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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 82
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः
    23

    यस्या॒यं विश्व॒ऽआर्यो॒ दासः॑ शेवधि॒पाऽअ॒रिः।ति॒रश्चि॑द॒र्य्ये रु॒शमे॒ पवी॑रवि॒ तुभ्येत्सोऽअ॑ज्यते र॒यिः॥८२॥ति॒रश्चि॑द॒र्य्ये रु॒शमे॒ पवी॑रवि॒ तुभ्येत्सोऽअ॑ज्यते र॒यिः॥८२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्यः॑ अ॒यम्। विश्वः॑। आर्य्यः॑। दासः॑। शे॒व॒धि॒पा इति॑ शेवधि॒ऽपाः। अ॒रिः ॥ ति॒रः। चि॒त्। अ॒र्य्ये। रु॒शमे॑। पवी॑रवि। तुभ्य॑। इत्। सः। अ॒ज्य॒ते॒। र॒यिः ॥८२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यायँविश्वऽआर्या दासः शेवधिपाऽअरिः । तिरश्चिदर्ये रुशमे परीरवि तुभ्येत्सोऽअज्यते रयिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्यः अयम्। विश्वः। आर्य्यः। दासः। शेवधिपा इति शेवधिऽपाः। अरिः॥ तिरः। चित्। अर्य्ये। रुशमे। पवीरवि। तुभ्य। इत्। सः। अज्यते। रयिः॥८२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 82
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजधर्म्मविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे राजन्! यस्य तवायं विश्व आर्य्यो दासः शेवधिपा अरिः पवीरवि रुशमेऽर्य्ये तिरश्चित् तुभ्येत्स त्वं रयिरज्यते॥८२॥

    पदार्थः

    (यस्य) (अयम्) (विश्वः) सर्वः (आर्य्यः) धर्म्यगुणकर्मस्वभावः (दासः) सेवकः (शेवधिपाः) यः शेवधिं निधिं पाति रक्षति धर्मादिकार्य्ये करे च न व्येति स शेवधिपा। निधिः शेवधिरिति यास्कः॥ (निरु॰२।४) (अरिः) शत्रुः (तिरः) अन्तर्धानं गतः (चित्) अपि (अर्य्ये) धनस्वामिनि वैश्यादौ (रुशमे) हिंसके (पवीरवि) यो धनादिरक्षायै पवीरं शस्त्रं वाति प्राप्नोति तस्मिन् (तुभ्य) तुभ्यम्। अत्र वा छान्दसो वर्णलोपः (इत्) एव (सः) (अज्यते) प्राप्यते (रयिः) धनमिव॥८२॥

    भावार्थः

    यस्य राज्ञः सर्व आर्य्या राज्यरक्षकाः सेवकाः सन्ति, धनादिकरस्यादाता च शत्रुस्तस्मादपि येन भवता धनादिकरो गृह्यते स सर्वोत्तमश्रीः स्यात्॥८२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजधर्म विषय को कहते हैं॥

    पदार्थ

    हे राजन्! (यस्य) जिस आपको (अयम्) यह (विश्वः) सब (आर्य्यः) धर्मयुक्त गुण, कर्म स्वभाववाला पुरुष (दासः) सेवकवत् आज्ञाकारी (शेवधिपाः) धरोहर धन का रक्षक अर्थात् धर्मादि कार्य वा राजकर देने में व्यय करनेहारा जन (अरिः) और शत्रु (पवीरवि) धनादि की रक्षा के लिये शस्त्र को प्राप्त होनेवाला (रुशमे) हिंसक व्यवहार वा (अर्य्ये) धनस्वामी वैश्य आदि के निमित्त (तिरः) छिपनेवाला (चित्) भी (तुभ्य) आपके लिये (इत्) निश्चय से है (सः) वह आप (रयिः) धन के समान (अज्यते) प्राप्त होते हैं॥८२॥

    भावार्थ

    जिस राजा के सब आर्य राज्यरक्षक और आज्ञापालक हैं, जो धनादि कर का अदाता शत्रु उससे भी जिन आपने धनादि कर ग्रहण किया, वे आप सबसे उत्तम शोभावाले हों॥८२॥

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    भावार्थ

    (विश्वः आर्यः) समस्त आर्य, श्रेष्ठ पुरुष (यस्य) जिसका (दासः) दास, कर्मकर, भृत्य के समान आज्ञापालक है और (शेवधिपाः)खजाने को बचाकर रखने वाला, कंजूस पुरुष ही जिसका (अरिः) शत्रु के समान प्रतिद्वन्द्वी है और ( अर्ये ) वैश्य, धनस्वामी (रुशमे ) हिंसाकारी और (पवीरवि) शस्त्रधारी पुरुष के पास भी ( तिरः चित् ) छिपा हुआ समस्त धन है, (सः रयिः) वह समस्त ऐश्वर्य भी हे राजन् ! (तुभ्य उत् भज्यते) तेरे ही लिये खोल कर रख दिया जाता है अर्थात् सब श्रेष्ठ पुरुष तेरे सेवक हैं, उनका सब धन तेरे ही लिये है, अपना धन बचाकर रखने वाला तेरा शत्रु है, वैश्यों और शत्रुहिंसक क्षत्रियों के पास के सभी धन राजा के लिये ही है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः । विश्वेदेवाः । निचृत् सतोबृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    सबमें प्रभु की ज्योति

    पदार्थ

    १. मेधातिथि 'विपश्चित्' बनकर अनुभव करता है कि प्रभु तो वे हैं (यस्य) = जिसका (अयम् विश्वः) = यह सारा संसार है, चाहे वे (आर्य:) = ब्राह्मण हैं [आर्यो ब्राह्मणकुमारयोः] (दासः) = शूद्र हैं, (शेवधिपा) = खज़ानों के रक्षक वैश्य हैं अथवा (अरि:) [to attack] = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले क्षत्रिय हैं। सारा समाज चार भागों में बँटा है। यह सारा समाज उस प्रभु का प्रिय है। 'ब्राह्मण' ही प्रभु के विशेष प्यारें हों ऐसी बात नहीं। वे प्रभु सर्वत्र समवस्थित हैं, सबके अन्दर उनका निवास है। मेधातिथि का दृष्टिकोण यही बनता है कि सबमें प्रभु की सत्ता को अनुभव करना ही प्रभु का सच्चा उपासक बनना है । २. 'अर्य'= पुरुष वह है जो [अर्य:- स्वामी] अपनी इन्द्रियों का अधिष्ठाता है। इन्द्रियों का दास न होने से ही अपनी शक्ति को सुरक्षित कर पाया है, वह जीर्णशक्तिवाला नहीं हो गया। 'रुशम' वह है जिसके अन्दर ज्ञान की ज्योति जगमगा रही है तथा 'पवीरवान्' वह है जो अपने शरीर को सात्त्विक अन्न व व्यायाम से वज्रतुल्य बना पाया है। इन सबके अन्दर एक ' रयि' - सम्पत्ति विद्यमान है, एक विभूति का अंश विद्यमान है। मन्त्र में कहते हैं कि ('अर्ये') = जितेन्द्रिय में रुशमे दीप्त ज्ञानवाले पुरुष में तथा पवीरवि वज्रतुल्य शरीरवाले में (तिरः चित्) = छिपी हुई (रयिः) = जो सम्पत्ति व विभूति है (सः) = वह (तुभ्य इत्) = पुरुष (अज्यते) = आपकी ही तो प्रकट हो रही है। ऐसा अनुभव करनेवाला व्यक्ति अपनी 'जितेन्द्रियता, ज्ञानदीप्ति व शारीरिक बल' का कभी गर्व नहीं करता, क्योंकि वह इस सबको प्रभु की ही महिमा के रूप में देखता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सभी व्यक्ति प्रभु के हैं। सर्वत्र प्रभु की ज्योति ही दीप्ति का कारण बन रही है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्या राजाचे राज्यरक्षक श्रेष्ठ व आज्ञापालन करणारे असतात, तसेच कर न देणाऱ्या शत्रूंकडूनही कर प्राप्त करतात ते सर्वत्र प्रसिद्ध होतात.

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    विषय

    आता राजधर्मा विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे राजन्, (यस्य) आपला जो (अयम्) हा (विश्‍वः) संपूर्णतः (आर्य्यः) धार्मिक गुण, कर्म, स्वभावाचा मनुष्य आहे, तो (दासः) सेवकाप्रमाणे आज्ञाकारी असून (शेवधिपाः) ठेव वा कोणाची रक्षा करणारा आहे. तसेच हा (अरिः) शत्रूची (पवीरवि) धन-संपत्ती आणि शस्त्र आदी हिसकावून घेण्यासाठी उपयुक्त आहे. हा (रुशमे) प्रसंग पडल्यास हिंसा व ताडन आदीचा उपयोग करणारा तसेच (अर्य्ये) धनाधीश वैश्यासाठी (तिरः) त्याचे धन (तिरः) लपवून ठेवणारा (शत्रूचे भय दाखवून वैश्याकडून धन हिरावून नेऊ नये म्हणून तो धन गुप्त ठेवणारा) आहे. (चित्) आणखीन तो (इत्) निश्‍चयाने (तुभ्यम्) आपल्यासाठीच व आपलाच आहे आणि (सः) ते आपणही (रयिः) त्याला धनाप्रमाणे (अज्यते) प्राप्त होता (आपणदेखील त्याचे सहाय्यक व आश्रयदाते आहात. तेव्हां दोघांनी शत्रूवर विजय मिळवावा) ॥82॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्या राजाला सर्व आर्यजन राज्यरक्षण आणि आज्ञापालनकार्यात सहयोग देतात, जो राजा कर न देणार्‍या शत्रूकडूनही (कर वा चौथाई) वसूल करण्यात सक्षम आहे, असे हे राजा आप उत्तम शोभावान वा कीर्तीमंत आहात. ॥82॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O King, this man of high character is obedient to thee. The miser who hides his treasure is thy enemy. The hidden wealth of a wealthy trader, protected against arms and violence, is meant for thee.

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    Meaning

    The noble people of the world are obedient supporters of yours. The treasurer is pious and faithful. And whatever is treasured or hoarded or hidden with the trader, the violent man or the armed guard, all that is wealth preserved for you ultimately.

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    Translation

    You (the bounteous and resplendent Lord) are that wealth personified, which is coveted by every generous master of riches, and even by the humblest miser. May that wealth be brought O directly close to you, the energetic devotee. (1)

    Notes

    Āryaḥ, धर्मगुणस्वभाव: श्रेष्ठ:, a man of holy thoughts and actions by nature; noble man. Dāsah, सेवक:, servant. Sevadhipā, शेवधिः निधिः, तस्य रक्षकः, one who guards his treasure. Does not pay taxes properly (Dayā. ). Ariḥ, शत्रु:. , enemy. Arya, master; अर्य: स्वामिवैश्ययो:, arya means: master, or Vaisya. Tubhya it, for तुभ्यं इत्, for you indeed. Tiraḥ, अंतर्धानं गत:, concealed; hidden. Rusame, हिंसके, violent, Paviravi, यो धनादिप्राप्त्यै शस्त्रं प्रयुंक्ते, for him who uses weapon for acquiring wealth. Rayiḥ, धनं, treasure, wealth. Ajyate, प्राप्यते, is obtained.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ রাজধর্ম্মবিষয়মাহ ॥
    এখন রাজধর্ম্ম বিষয়কে বলা হইতেছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজন্ ! (য়স্য) যে আপনার (অয়ম্) এই (বিশ্বঃ) সকল (আর্য়্যঃ) ধর্মযুক্ত গুণ, কর্ম, স্বভাবযুক্ত পুরুষ (দাসঃ) সেবকবৎ আজ্ঞাকারী (শেবধিপাঃ) উত্তরাধিকার সূত্রে পাওয়া ধনের রক্ষক অর্থাৎ ধর্মাদি কার্য্য বা রাজকর দিতে ব্যয় করে যে ব্যক্তি (অরিঃ) এবং শত্রু (পবীরবি) ধনাদির রক্ষার জন্য শস্ত্রকে প্রাপ্ত হয় যে (রুশমে) হিংসক ব্যবহার বা (অর্য়্যে) ধনস্বামী বৈশ্যাদির নিমিত্ত (তিরঃ) অন্তর্ধান করে যে সে (চিৎ)(তুভ্য) আপনার জন্য (ইৎ) নিশ্চয় পূর্বক আছে (সঃ) উহা আপনি (রয়িঃ) ধন সদৃশ (অজ্যয়ে) প্রাপ্ত হন্ ॥ ৮২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে রাজার সকল আর্য্য রাজ্যরক্ষক ও আজ্ঞা পালক আছে, যাহারা ধনাদি কর বা অদাতা শত্রু তাহাদের নিকট হইতেও আপনারা ধনাদি কর গ্রহণ করিয়াছেন তাহারা আপনাদের সকলের অপেক্ষা উত্তম শোভাসম্পন্ন হউক ॥ ৮২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্যা॒য়ং বিশ্ব॒ऽআর্য়ো॒ দাসঃ॑ শেবধি॒পাऽঅ॒রিঃ ।
    তি॒রশ্চি॑দ॒র্য়্যে রু॒শমে॒ পবী॑রবি॒ তুভ্যেৎসোऽঅ॑জ্যতে র॒য়িঃ ॥ ৮২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্যেত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । নিচৃদ্ বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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