यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 7
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
31
त्रीणि॑ श॒ता त्री स॒हस्रा॑ण्य॒ग्निं त्रि॒ꣳशच्च॑ दे॒वा नव॑ चासपर्यन्।औक्ष॑न् घृ॒तैरस्तृ॑णन् ब॒र्हिर॑स्मा॒ऽआदिद्धोता॑रं॒ न्यसादयन्त॥७॥
स्वर सहित पद पाठत्रीणि॑। श॒ता। त्री। स॒हस्रा॑णि। अ॒ग्निम्। त्रि॒ꣳशत्। च॒। दे॒वाः। नव॑। च॒। अ॒स॒प॒र्य॒न् ॥ औक्ष॑न। घृ॒तैः। अस्तृ॑णन्। ब॒र्हिः। अ॒स्मै॒। आत्। इत्। होता॑रम्। नि। अ॒सा॒द॒य॒न्त॒ ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्निन्त्रिँशच्च देवा नव चासपर्यन् । औक्षन्घृतैरस्तृणन्बर्हिरस्माऽआदिद्धोतारन्न्यसादयन्त ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्रीणि। शता। त्री। सहस्राणि। अग्निम्। त्रिꣳशत्। च। देवाः। नव। च। असपर्यन्॥ औक्षन। घृतैः। अस्तृणन्। बर्हिः। अस्मै। आत्। इत्। होतारम्। नि। असादयन्त॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
शिल्पिनो विद्वांसः किं कुर्युरित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा त्रिंशच्च नव च देवास्त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्निमसपर्यन्, घृतैरौक्षन् बर्हिरस्तृणन्नस्मै होतारमादिन्न्यसादयन्त तथा यूयमपि कुरुत॥७॥
पदार्थः
(त्रीणि) (शता) शतानि (त्री) त्रीणि (सहस्राणि) सहस्रक्रोशमार्गम् (अग्निम्) (त्रिंशत्) पृथिव्यादीन् (च) (देवाः) विद्वांसः (नव) (च) (असपर्यन्) सेवेरन् (औक्षन्) सिञ्चरेन् (घृतैः) घृतादिभिरुदकेन वा (अस्तृणन्) आच्छादयन्तु (बर्हिः) अन्तरक्षिम् (अस्मै) अग्नये (आत्) अभितः (इत्) एव (होतारम्) हवनकर्त्तारम् (नि) नितराम् (असादयन्त) स्थापयन्तु॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये शिल्पिनो विद्वांसोऽग्निजलादिपदार्थान् यानेषु संप्रयोज्योत्तममध्यमनिकृष्टवेगैरनेकानि शतानि सहस्राणि क्रोशान्मार्गं गन्तुं शक्नुयुस्तेऽन्तरिक्षेऽपि यातुं समर्था जायन्ते॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
कारीगर विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (त्रिंशत्) पृथिवी आदि तीस (च) और (नव) नव प्रकार के (च) ये सब और (देवाः) विद्वान् लोग (त्रीणि) तीन (शता) सौ (त्री) तीन (सहस्राणि) हजार कोश मार्ग में (अग्निम्) अग्नि को (असपर्य्यन्) सेवन करें, (घृतैः) घी वा जलों से (औक्षन्) सीचें, (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (अस्तृणन्) आच्छादित करें, (अस्मै) इस अग्नि के अर्थ (होतारम्) हवन करनेवाले को (आत्, इत्) सब ओर से ही (नि, असादयन्त) निरन्तर स्थापित करें, वैसे तुम लोग भी करो॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शिल्पी विद्वान् लोग अग्नि, जलादि पदार्थों को यानों में संयुक्त कर उत्तम, मध्यम, निकृष्ट वेगों से अनेक सैकड़ो, हजारों कोस मार्ग को जा सकें, वे आकाश में भी जा-आ सकते हैं॥७॥
विषय
३३३९ देवों का रहस्य ।
भावार्थ
( त्रीणि शता, त्री सहस्राणि, त्रिंशत् च नव च) तीन सहस्र, तीन सौ तीस और ९ अर्थात् ३३३९ इतने (देवाः) विजयशील सैनिक ( अग्निम् ) अपने अग्रणी सेनापति की (असपर्यन्) आज्ञा मानें । वे उसको (घृतैः) जलों से ( औक्षन् ) अभिषेक करें और (अस्मै ) उसके लिये (बर्हिः) बड़ा, वृद्धिसूचक आसन, पद भी ( अस्तृणन् ) प्रदान करें । और ( आत् इत् ) उसके पश्चात् उसको ही ( होतारम् ) सबका होता, आज्ञापक एवं वेतन और अधिकार देने वाला बना कर (नि असादयन्त) मुख्य आसन पर बैठावें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः । विश्वेदेवाः विद्वांसः । स्वराट् पंक्तिः । पंचमः ॥
विषय
देवों की अनुकूलता
पदार्थ
१. (त्रीणि शता) = तीन सौ (त्री सहस्राणि) = तीन हज़ार (त्रिंशत् च) = और तीस (नव च) = और नौ (देवा:) = देव, अर्थात् कुल ३३३९ देव (अग्निम्) = इस उन्नति पथ पर चलनेवाले की (असपर्यन्) = पूजा करते हैं, अर्थात् सब देव अग्नि के अनुकूल होते हैं। इनकी अनुकूलता का ही परिणाम होता है कि यह अग्नि पूर्ण स्वस्थ बन पाता है। शतपथ ११।६।३। ४-५ में कहा है कि ('कतमे वै देवा: ? त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च सहस्त्रेति । स याज्ञवल्क्यो होवाच महिमान एवैषां देवानां एते त्रयस्त्रिंशत्त्वेव देवा इति') = देव कितने हैं? तीन और तीन सौ तीन और तीन हज़ार, अर्थात् तीन हजार तीन सौ छह । इसपर याज्ञवल्क्य कहते हैं कि देवता तो ३३ ही हैं यह ३३०६ या ३३३९ संख्या तो उनकी महिमा की सूचनमात्र है। वस्तुत: द्यौः, अन्तरिक्ष व पृथिवी, अर्थात् उनमें स्थित ३३ देवों की शान्ति व अनुकूलता पर ही मनुष्य का शारीरिक, मानस व मस्तिष्क का स्वास्थ्य निर्भर करता है। २. ये अनुकूल बने हुए देव ही इस (अग्नि) = उन्नतिशील पुरुष को (घृतैः) = मलों के क्षरण = दूरीकरण तथा दीप्ति से (औक्षन्) = सिक्त करते हैं। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन व स्वस्थ मस्तिष्क तो होते ही हैं। देवों की अनुकूलता में शरीर का स्वास्थ्य प्राप्त होता है, मन भी राग-द्वेष के मैल से रहित हो जाता है। इन मलों का दूरीकरण होकर मन प्रसादमय हो उठता है। मस्तिष्क भी स्वस्थ होता है। इन देवों ने शरीर में स्वास्थ्य, मन में नैर्मल्य तथा मस्तिष्क में दीप्ति को प्राप्त कराया है। ३. इस अग्नि के लिए इन देवों ने (बर्हिः) = जिसमें से वासनाओं का उद्बर्हण [विनाश] कर दिया गया है ऐसे हृदयासन को (अस्तृणन्) = बिछाया है। चतुर्थ मन्त्र में उस होता - सर्वप्रदाता प्रभु से हृदय में आसीन होने के लिए प्रार्थना की गई थी। अब सब प्रकार से तैयारी करके (आत् इत्) = ठीक समय बाद (होतारम्) = उस स्वास्थ्य, नैर्मल्य व दीप्ति को देनेवाले प्रभु को (न्यसादयन्त) = इस पवित्र हृदयासन पर आसीन करते हैं। देवों की अनुकूलता हमें महादेव का भी प्रिय बना सकती है। प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि विश्वामित्र' है, सभी के साथ स्नेह करनेवाला है। यह किसी से द्वेष नहीं करता और इसी कारण यह प्रभु का प्रिय बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- सब प्राकृतिक देवों की अनुकूलता होने पर हमें स्वास्थ्य, नैर्मल्य व दीप्ति प्राप्त होती है और हमारा हृदय प्रभु का आसन बनता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे कारागीर अग्नी, जल इत्यादी पदार्थांना यानांमध्ये संयुक्त करून कमी, मध्यम व अधिक वेगपूर्ण रीतीने शेकडो, हजारो कोसांचा (मैलांचा) मार्ग आक्रमू शकतात ते आकाशात ही जा ये करू शकतात.
विषय
कारागीर आणि विद्वानांनी (तंत्रज्ञांनी) काय करावे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ -हे मनुष्यांनो, (त्रिंशत्) पृथ्वी आदी तीस (लोक, ग्रह, नक्षत्र आदीनां) (च) आणि (नव) नऊ प्रकारच्या (च) या सर्वांनी तसेच (देवाः) विद्वानांनी आणि (त्रीणि) तीन (शता) शे (त्री) तान (सहस्राणि) हजार कोसाच्या मार्गाला (पृथ्वी आकाश यातील दूर दूरस्थ प्रदेशाला, लोकाला (अग्निम्) अग्नीचा (असपर्यन्) उपयोग घेतला आहे, (त्या अग्नीने निर्मित वाहनाने तीनशे वा तीन हजार दूरीवरील म्हणजे दूर-दूर आकाशातील लोकापर्यंत प्रवास केला आहे) तसा यत्न हे मनुष्यांनो, तुम्हीही करा) (त्या विद्वान वैज्ञानिकांनी) (घृतैः) तूप अथवा पाण्याने (पृथ्वी, अंतरिक्षाला) (औक्षन्) सिंचीत केले आहे (बर्हिः) अंतरिक्षाला आच्छादित केले आहे. (अस्मै) या अग्नीच्या (होतारम्) हवन करणार्यासाठी (आत्, इत्) सर्वतः उपयुक्त व्हावा (नि, सादयन्त) निश्वर अग्नीचा त्यानी जसा उपयोग केला, तसा तुम्हीही करा. ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. शिल्पी, तंत्रज्ञ आदी कारागीर, अग्नी, जल आदी पदार्थांचा यान-वाहनांमधे उपयोग करून उत्तम, मध्यम आणि निम्न या तीन प्रकारच्या वेगाने शेकडो, हजारो कोसा पर्यंत जाऊ शकतात. ते अग्नी, जल आदीद्वारे आकाशातही जा-ये करू शकतात ॥7॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The skilled mechanics should utilise fire in making automobiles travel for 3339 miles. Fire and water should be employed in making them cover the atmosphere. For this fire, the sacrificer should constantly be seated, to perform Havan.
Meaning
Three hundred, three thousand and thirty three divinities of nature and nine serve this universal energy of agni, feed it with holy fuels of ghrita and waters, spread the holy grass for its seat on earth and in the sky and kindle this high-priest of universal yajna to move all round across the spaces.
Translation
Three thousand, three hundred and thirty-nine, i. e. countless enlightened ones pay homage to the fire divine. They profusely present loving devotion to Him and enshrine Him in their worshipful hearts and make Him their invoking priest. (1)
Notes
Trīņi satā trī sahasrāņi trimśat ca nava ca, three thousand three hundred and thirty nine (devas). In the Vaiśvadeva Nivid, i. e. the Formula for Invitation to All gods, the number of devas is said to be 3 times 11; 33; 303 and 3003, the total being 3339. Ghṛtaiḥ, with melted butter; also, loving devotion. Asmai barhiḥ astran, they spread sacred grass for him to sit upon; also, they enshrine Him in their worshipful hearts. Hotā, invoking priest.
बंगाली (1)
विषय
শিল্পিনো বিদ্বাংসঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
শিল্পী বিদ্বান্ কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (ত্রিংশৎ) পৃথিবী আদি ত্রিশ (চ) এবং (নব) নব প্রকারের (চ) এইগুলি সব এবং (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (ত্রীণি) তিন (শতা) শত (ত্রী) তিন (সহস্রাণি) হাজার ক্রোশ মার্গে (অগ্নিম্) অগ্নিকে (অসপর্য়্যন্) সেবন করিবে, (ঘৃতৈঃ) ঘৃত বা জল দ্বারা (ঔক্ষণ্) সিঞ্চন করিবে, (বর্হিঃ) অন্তরিক্ষকে (অস্তৃনন্) আচ্ছাদিত করিবে, (অস্মৈ) এই অগ্নির জন্য (হোতারম্) হবনকারীকে (আৎ ইৎ) সব দিক দিয়াই (নি, অসাদয়ন্ত) নিরন্তর স্থাপিত করিবে সেইরূপ তোমরাও কর ॥ ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব বিদ্বান্গণ অগ্নি, জলাদি পদার্থকে যানসকলে সংযুক্ত করিয়া উত্তম, মধ্যম, নিকৃষ্ট বেগ দ্বারা অনেক শত শত, সহস্র সহস্র ক্রোশ মার্গ যাইতে পারে তাহারা আকাশেও যাতায়াত করিতে পারে ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ত্রীণি॑ শ॒তা ত্রী স॒হস্রা॑ণ্য॒গ্নিং ত্রি॒ꣳশচ্চ॑ দে॒বা নব॑ চাসপর্য়ন্ ।
ঔক্ষ॑ন্ ঘৃ॒তৈরস্তৃ॑ণন্ ব॒র্হির॑স্মা॒ऽআদিদ্ধোতা॑রং॒ ন্য᳖সাদয়ন্ত ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ত্রীণি শতেত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । স্বরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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