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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - चतुष्पदा जगतीगर्भा जगती सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
    14

    इन्द्र॒स्यौज॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ सह॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ बलं॒ स्थेन्द्र॑स्य वी॒र्यं स्थेन्द्र॑स्य नृ॒म्णं स्थ॑। जि॒ष्णवे॒ योगा॑य॒ विश्वा॑नि मा भू॒तान्युप॑ तिष्ठन्तु यु॒क्ता म॑ आप स्थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । ओज॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । सह॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । ब॑लम् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । वी॒र्य᳡म् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । नृ॒म्णम् । स्थ॒ । जि॒ष्णवे॑ । योगा॑य । विश्वा॑नि । मा॒ । भू॒तानि॑ । उप॑ । ति॒ष्ठ॒न्तु॒ । यु॒क्त: । मे॒ । आ॒प॒: । स्थ॒ ॥५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगाय विश्वानि मा भूतान्युप तिष्ठन्तु युक्ता म आप स्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । ओज: । स्थ । इन्द्रस्य । सह: । स्थ । इन्द्रस्य । बलम् । स्थ । इन्द्रस्य । वीर्यम् । स्थ । इन्द्रस्य । नृम्णम् । स्थ । जिष्णवे । योगाय । विश्वानि । मा । भूतानि । उप । तिष्ठन्तु । युक्त: । मे । आप: । स्थ ॥५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] तुम (इन्द्रस्य) आत्मा के (ओजः) पराक्रम (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) आत्मा के (सहः) पुरुषार्थ (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) आत्मा के (बलम्) बल (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) आत्मा की (वीर्यम्) वीरता (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) आत्मा की (नृम्णम्) शूरता (स्थ) हो। (जिष्णवे) विजयी (योगाय) संयोग के लिये (विश्वानि) सब (भूतानि) उत्पन्न वस्तुएँ (मा) मुझे (उप तिष्ठन्तु) सेवें, (आपः) हे सब विद्याओं में व्यापक विद्वानो ! तुम (मे) मेरे लिये (युक्ताः) योगाभ्यासी [पुरुष] (स्थ) हो ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य यती विद्वानों के सत्सङ्ग द्वारा संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर कार्य सिद्ध करें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(विश्वानि) सर्वाणि (मा) माम् (भूतानि) उत्पन्नवस्तूनि (उप तिष्ठन्तु) सेवन्ताम् (युक्ताः) अभ्यस्तयोगाः (मे) मह्यम् (आपः) हे सर्वविद्याव्यापिनो विपश्चितः-यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।१७। अन्यत् पूर्ववत्−म० १ ॥

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    विषय

    'ओजस, सहस, बल, वीर्य, नृम्ण

    पदार्थ

    १. हे जलो! (इन्द्रस्य ओजः स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष के ओज हो [ओजस् ability], उसे सब कर्त्तव्यकर्मों को कर सकने के योग्य बनाते हो। (इन्द्रस्य सहः स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष की वह शक्ति हो, जिससे कि यह काम, क्रोध आदि शत्रुओं का धर्षण कर पाता है। (इन्द्रस्य बल स्थ) = जितेन्द्रिय पुरुष का तुम्हीं मनोबल हो-इन 'आप:' रेत:कणरूप जलों का रक्षण करनेवाला कभी दुर्बल मानस स्थिति में नहीं होता। (इन्द्रस्य वीर्य स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष की उत्पादन [virility, genertive power] व रोगनिवारक शक्ति हो। (इन्द्रस्य नृम्ण स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष का उत्साह व धन [courage, wealth] हो। २. इन रेत:कणों के रक्षण से 'ओजस्, सहस्, बल, वीर्य व नृम्ण' की प्राप्ति होती है, अत: (जिष्णवे योगाय) = रोगों व वासनारूप शत्रुओं के विजयेच्छु [जिष्णु] उपाय[योग] के लिए मैं (व:) = आपको [रेत:कणों को] (ब्रह्मयोगै:) = ज्ञानप्रासि में लगे रहनेरूप उपायों से (युनज्मि) = शरीर में ही युक्त करता हूँ। इसी प्रकार (क्षत्रयोगैः) = बलों का अपने साथ सम्पर्क करने की कामनारूप उपायों से इन्हें मैं शरीर में युक्त करनेवाला बनता हूँ। (इन्द्रयोगैः) = परमैश्वर्यवाला बनने की कामनारूप उपायों से मैं इन्हें अपने में जोड़ता हूँ। (सोमयोगै:) = सौम्य भोजनों का ही प्रयोग करने के द्वारा में इन्हें शरीर में जोड़ता हूँ तथा अन्ततः (अप्सु योगै:) = निरन्तर कर्मों में लगे रहने के द्वारा मैं इन्हें शरीर में ही सुरक्षित करता हूँ। ३. जब मैं शत्रुओं को जीतने के उपाय के रूप में इन रेत:कणों को शरीर में सुरक्षित करता हूँ, तब (विश्वानि भूतानि) = शरीर का निर्माण करनेवाले 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' रूप सब भूत (मा उपतिष्ठन्तु) = मेरे समीप सहायक रूप में उपस्थित हों। इन सब भूतों की अनुकूलता मुझे प्राप्त हो। हे (आपः) = रेतःकणरूप जलो! आप (मे युक्ताः स्थ) = मेरे साथ युक्त रहो। आपकी संयुक्ति ही तो मेरी विजय का कारण बनती है।

    भावार्थ

    रेत:कणों के रक्षण से 'ओजस्, सहस, बल, वीर्य व नृम्ण' प्राप्त होता है। इन रेत:कणों के रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम ज्ञानप्राप्ति में लगे रहें-बल व ऐश्वर्य के सम्पादन को अपना लक्ष्य बनाएँ। सौम्य भोजनों का सेवन करें। कर्मों में लगे रहें। इसप्रकार रेत:कणों के रक्षण से सब भूतों की अनुकूलता प्राप्त होगी।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रस्यः) मन्त्र १। (जिष्णवे) शत्रुविजय सम्बन्धी (योगाय) पारस्परिक सहयोग के लिये, (विश्वानि) सब (भूतानि) भूत-और भौतिक शक्तियां (मा) मुझे (उपतिष्ठन्तु) उपस्थित हो जाय, (मे) मेरे लिये (आपः) हे साम्राज्यव्यापी प्रजाओ ! तुम (युक्ता) परस्पर जुते हुए से, अर्थात् एकमत हुए (स्थ) हो जायो।

    टिप्पणी

    [इन्द्र अर्थात् सम्राट्, साम्राज्य की सुरक्षा के निमित्त अह्वान पर, साम्राज्य की सभी भूत-भौतिक शक्तियों पर निजाधिकार चाहता है, और प्रजाओं का ऐकमत्य चाहता है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Victory

    Meaning

    You are the honour and splendour of the order, you are the power and patience of the nation, you are the power and patience of the nation, you are the strength and force of the Samrat, you are the vigour and valour of the government, you are the real manly wealth of the nation. For the achievement of united victory and advancement, let all physical, material and living forces abide closely by me, the Ruler. Let all the united people and the united actions be together dedicated to the Order of humanity.

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    Translation

    (O waters), you are the vigour of the resplendent Lord, the conquering force of the resplendent Lord, the strength of the resplendent Lord, the valour of the resplendent Lord; the manliness of the resplendent Lord; for the enterprize of the conquest, may all the beings attend on me. O waters, may you suit me.

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    Translation

    O ye people! you are the strength of the King, you are the force of the King, you are the power of the King, you are the vigor of the King, and you are wealth of the King. Let all the creation stand by me and all the cooperent acts and strength stand united with me for victorious enterprise.

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    Translation

    O subjects, ye are the power of the King, ye the force and strength of the King, ye his manliness and wealth. Let all creation stand by me for the victorious enterprise. May all highly learned persons be interested in the performance of Yoga as instructed by me!

    Footnote

    आपः—हे सर्वविद्याव्यापिणी विपश्चितः यथा दयानन्द भाष्ये यजु 6-17.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(विश्वानि) सर्वाणि (मा) माम् (भूतानि) उत्पन्नवस्तूनि (उप तिष्ठन्तु) सेवन्ताम् (युक्ताः) अभ्यस्तयोगाः (मे) मह्यम् (आपः) हे सर्वविद्याव्यापिनो विपश्चितः-यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।१७। अन्यत् पूर्ववत्−म० १ ॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    पारस्परिक सहयोग संगठन

    Word Meaning

    ( इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ) ओजस्वी राजा, और परिवारके मुखिया, समाज के नेता सब जनों के बल, वीर्य और आर्थिक शक्ति शक्ति सम्पन्न होने के मार्ग दर्शन के लिए (जिष्णवे) आंतरिक और बाह्य शत्रु विजय सम्बंधी ( योगाय) पारस्परिक सहयोग के लिए (विश्वानि) सब (भूतानि) भूत और वर्तमान की भौतिक शक्तियां ( मा) मुझे (उप तिष्ठन्तु) प्राप्त हो जाएं (मे) मेरे लिए (आप: ) , हे साम्राज्य व्यापी प्रजाओ ! तुम (युक्ता) परस्पर एक मत (स्थ) हो कर उद्यत हो जाओ |

    Tika / Tippani

    (ऋग्वेद का मानव को अंतिम उपदेश ऋ10.191) जिष्णवे योगाय विश्वानि मा भूतान्युप तिष्ठन्तु युक्ता म आप स्थ यजुर्वेद में जल के दैवीय गुणों पर अत्यंत वैज्ञानिक रहस्य का विस्तृत वर्णन इस प्रकार पाया जाता है; “समुद्रोsसि नभस्वानार्द्रदानु: शम्भूर्मयोभूरति मा वाहि स्वाहा| Y18.45.a नभस्वानार्द्रदानु: -नभ्‌ का शाब्दिक अर्थ है टूटना –Killed नभस्वान्‌ का अर्थ हुवा जल जो स्वयं टूट कर आर्द्रदानु: औरों के प्रति दयाद्र हृदय वाला होता है भौतिक स्तर पर ऐसा जल अधिक आर्द्रता लिए होता है. Such mechanically treated water develops more wetting property, because it has lower SURFACE TENSION- (a physically measureable property) | यहां आधुनिक विज्ञान के अनुसार जब जल प्रपातों और भंवर से प्रभावित होता है, जैसे पर्वतीय क्षेत्र में जब गङ्गा का जल प्रपातों और भंवर से प्रभावित होता है, तो उस जल का पृष्ट-तनाव surface tension बहुत कम हो जाता है. Water of low surface tension- Water potential -affecting solvability, diffusion properties (pure water has zero water potential, any dissolved substance will impart negative potential जल तरल तत्व महत्व Importance of liquids अथर्व वेद 10.5.7 से 14 तक ध्रुव पंक्ति: है; (अपां शुक्रं आपो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।जल प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये) (अपाम्‌ शुक्रम्‌ ) आप: देवी: प्रजापते: व: धाम्ना) प्रजा के पालन करने वाले ईश्वर के दैवीय गुण- राजा,अग्रज और प्रजा सब जनों में (अस्मै लोकाय सादये) इस लोक में समस्त सुखों की प्राप्ति के लिए (अस्मासु धत्त) हम सब में स्थापित हों । (अपां शुक्रं वर्च:) जलों-तरल पदार्थों- भौतिक जल वनस्पतिओं के रस और मानव शरीर का संचारण करने वाले रक्त रेतस वीर्यादि रस में कुबेर की सम्पन्नता,दीप्ति और वर्चस्व देने वाले अग्नि बाह्य और आंतरिक- भौतिक ऊर्जा और आत्म बल

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