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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 21
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुभगर्भातिधृतिः सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
    30

    यो व॑ आपो॒ऽपाम॒ग्नयो॒ऽप्स्वन्तर्य॑जु॒ष्यो॑ष्या देव॒यज॑नाः। इ॒दं तानति॑ सृजामि॒ तं माभ्यव॑निक्षि। तैस्तम॒भ्यति॑सृजामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। तं व॑धेयं॒ तं स्तृ॑षीया॒नेन॒ ब्रह्म॑णा॒नेन॒ कर्म॑णा॒नया॑ मे॒न्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । व॒: । आ॒प॒: । अ॒पाम् । अ॒ग्नय॑: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । य॒जु॒ष्या᳡: । दे॒व॒ऽयज॑ना: । इ॒दम् । तान् । अति॑ । सृ॒जा॒मि॒ । तान् । मा । अ॒भि॒ऽअव॑निक्षि । तै: । तम् । अ॒भि॒ऽअति॑सृजाम: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒धे॒य॒म् । तम् । स्तृ॒षी॒य॒ । अ॒नेन॑ । ब्रह्म॑णा । अ॒नेन॑ । कर्म॑णा । अ॒नया॑ । मे॒न्या ॥५.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो व आपोऽपामग्नयोऽप्स्वन्तर्यजुष्योष्या देवयजनाः। इदं तानति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि। तैस्तमभ्यतिसृजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । व: । आप: । अपाम् । अग्नय: । अप्ऽसु । अन्त: । यजुष्या: । देवऽयजना: । इदम् । तान् । अति । सृजामि । तान् । मा । अभिऽअवनिक्षि । तै: । तम् । अभिऽअतिसृजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । वधेयम् । तम् । स्तृषीय । अनेन । ब्रह्मणा । अनेन । कर्मणा । अनया । मेन्या ॥५.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (आपः) हे विद्वानो ! (ये) जो (वः अपाम्) तुम विद्वानों के (अग्नयः) ज्ञानप्रकाश (अप्सु अन्तः) विद्वानों के बीच (यजुष्यः) पूजायोग्य और (देवयजनाः) विद्वानों करके सङ्गति योग्य हैं, (इदम्) अब (तान्) उन [तुम्हारे ज्ञानप्रकाशों] को (अति) आदरपूर्वक (सृजामि) मैं सिद्ध करता हूँ, (तान्) उन [ज्ञानप्रकाशों] को (मा अभ्यवनिक्षि) मैं न धो डालूँ [न नष्ट करूँ]। (तैः) उन [ज्ञानप्रकाशों] से (तम्) उस [शत्रु] को (अभ्यतिसृजामः) हम हराकर छोड़ते हैं (यः) (जो (अस्मान्) हम से (द्वेष्टि) कुप्रीति करता है और (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) कुप्रीति करते हैं। (अनेन ब्रह्मणा) इस वेदज्ञान से, (अनेन कर्मणा) इस कर्म से और (अनया मेन्या) इस वज्र से (तम्) उस [दुष्ट] को (वधेयम्) मैं मारूँ और (तम्) उसको (स्तृषीय) ढक लूँ ॥२१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से सुशिक्षित होकर दृढचित्त रहते और उनके उपकारों पर पानी नहीं फेरते, वे दुष्ट शत्रु को जीतने में समर्थ होते हैं ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(अग्नयः) ज्ञानप्रकाशाः। अन्यत् पूर्वगतमन्त्रात् १५ यथाविधि संयोजनीयम् ॥

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    विषय

    रेतःकणों का महत्त्व

    पदार्थ

    १. हे (आप:) = रेत:कणो! (य:) = जो (व:) = आपका (अपाम्) = प्रजाओं का (भाग:) = पूजन [भज सेवायाम्] है, अर्थात् आपके रक्षण से प्रजाओं के अन्दर जो प्रभु-पूजन का भाव उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जो (अपाम् ऊर्मि:) = प्रजाओं का प्रकाश है [उर्मि light], आपके रक्षण से जो प्रकाश उत्पन्न होता है। जो (अपां वत्स:) = [वदति] प्रजाओं का ज्ञान की बाणियों का उच्चारण है। (अपां वृषभ:) = प्रजाओं में सुखों का सेचन है [वृष् सेचने]। (अपां हिरण्यगर्भः) = प्रजाओं में ज्योति को धारण करना है। (अपां अश्मा) = प्रजाओं का पाषाण-तुल्य दृढ़-शरीर है, (पृश्नि:) = अंग प्रत्यंग में रसों का संस्पर्श है [संस्प्रष्टा रसान्-नि०२।१४] तथा (दिव्यः) = देववृत्तियों का जन्म है और अन्तत: (अपां अग्नयः) = प्रजाओं के अन्दर आगे बढ़ने की वृत्तियाँ हैं। ये सब (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं के अन्दर (यजुष्य:) = यजुष्य हैं-यज्ञात्मकवृत्तियों को जन्म देने के लिए उत्तम है। ये सब बातें (देवयजन:) = उस देव के साथ-प्रभु के साथ मेल करानेवाली हैं। २. (अतः इदम्) [इदानीम्] = अब मैं (तम् उ) = उस रेत:कण [वीर्यशक्ति] को ही (अतिसजामि) = अतिशयेन अपने अन्दर उत्पन्न करता हूँ। (तं मा अभिअवनिक्षि) = उसका मैं सफाया न कर दूं-उसे अपने अन्दर सुरक्षित काँ[अवनिज् wipe off] (तेन) = उस वीर्यशक्ति के द्वारा (तम् अभि अतिसूजामः) = उसे अपने से दूर करते हैं [अतिसृज् part with] (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके प्रति अप्रीतिवाला है और (परिणामत: यं वयं द्विष्मः) = जिससे हम भी प्रीति नहीं कर सकते। (तम्) = उसे (अनेन बह्मणा) = इस ज्ञान के द्वारा (अनेन कर्मणा) = इस यज्ञादि कर्म के द्वारा तथा (अनया मेन्या) = इस उपासनारूप वज्र के द्वारा [मेनि:-मन्] (तं वधेयम्) = उस समाज-विद्विष्ट को समाप्त कर (दंतं स्तृषीय) = उसे नष्ट कर दूं [स्तृ to kill]।

    भावार्थ

    रेत:कणों के रक्षण से हममें 'उपासना के भाव, प्रकाश, ज्ञान की वाणियों का उच्चारण, सुख, ज्योति, दृढ रसमय दिव्यता व प्रगतिशीलता' की उत्पत्ति होती है, अत: रेत:कणों का रक्षण आवश्यक है। इससे द्वेषभाव भी विनष्ट हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (आपः) हे आप्त प्रजाओ ! (वः) तुम्हारी (ये) जो (अपाम्) प्रजाओं सम्बन्धी (अग्नयः) अग्नियां हैं, जो कि (अप्सु अन्तः) तुम प्रजाओं के हृदयान्तर्वर्ती जलो में विद्यमान हैं, (यजुष्याः) जोकि यजन अर्थात् संगम योग्य हैं, प्रापणीय हैं, (देवयजनाः) देवों के संगम द्वारा प्रापणीय हैं। (ताम्) उन्हें और (इदम्) इस शरीर या मन को [हे परमेश्वर!] (अतिसृजामि) मैं सस्राट् तेरे प्रति भेंट करता हूं, समर्पित करता हूं, (तान्) उन्हें, (मा) और मुझे, (अभि) अभिमुख होकर (अवनिक्षि) शुचि, पवित्र कर। (तैः) सम्राट्निष्ठ उन अग्नियों द्वारा (तम् अभि) उस शत्रु को, उस के अभिमुख होकर (अति सृजामः) हम प्रजाएं विनष्ट करती हैं (यः) जो कि (अस्मान द्वेष्टि) हम प्रजाओं के साथ करता है, और (यम्) जिस के साथ (वयम् द्विष्मः) हम प्रजाएं करती हैं। तथा (तम्) उस शत्रु का (वधेयम) मैं सम्राट् भी वध करु, (तम् स्तृषीय) उस का विनाश करु, (अनेन ब्रह्मणा) इस ब्रह्म की सहायता या कृपा द्वारा, (अनेन कर्मणा) इस स्तुति-उपासनारूप कर्म द्वारा (अनया मेन्या) इस ज्ञानरुपी वज्र द्वारा। मन्त्रोक्त शत्रु है राजसिक-और-तामसिक मन।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में अग्नियों का वर्णन है। ये अग्नियां मानसिक हैं, और दो प्रकार की है, अशिव (घोर), तथा शिव [अथर्व० १६/१/१-१३]। उन शिव अग्नियों को तथा शरीर या मन को परमेश्वर के प्रति समर्पित कर, परमेश्वर से इन्हें सशक्त बनाने के लिये शक्ति की प्रार्थना करनी चाहिये, ताकि हम अशिव [घोर] अग्नि वाले द्वेषी मन का वध कर सकें। काम, क्रोध, लोभ,परहिंस्रभावनाएं आदि अशिव [घोर] अग्नियां हैं। परोपकार भावना, त्या‌ग, तपस्या, देशभक्ति के उग्र विचार आदि शिव अग्नियां हैं। "सृजामि तथा सृजामः" में एक वचन के प्रयोग द्वारा प्रकरणप्राप्त इन्द्र अर्थात् सम्राट् की उक्ति जाननी चाहिये, और बहुवचन के प्रयोग द्वारा प्रजाओं की। अभ्यवनिक्षि= मेरी अग्नियों और मुझ को शुचि करदे, हमारे मलों को धो डाल। घोरता मल है। निक्षि= णिजिर् शौच पोषणयोः]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Victory

    Meaning

    O people of the land, whoever of you among the people are brilliant as light, instant and passionate in action as fire, loved by society and respected by the wise in the business of governance and administration of the order, hereby I appoint, and entrust the order to them. Do not forsake them, nor must I forsake and neglect them, and thereby we take on whoever hates us and whoever we disapprove, and with this knowledge, through this process of law, and with this act of justice, we counter, cover and eliminate that element of hate and enmity.

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    Translation

    What of you, O waters, are the fires of the waters within the waters of the nature of sacrificial rites (yajusya), useful for the congregation of the enlightened ones (gods, devas), them now I let go; them let me not wahsdown against myself; them we let go against him who hates us, whom we hate. Him may I slay or stab; him may I lay low with this prayer (brahmaņā), with this action (karmaņā), with this weapon (meni).

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    Translation

    O learned men! to them who are the refulgent possessors of your virtues and actions among the people and are performers of yajna and server of the enlightened persons, I, the priest entrust the work of this Kingdom. Let not you dishonor them. By them we attack on him who hates us and whom we hate or abhor. We overthrow and slay him through this knowledge through this act and through this fatal weapon.

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    Translation

    O learned persons, the foe-slaying heroes, from amongst ye subjects, living amidst you, are worthy of reverence and worship by godly persons. I hand over the administration of this State to them. May I never show them disrespect. With their help we invade the enemy who hates us and whom we abhor. Him would I fain overthrow and slay with this Vedic knowledge, with this heroic deed, and with this army.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(अग्नयः) ज्ञानप्रकाशाः। अन्यत् पूर्वगतमन्त्रात् १५ यथाविधि संयोजनीयम् ॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    अग्नि: - समस्त यज्ञाग्नि,भौतिक और मानसिक ऊर्जा आत्मबल

    Word Meaning

    हे आप्त- प्रजा जनो जो अपवादहीन,अभ्यस्त, तर्क संगत, बुद्धिमान ,सत्याधारित जो ऋषियों द्वारा निर्देषित यज्ञादि कार्य करने की तुम्हारे हृदय में संचार करने वाले तत्वों से प्रेरणा द्वारा समस्त यज्ञाग्नि ,भौतिक और मानसिक ऊर्जा के संरक्षण वर्तमान और भविष्य में उन से समाज निर्माण में उन की उपादेयता के प्रति तुम्हारे शरीर और मन सब साधनों को समर्पित करता हूं | सद्‌बुद्धि तुम्हारे आचरण को पवित्र करे | उस पवित्र आचरण से अपने आंतरिक शत्रुओं पर विजयी हो कर जो हम से द्वेष करते हैं और हम जिन से द्वेष करते हैं उन पर विजय पाएं | इस वेद ज्ञान पर आधारित कर्मकाण्ड के वज्र द्वारा उन शत्रुओं का वध करें उन का विनाश करें |

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