अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 36
ऋषिः - कौशिकः
देवता - मृत्यु
छन्दः - पञ्चपदातिशाक्वरातिजागतगर्भाष्टिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
12
जि॒तम॒स्माक॒मुद्भि॑न्नम॒स्माक॑म॒भ्यष्ठां॒ विश्वाः॒ पृत॑ना॒ अरा॑तीः। इ॒दम॒हमा॑मुष्याय॒णस्या॒मुष्याः॑ पु॒त्रस्य॒ वर्च॒स्तेजः॑ प्रा॒णमायु॒र्नि वे॑ष्टयामी॒दमे॑नमध॒राञ्चं॑ पादयामि ॥
स्वर सहित पद पाठजि॒तम् । अ॒स्माक॑म् । उत्ऽभि॑न्नम् । अ॒स्माक॑म् । अ॒भि । अ॒स्था॒म् । विश्वा॑: । पृत॑ना: । अरा॑ती: । इ॒दम् । अ॒हम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णस्य॑ । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रस्य॑ । वर्च॑: । तेज॑: । प्रा॒णम् । आयु॑: । नि । वे॒ष्ट॒या॒मि॒ । इ॒दम् । ए॒न॒म् । अ॒ध॒राञ्च॑म् । पा॒द॒या॒मि॒ ॥५.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमभ्यष्ठां विश्वाः पृतना अरातीः। इदमहमामुष्यायणस्यामुष्याः पुत्रस्य वर्चस्तेजः प्राणमायुर्नि वेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठजितम् । अस्माकम् । उत्ऽभिन्नम् । अस्माकम् । अभि । अस्थाम् । विश्वा: । पृतना: । अराती: । इदम् । अहम् । आमुष्यायणस्य । अमुष्या: । पुत्रस्य । वर्च: । तेज: । प्राणम् । आयु: । नि । वेष्टयामि । इदम् । एनम् । अधराञ्चम् । पादयामि ॥५.३६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(जितम्) जय किया गया (अस्माकम्) हमारा [हो], (उद्भिन्नम्) निकासी किया हुआ (अस्माकम्) हमारा [हो], (विश्वाः) सब (पृतनाः) [शत्रुओं की] सेनाओं और (अरातीः) कञ्जूसियों को (अभि अस्थाम्) मैंने रोक दिया है। (इदम्) अब (अहम्) मैं (आमुष्यायणस्य) अमुक पुरुष के और (अमुष्याः) अमुक स्त्री के (पुत्रस्य) पुत्र का (वर्चः) प्रताप, (तेजः) तेज (प्राणम्) प्राण और (आयुः) जीवन को (नि वेष्टयामि) लपेटे लेता हूँ, (इदम्) अब (एनम्) इसको (अधराञ्चम्) नीचे (पादयामि) गिराता हूँ ॥३६॥
भावार्थ
प्रजापालक शूर वीर पुरुष एक शत्रु को जीतकर उसकी आय से सुप्रबन्ध करे और दूसरे प्रसिद्ध-प्रसिद्ध वैरियों को इसी प्रकार अधीन करे ॥३६॥
टिप्पणी
३६−(जितम्) जयेन प्राप्तम् (अस्माकम्) धर्मात्मनाम् (उद्भिन्नम्) उद्भेदनं स्फुरणम्। आयधनम् (अस्माकम्) (अभि अस्थाम्) अभिभूतवानस्मि (विश्वाः) सर्वाः (पृतनाः) अ० ३।२१।३। शत्रुसेनाः (अरातीः) अदानशक्तीः। अनुदारताः (इदम्) इदानीम् (अहम्) शूरः (आमुष्यायणस्य) अ० ४।१६।९। नडादिभ्यः फक्। पा० ४।१।९९। अमुष्य−फक्। आमुष्यायणामुष्यपुत्रिकामुष्यकुलिकेति च। वा० पा० ६।३।२१। षष्ठ्या अलुक्। अमुष्य पुरुषस्य पुत्रस्य (अमुष्याः) अमुकजनन्याः (पुत्रस्य) सुतस्य (वर्चः) प्रतापम् (तेजः) प्रकाशम् (प्राणम्) (आयुः) जीवनम् (नि) नितराम् (वेष्टयामि) आच्छादयामि (इदम्) (एनम्) शत्रुम् (अधराञ्चम्) अधोगतम् (पादयामि) पातयामि ॥
विषय
जितम्-उदिन्नम्
पदार्थ
१. गत मन्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ करने पर (अस्माकं जितम्) = हमारी विजय होती है। (अस्माकम् उद्धिनम्) = हमारे द्वारा शत्रुओं का विनाश [Destroying] होता है। मैं (विश्वा:) = सब (अराती: पृतना:) = शत्रुभूत सेनाओं को (अभ्यष्ठाम्) = अभिभूत करता हूँ। २. यह ब्रह्मा निश्चय करता है कि (इदम्) = [इदानीम्] अब (अहम्) = मैं अपने शत्रुभूत (आमुष्यायणस्य) = अमुक पिता के तथा (अमुष्या:) = अमुक माता के (पुत्रस्य) = पुत्र के (वर्च:) = वर्चस् [Vitality] को (तेज) = तेज को (प्राणम्) = प्राणशक्ति को व (आयु:) = जीवन को (निवेष्टयामि) = संवृत्त [Cover] कर देता हूँ। (इदम्) = अब (एनम) = इसको (अधराञ्चम् पादयामि) = पाँव तले रौंद डालता हूँ-पादाक्रान्त कर लेता हूँ।
भावार्थ
हम विजयी बनें-शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले हों। शत्रुओं को सदा पादाक्रान्त करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(अस्माकम्) हमारी (जितम्१) विजय हुई है, (उद्भिन्नम्२) तोड़े-फोड़े किले आादि (अस्माकम्) हमारे हो गए हैं, (विश्वाः) सब (अरातीः) "शत्रुरूप (पृतनाः) सेनाओं के (अभि) अभिमुख, संमुख (अस्थाम्) मैं खड़ा हूं, (इदम् अहम्) यह मैं (आमुष्यायणस्य३) उस गोत्र के और (अमुष्याः) उस माता के (पुत्रस्य) पुत्र की (वर्चः) दीप्ति को (तेजः) तेज को, (प्राणम्) प्राण को, (आयुः) आयु को (निवेष्टयामि४) घेरता हूं, लपेटता हूं, (इदम् एनम्) इस को (अधराञ्चम् पादयामि५) नीचे गिरा देता हूं।
टिप्पणी
[जितम् अर्थात् "जो हम ने जीता है वह हमारा हो गया है, जो दुर्ग आदि तोड़ा है हमारा हो गया है”। विश्वाः पृतनाः= सब सेनाएं। सार्वभौमशासक की विरोधिनी सब सेनाएं। वेदों के अनुसार माण्डलिक६ राजाओं का चुनाव प्रजाएं करती है, माण्डलिक राजा सम्राटों७ का चुनाव८ करते हैं, और सम्राट् मिलकर सार्वभौमशासक का, जिसे कि एकराट९ कहते हैं, चुनाव करते हैं, अथवा सब प्रकार की प्रजाएं सार्वभौमशासक का चुनाव मिलकर करती हैं। यदि किसी कारण माण्डलिक राजाओं या सम्राटों की सेनाएं विद्रोह में, सार्वभौमशासक के साथ युद्ध के लिये तत्पर हो जायें तब सार्वभौमशासक उन्हें परास्त कर उन की सम्पत्तियों को स्वाधीन कर लेता है, और विजेतारूप में परास्त सेनाओं के अभिमुख विना किसी भय के खड़ा होकर अपनी विजय प्रदर्शित करता है। २५-३५ मन्त्रों में "सपत्न" व्यक्तिरूप है, जो कि "तम् यः, यम्, द्वेष्टि" शब्दों द्वारा निर्दिष्ट हुआ है। मन्त्र ३६ में “सपत्न" सेनाओं के रूप में निर्दिष्ट किये हैं]। [१. जितम्= भावे क्तः । २. भिन्नम् = कर्मणि क्तः। ३. पुत्र का परिचय माता के नाम द्वारा भी वेदाभिमत है। आमुष्यायण द्वारा पुत्र के गोत्रनाम का कथन हुआ है। ४. वेष्ट वेष्टने (भ्वादिः)। ५. गमयामि। ६. माण्डलिकराजा को वरुण कहते हैं (यजु० ८।३७), व्रियते इति वरुणः, प्रजाओं द्वारा उस का वरण (Election चुनाव) होता है इस लिये माण्डलिक राजा वरुण है। ७. वृणोति इति वरुणः, माण्डलिक राजा सम्राट् का चुनाव करते हैं। इसलिये भी इन्हें वरुण कहा जाता है। ८. सम्राट् अर्थात् संयुक्त माण्डलिक राज्यों का प्रतिनिधि। सम् + राट् । साम्राज्य= संयुक्त राष्ट्रशासन (Federal government)। ९. अथर्व० (३।४।१), इसे जनराट् भी कहते हैं, (अथर्व० २०।२१।९)।]
विषय
विजिगीषु राजा के प्रति प्रजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
समस्त प्रजाएं अपने राजा के साथ सहोद्योगी होकर जब विजय प्राप्त करें तो निश्चय करें कि (जितम्) जो विजय किया गया है वह (अस्माकम्) हम सबका है। (उद्भिन्नम्) जो उत्तम फल प्राप्त हुआ है वह भी हम समस्त प्रजाओं का है। राजा अपना कर्त्तव्य समझे कि मैं (विश्वाः) समस्त (अरातीः) शत्रुभूत (पृतनाः) समस्त सेनाओं को (अभि अस्थाम्) उन पर चढ़ाई करके विजय करता हूं। पुरोहित उस विजय के पश्चात् विजेता राजा का अभिषेक करे कि (अहम्) मैं (इदम्) यह (अमुष्यायणस्य) अमुक के गोत्र के (अमुष्याः पुत्रस्य) के पुत्र को (वर्चः) वर्चस, (तेजः) तेज (प्राणम् आयुः) प्राण और आयु को (नि वेष्टयामि) बांधता हूँ और (इदम्) इस प्रकार (एनम्) उस शत्रु को (अधराञ्चम्) नीचे (पादयामि) गिराता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-२४ सिन्धुद्वीप ऋषिः। २६-३६ कौशिक ऋषिः। ३७-४० ब्रह्मा ऋषिः। ४२-५० विहव्यः प्रजापतिर्देवता। १-१४, २२-२४ आपश्चन्द्रमाश्च देवताः। १५-२१ मन्त्रोक्ताः देवताः। २६-३६ विष्णुक्रमे प्रतिमन्त्रोक्ता वा देवताः। ३७-५० प्रतिमन्त्रोक्ताः देवताः। १-५ त्रिपदाः पुरोऽभिकृतयः ककुम्मतीगर्भा: पंक्तयः, ६ चतुष्पदा जगतीगर्भा जगती, ७-१०, १२, १३ त्र्यवसानाः पञ्चपदा विपरीतपादलक्ष्मा बृहत्यः, ११, १४ पथ्या बृहती, १५-१८, २१ चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुव् गर्भा अतिधृतयः, १९, २० कृती, २४ त्रिपदा विराड् गायत्री, २२, २३ अनुष्टुभौ, २६-३५ त्र्यवसानाः षट्पदा यथाक्ष शकर्योऽतिशक्वर्यश्च, ३६ पञ्चपदा अतिशाक्कर-अतिजागतगर्भा अष्टिः, ३७ विराट् पुरस्ताद् बृहती, ३८ पुरोष्णिक्, ३९, ४१ आर्षी गायत्र्यौ, ४० विराड् विषमा गायत्री, ४२, ४३, ४५-४८ अनुष्टुभः, ४४ त्रिपाद् गायत्री गर्भा अनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्। पञ्चशदर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
Whatever is won is ours, secured. Whatever is discovered, uncovered, created is ours, secured. All enemies, all adversities, I have stemmed and stilled. Hereby I secure the life, energy, lustre and splendour of the scion of such and such family and the son of such and such mother. Hereby I cast down this enemy and adversity of this land and its people.
Translation
Ours is the victory (jitam). Ours is the rising up. I have thrown back all the hosts of enemies, I hereby invest the lustre, brilliance, the vital breath and life-span of so and so (amusya), of such and such lineage, and the son of such and such (amusya) woman. I hereby make him fall down (adharām pada yāmi).
Translation
(Says subject) “Whatever has been conquered belongs to us and whatever has been attained belongs to us. ‘(They should realize)’ I will subjugate all the enemy’s army-men in battle”. (The priest says) “I invest the power, vigor, life and vitality in this King who is the son of such a sire and such a mother and here do I overthrow and cast down this enemy”.
Translation
Whatever is obtained through conquest belongs to us. Whatever is gained through war is ours. May I conquer all the forces of the enemy. I seize the power and splendor, the life and vital breathing of the son of such a sire and such a mother. Here do I overthrow and cast him downward.
Footnote
Us: The subjects. I: The King. Him: The enemy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३६−(जितम्) जयेन प्राप्तम् (अस्माकम्) धर्मात्मनाम् (उद्भिन्नम्) उद्भेदनं स्फुरणम्। आयधनम् (अस्माकम्) (अभि अस्थाम्) अभिभूतवानस्मि (विश्वाः) सर्वाः (पृतनाः) अ० ३।२१।३। शत्रुसेनाः (अरातीः) अदानशक्तीः। अनुदारताः (इदम्) इदानीम् (अहम्) शूरः (आमुष्यायणस्य) अ० ४।१६।९। नडादिभ्यः फक्। पा० ४।१।९९। अमुष्य−फक्। आमुष्यायणामुष्यपुत्रिकामुष्यकुलिकेति च। वा० पा० ६।३।२१। षष्ठ्या अलुक्। अमुष्य पुरुषस्य पुत्रस्य (अमुष्याः) अमुकजनन्याः (पुत्रस्य) सुतस्य (वर्चः) प्रतापम् (तेजः) प्रकाशम् (प्राणम्) (आयुः) जीवनम् (नि) नितराम् (वेष्टयामि) आच्छादयामि (इदम्) (एनम्) शत्रुम् (अधराञ्चम्) अधोगतम् (पादयामि) पातयामि ॥
हिंगलिश (1)
Subject
माता पिता की परम्पराओं का आदर Adherence to family tradition
Word Meaning
अपनी तामसिक वृत्तियों को वश में करने से जो विश्व के सब शत्रुओं पर विजय पा कर जो भी हम ने प्राप्त किया है ,वह और अपने माता पिता से प्राप्त वर्चस्व उस जीवन शैलि से दीर्घायु जो भी हम ने पाया है उसे निश्चित रूप से सुरक्षित रखे और अहितकारी शत्रु वृत्तियों को कुचल डालें
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