यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 88
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - अश्विनौ देवते
छन्दः - निचृद् बृहती
स्वरः - मध्यमः
13
आ या॑त॒मुप॑ भूषतं॒ मध्वः॑ पिबतमश्विना।दु॒ग्धं पयो॑ वृषणा जेन्यावसू॒ मा नो॑ मर्धिष्ट॒मा ग॑तम्॥८८॥
स्वर सहित पद पाठआ। या॒त॒म्। उप॑। भू॒ष॒त॒म्। मध्वः॑। पि॒ब॒त॒म्। अ॒श्वि॒ना॒ ॥ दु॒ग्धम्। पयः॑। वृ॒ष॒णा॒। जे॒न्या॒व॒सू॒ इति॑ जेन्याऽवसू। मा। नः॒। म॒र्धि॒ष्ट॒म्। आ। ग॒त॒म्। ॥८८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यातमुप भूषतम्मध्वः पिबतमश्विना । दुग्धम्पयो वृषणा जेन्यावसू मा नो मर्धिष्टमा गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। यातम्। उप। भूषतम्। मध्वः। पिबतम्। अश्विना॥ दुग्धम्। पयः। वृषणा। जेन्यावसू इति जेन्याऽवसू। मा। नः। मर्धिष्टम्। आ। गतम्।॥८८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे वृषणा जेन्यावसू अश्विना! युवां सुखमायातं प्रजा उपभूषतं मध्वः पिबतं पयो दुग्धं नोऽस्मान् मा मर्धिष्टं धर्मेण विजयमागतम्॥८८॥
पदार्थः
(आ) (यातम्) प्राप्नुतम् (उप) (भूषतम्) अलं कुरुतम् (मध्वः) मधुरं वैद्यकशास्त्रसिद्धं रसम्। अत्र कर्मणि षष्ठी। (पिबतम्) (अश्विना) विद्यादिशुभगुणव्यापिनौ राजप्रजाजनौ (दुग्धम्) पूर्णं कुरुतम् (पयः) उदकम्। पय इत्युदकनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।१२) (वृषणा) वीर्य्यवन्तौ (जेन्यावसू) यौ जेन्यान् जयशीलान् वासयतो यद्वा जेन्यं जेतव्यं जितं वा वसु धनं याभ्यां तौ (मा) (नः) अस्मान् (मर्धिष्टम्) हिंस्तम् (आ) (गतम्) समन्तात् प्राप्नुतम्॥८८॥
भावार्थः
ये राजप्रजाजनाः सर्वान् विद्यासुशिक्षाभ्यामलं कुर्य्युः, सर्वत्र कुल्यादिद्वारा जलं गमयेयुः, श्रेष्ठान्न हिंसित्वा दुष्टान् हिंस्युस्ते विजेतारः सन्तोऽतुलां श्रियं प्राप्य सततं सुखं लभेरन्॥८८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (वृषणा) पराक्रमवाले (जेन्यावसू) जयशीलजनों को बसानेवाले वा जीतने योग्य अथवा जीता है धन जिन्होंने ऐसे (अश्विना) विद्यादि शुभ गुणों में व्याप्त राजप्रजाजन तुम दोनों सुख को (आ, यातम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ, प्रजाओं को (उप, भूषतम्) सुशोभित करो, (मध्वः) वैद्यकशास्र की रीति से सिद्ध किये मधुर रस को (पिबतम्) पीओ, (पयः) जल को (दुग्धम्) पूर्ण करो अर्थात् कोई जल विना दुःखी न रहे। (नः) हमको (मा) मत (मर्धिष्टम्) मारो और धर्म से विजय को (आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ॥८८॥
भावार्थ
जो राजप्रजाजन सबको विद्या और उत्तम शिक्षा से सुशोभित करें, सर्वत्र नहर आदि के द्वारा जल पहुंचावें, श्रेष्ठों को न मार के दुष्टों को मारें, वे जीतनेवाले हुए अतोल लक्ष्मी को पाकर निरन्तर सुख को प्राप्त होवें॥८८॥
भावार्थ
हे (अश्विनौ) स्त्री पुरुषों के समान राजा प्रजाजनो ! अथवा पूर्वोक्त राष्ट्र में व्यापक अधिकार वाले दो अधिकारी राजा और सभापति पुरुषो ! आप दोनों ( आयातम् ) आओ । ( उप भूषतम् ) इस स्थान को सुभूषित करो । अथवा दोनों समीप होकर रहो । हे (वृषणा) सुखों के वर्षाने वाले ! तुम दोनों ( मध्वः पिबतम् ) अन्न व उसके उत्तम रस को पान करो । जिस प्रकार सूर्य और मेघ पृथ्वी से जल ग्रहण करते हैं और फिर उसी पर बरसा देते हैं उसी प्रकार ( पय: दुग्धम् ) उत्तम पुष्टिकारक दूध और अन्न और जल से राष्ट्र को पूर्ण करो और ( जेन्यावसू ) विजयशील धन के स्वामी तुम दोनों (नः) हम प्रजाओं को ( मा मर्धिष्टम्) कभी विनाश मत करो और ( नः आगतम् ) हमें सदा प्राप्त होवो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । अश्विनौ देवते । निचृद् बृहती । मध्यमः ॥
विषय
प्राणापान की साधना
पदार्थ
१. प्रस्तुत मन्त्र का देवता 'अश्वनौ' प्राणापान हैं। इनकी साधना करके इनको अपने वशमें करनेवाला 'वशिष्ठ' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है। यह प्रार्थना करता है - २. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (आयातम्) = सर्वत्र प्राप्त होवो । 'अशूङ् व्याप्तौ' से अश्विनी शब्द बना है। सारे शरीर में व्याप्त होनेवाले । 'प्राणापान' का उद्देश्य इन्हीं अङ्ग-प्रत्यङ्ग में पहुँचने से है, जिस-जिस अङ्ग में ये प्राणापान पहुँचते हैं, वहाँ-वहाँ की मलिनता को भस्म करके ये उस उस अङ्ग को पूर्ण नीरोग बनाते हैं। वस्तुतः किसी स्थानविशेष में इनके ठीक-ठीक न पहुँचने से उस उस स्थान के अङ्ग मृत होना आरम्भ हो जाते हैं, शायद यही केंसर का मूल हो। प्राणसाधना से उस अङ्ग का जीवित किया जा सकना सम्भव है। एवं, एक योगी केन्सर का शिकार नहीं होता, हुए हुए केंसर को भी यह दूर कर सकता है। २. इस प्रकार हे प्राणापानो! मेरे अङ्गों को नीरोग करके उन्हें (उपभूषतम्) = स्वस्थ्य व अपने-अपने कार्य में कुशलता से अलंकृत करो। मेरी आँख दृष्टिशक्ति से सुशोभित हो, तो कान सुनने की शक्ति से अलंकृत हो जाएँ। इस प्रकार हे प्राणापानो! तुम मेरे सारे शरीर को सुशोभित कर दो। ३. (मध्वः पिबतम्) = इस अलंकरण प्रक्रिया के लिए तुम अन्न के सारभूत् मधु, अर्थात् सोम का पान करो। तुम्हारी साधना से मेरे अन्दर सुत [उत्पन्न हुआ] सोम मेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग में प्रविष्ट होकर उसे स्वस्थ बनाये। यह वीर्यशक्ति ही [वि- विशेषरूप से ईर= ] रोगों व विकारों को कम्पित करनेवाली हो। इसी से सब अङ्ग नीरोग होकर सुशोभित होंगे। ४. इस वीर्यरक्षा के द्वारा (पयः) = अप्यायन को (दुग्धम्) = मुझमें प्रपूरित करो [दुह प्रपूरणे ] । 'पयः' शब्द दूधके लिए भी इसी कारण प्रयुक्त होता है कि यह अप्यायन करनेवाला है। [ओप्यायी वृद्धौ ] । यदि शरीर में वीर्य सुरक्षित होता है तो यह एक एक अङ्ग के अप्यायन का कारण बनता है । ५. (वृषणा) = हे प्राणापानो! आप 'वृषणा' हो, मुझे शक्तिशाली बनानेवाले हो। ६. (जेन्यावसू) - मेरे लिए सब वसुओं को जीतनेवाले हो । निवास के लिए आवश्यक तत्त्व ही वसु हैं। इस प्राणसाधना से वे सब वसु प्राप्त होते हैं । ७. (नः) = हमें (मा) = मत (मर्धिष्टम्) = हिंसित करो। ये प्राणापान हमें नीरोग व शक्तिशाली बनाकर पूर्ण दीर्घजीवन प्राप्त करनेवाला बनाएँ। ८. (आगतम्) = ऐसे ये प्राणापान मुझे प्राप्त हों। मेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग में इनकी गति हो । मन्त्र का प्रारम्भ ‘आयातम्' शब्द से था, समाप्ति 'आगतम्' पर है। दोनों की भावना एक ही है [या = ग]। वस्तुतः प्राणापान का लाभ तभी है जब ये शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में पहुँचे । एक गहरा श्वास लेकर सारे शरीर में प्राण को पहुँचाने का प्रयत्न करें। अपान के समय उसे पूरे रूप से बाहर फेंकें। वस्तुतः पूरक व रेचक तो आनुपातिक ढंग से ही चलते हैं। जितना रेचक ठीक होगा उतना ही पूरक भी ठीक हो जाएगा। इस मन्त्र का ऋषि इस प्राणापान को वशवर्ती करनेवाला वशिष्ठ है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हम पूर्ण नीरोगता का लाभ करें।
मराठी (2)
भावार्थ
जे राजे व प्रजानन सर्वांना विद्या व उत्तम शिक्षणानेयुक्त करतात व सर्वत्र कालवे तयार करून पाणीपुरवठा करतात. श्रेष्ठांना न मारता दुष्टांना मारतात ते अजिंक्य बनतात व लक्ष्मी प्राप्त करून निरंतर सुख भोगतात.
विषय
पुनश्च, तोच विषय-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (वृषणा) पराक्रमी आणि (जेन्यावसू) युद्धात विजेता लोकांना योग्य त्या ठिकाणी वसविणारे अथवा ज्यांनी शत्रूंकडून भरपूर धन जिंकले आहे, (अश्विना) विदय आदी क्षेत्रात सद्गुणसंपन्न असे हे राजा आणि प्रजाजन, तुम्ही दोघे (आ, यातम्) उत्तमप्रकारे सुख प्राप्त करा. हे राजा, तुम्ही प्रजाजनांच्या (उप, भूषतम्) जवळ जाऊन त्यांची सत्कार-सम्मान करा. आणि (मध्वः) वैद्यकशास्त्राप्रमाणे तयार केलेला मधुर रस (पिबतम्) प्या. तसेच सर्वांसाठी (पयः) जल (दुग्धम्) उपलब्ध होईल, असे करा अर्थात पाण्याविना कोणी दुःखी राहू नये, तसेच (नः) आम्हाला (मा) (मर्द्धिष्टम्) मारू नका (वा आमची कोणती हानी होऊ देऊ नका.) आणि धर्ममार्गाने विजय (आ, गतम्) प्राप्त करा (अनीतीने नको) ॥88॥
भावार्थ
भावार्थ -जे राजा राजपुरुष आणि प्रजेतील (शिक्षित विद्वज्जन) सर्वांना विद्या, सुशिक्षाद्वारे सुशोभित करतील, तसेच कालवे आदी निर्मित करून सर्वासाठी पाण्याची सोय करतील, तसेच श्रेष्ठ जनांना न मारता (वा त्रास न देता) दुष्टांना मात्र ताडना, वध आदीद्वारे दंडित करतील, ते विजयी होऊन अतुलनीय लक्ष्मी (धन-संपदा) प्राप्त करून अवश्य सुखी आनंदी होतील. ॥88॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O king and public leaders, valiant, conquerors of riches, immersed in knowledge, attain to happiness, adorn the subjects, drink the medically prepared juice, arrange for the supply of water, injure us not, and gain victory through righteousness.
Meaning
Ashvins, powers of health and joy, come and join us (ruler and people both), beatify our yajna and drink of the honey-sweets of fragrance. Virile and generous lords and pillars of wealth and victory, come with a shower of milk and waters, neglect us never.
Translation
Come, O twin divines, and grace us with your presence; drink of the sweet Libation. May you, O showerers of blessings, rich in genuine wealth, come here. May you milk the rain from the firmament. May you come to us, but not for an injury. (1)
Notes
Asvinä, अश्विनौ, two Asvins; two healers. Vṛṣaṇā, full of vigour; virile; showerers of blessing. Jenyāvasū, rich in genuine wealth. Mã no mardhiṣṭam agatam, may you not harm me, who comes seeking your protection.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (বৃষণা) পরাক্রমশালী (জেন্যাবসূ) জয়শীলব্যক্তিদিগকে বাস করায় যাহারা অথবা জিতিবার যোগ্য বা জিতিয়াছে ধন যাহারা এমন (অশ্বিনা) বিদ্যাদি শুভ গুণ গুলিতে ব্যাপ্ত রাজপ্রজাগণ তোমরা উভয়ে সুখকে (আ, য়াতম্) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হও, প্রজাদিগকে (উপ, ভূষতম্) সুশোভিত কর, (মধ্বঃ) বৈদ্যক শাস্ত্রের রীতি দ্বারা সিদ্ধ কৃত মধুর রসকে (পিবতম্) পান কর, (পয়ঃ) জলকে (দুগ্ধম্) পূর্ণ কর অর্থাৎ কেহ জল ব্যতীত দুঃখী না থাকে । (নঃ) আমাদেরকে (মা) না (মর্দ্ধিষ্টম্) মারিও এবং ধর্ম দ্বারা বিজয় কে (আ, গতম্) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হও ॥ ৮৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে রাজ প্রজাগণ সকলকে বিদ্যা ও উত্তম শিক্ষা দ্বারা সুশোভিত করিবে, সর্বত্র কৃত্রিম জলমার্গ দ্বারা জল উপস্থিত করিবে, শ্রেষ্ঠদিগকে না মারিয়া দুষ্টদিগকে মারিবে, তাহারা বিজেতা হইয়া অতুল লক্ষ্মী পাইয়া নিরন্তর সুখ লাভ করিবে ॥ ৮৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আ য়া॑ত॒মুপ॑ ভূষতং॒ মধ্বঃ॑ পিবতমশ্বিনা ।
দু॒গ্ধং পয়ো॑ বৃষণা জেন্যাবসূ॒ মা নো॑ মর্ধিষ্ট॒মা গ॑তম্ ॥ ৮৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আ য়াতমিত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । অশ্বিনৌ দেবতে । নিচৃদ্ বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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