवा॑ । स॒ख्याय॑ । ब॒भ्रो॒ इति॑ । ऊध॑नि । घृ॒णा । तप॑न्तम् । अति॑ । सूर्य॑म् । प॒रः । श॒कु॒नाःऽइ॑व । प॒प्ति॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उताहं नक्तमुत सोम ते दिवा सख्याय बभ्र ऊधनि । घृणा तपन्तमति सूर्यं परः शकुना इव पप्तिम ॥
स्वर रहित पद पाठउत । अहम् । नक्तम् । उत । सोम । ते । दिवा । सख्याय । बभ्रो इति । ऊधनि । घृणा । तपन्तम् । अति । सूर्यम् । परः । शकुनाःऽइव । पप्तिम ॥ ९.१०७.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 20
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बभ्रो) हे सर्वाश्रय परमात्मन् ! (ते, सख्याय) तव मैत्र्यै (दिवा) दिने (उत) अथ (नक्तं) रात्रौ (सोम) हे सर्वोत्पादक ! (ते, ऊधनि) तव समीपे (घृणा, तपन्तं) स्वदीप्त्या प्रकाशमानं (अति, सूर्यं) स्वप्रकाशेन सूर्यमप्यतिक्रामन्तं (परः) परमं भवन्तम्प्राप्नोमि इतीच्छावानहं (शकुना, इव) पक्षिण इव (पप्तिम) गतिशीलो भवेयम् ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बभ्रो) हे सर्वाधिकरण परमात्मन् ! (ते, सख्याय) तुम्हारी मैत्री के लिये (दिवा) दिन (उत) अथवा (नक्तम्) रात्रि (सोम) हे सोम ! (ते, ऊधनि) तुम्हारे समीप (घृणा, तपन्तम्) जो तुम अपनी दीप्ति से देदीप्यमान हो (अति, सूर्यम्) अपने प्रकाश से सूर्य को भी अतिक्रमण करनेवाले हो, तथा (परः) सर्वोपरि हो, उक्त गुणसम्पन्न आपको (शकुना, इव) शकुन पक्षी के समान (पप्तिम) प्राप्त होने के लिये गतिशील बनूँ ॥२०॥
भावार्थ
“बिभर्तीति बभ्रुः”=जो सबको धारण करनेवाला परमात्मा है, उसी की उपासना करनी योग्य है ॥२०॥
विषय
सोम की मित्रता के लिये
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्यशक्ते! (अहम्) = मैं (उत नक्तम्) = चाहे रात हो, (उत दिवा) = चाहे दिन हो, अर्थात् सदा (ते सख्याय) = तेरी मित्रता के लिये (ऊधनि) = वेदवाणी रूप धेनु के ज्ञानादुग्धाधार में निवास करनेवाला बनूँ। सारे अतिरिक्त समय को ज्ञान प्राप्ति में बिताना ही सोमरक्षण का साधन बनता है । हे (बभ्रो) = हमारा भरण करनेवाले सोम ! (घृणा) = दीप्ति से (तपन्तं) = चमकते हुए (सूर्यं) = इस ज्ञानसूर्य को (अति पप्तिम) = अतिशयेन हम प्राप्त हों। उस ज्ञान सूर्य को हम प्राप्त हों जो (परः) = [परमस्थानास्थितम् सा०] मस्तिष्क रूप द्युलोक में स्थित है हम (शकुनाः इव) = आकाशमार्ग से जानेवाले पक्षियों के समान हों, पार्थिव भोगों से ऊपर उठें। यह पार्थिव भोगों से ऊपर उठना ही हमें शक्तिशाली बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ-दिन-रात हम अतिरिक्त समय को स्वाध्याय में बितायें। यह स्वाध्याय ही हमें सोमरक्षण में समर्थ करेगा। यह रक्षित सोम हमारे मस्तिष्क रूप द्युलोक में ज्ञान सूर्य के उदय का कारण बनेगा।
विषय
प्रिय परमात्मा से मोक्ष की याचना।
भावार्थ
हे (सोम) मेरी आत्मा के तुल्य परात्मन् ! (अहम्) मैं (नक्तम् उत दिवा) रात और दिन, (सख्या) मित्रभाव बनाने के लिये (ते ऊधनि) तेरे समीप में ही रहूँ। हे (बभ्रो) सबके पालन पोषण करने हारे ! (घृणा) दीप्ति से (तपन्तं) तपते (सूर्यम्) सूर्य को देख (शकुनाः इव) ऊपर उठकर उन्नत मार्ग से जाने वाले पक्षियों के तुल्य हम (अति पप्तिम) सब बन्धनों और कष्टों से पार पहुंच जावें। इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And I, O Soma, bearer and sustainer, yearn day and night to abide in your presence for the sake of your love and friendship, and pray that we may rise, flying like birds beyond the sun blazing with its refulgence, and reach you, the Ultimate.
मराठी (1)
भावार्थ
‘‘बिभवतीति बभ्रु:’’ जो सर्वांना धारण करणारा परमात्मा आहे त्याचीच उपासना करणे योग्य आहे. ॥२०॥
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