अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 50
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
22
अम्भो॒ अमो॒ महः॒ सह॒ इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअम्भ॑: । अम॑: । मह॑: । सह॑: । इति॑ । त्वा॒ । उप॑ । आ॒स्म॒हे॒ । व॒यम् ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अम्भो अमो महः सह इति त्वोपास्महे वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठअम्भ: । अम: । मह: । सह: । इति । त्वा । उप । आस्महे । वयम् ॥८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] तू (अम्भः) व्यापक, (अमः) ज्ञानस्वरूप, (महः) पूज्य और (सहः) सहनस्वभाव [ब्रह्म] है, (इति) इस प्रकार से (वयम्) हम (त्वा उप आस्महे) तेरी उपासना करते हैं ॥५०॥
भावार्थ
मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण से परमात्मा की उपासना करके उन्नति करें ॥५०॥इस मन्त्र से लेकर मन्त्र ५३ तक बम्बई गवर्नमेन्ट बुक डिपो और अजमेर वैदिक यन्त्रालय के पुस्तकों में मन्त्र के पीछे आवृत्ति का चिह्न देकर मन्त्र ४८ और ४९ की आवृत्ति मानी है, परन्तु अन्य पुस्तकों में आवृत्ति का चिह्न नहीं हैं ॥
टिप्पणी
५०−(अम्भः) म० १४। आप्लृ व्याप्तौ-असुन्। व्यापकं ब्रह्म (अमः) अम गतौ-असुन्। ज्ञानस्वरूपम् (महः) पूजनीयम् (सहः) सहनशीलम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४७ ॥
विषय
प्रभु सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और शत्रुमर्षक
पदार्थ
१. हे प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (अम्भः) = सर्वव्यापक [आप् व्याप्तौ] (अमः) = सर्वज्ञ [अम् गतौ] (महः) = पूजनीय व शक्तिसम्पन्न तथा (सहः) = शत्रु-सेना का मर्षण करनेवाले (इति) = के रूप में (उपास्महे) = उपासित करते हैं। २. (अम्भः) = सर्वव्यापक (अरुणम्) = प्रकाशस्वरूप (रजतम्) = आनन्दस्वरूप (रज:) = [ज्योति: रज उच्यते -नि०४.१९] तेज:स्वरूप, (सह:) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाले (इति) = के रूप में (वयम्) = हम (त्वा) = हे प्रभो! आपका (उपास्महे) = उपासन करते हैं।
भावार्थ
प्रभु सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, पूजनीय, प्रकाशरूप, आनन्दस्वरूप, तेजस्वरूप व शत्रुओं को कुचल देनेवाले हैं।
भाषार्थ
हे परमेश्वर ! तू (अम्भः) जलवत् शान्त स्वरूप (अमः) ज्ञान स्वरूप, (महः) पूजनीय तथा सबसे महान् (सहः) सहन स्वभाव वाला है (इति) इस प्रकार तुझे जानकर (वयम्) हम (त्वा) तेरी (उपास्महे) उपासना करते हैं।
विषय
परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे परमात्मन् ! (वयम्) हम (त्वा) आपकी (अम्भः) ‘अम्भः’ सर्वव्यापक शान्त जल के समान सर्वप्राणप्रद, (अमः) ज्ञानस्वरूप (महः) महान् तेजस्वरूप, परमपूजनीय (सहः) ‘सहः’ सर्ववशयिता (इति) इन गुणों से (उपास्महे) उपसना करते हैं।
टिप्पणी
(। ०। ०॥) उभयोर्विद्वोः स्थाने ‘नमस्ते अस्तु’ इति अन्नाद्येने’तच मन्त्रद्वयं वैदिकैः परिपठ्यते।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४६ आसुरी गायत्री, ४७ यवमध्या गायत्री, ४८ साम्नी उष्णिक्, ४९ निचृत् साम्नी बृहती, ५० प्राजापत्यानुष्टुप, ५१ विराड गायत्री। षडृचात्मक पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Savita, Aditya, Rohita, the Spirit
Meaning
Lord immense and infinite, omnipotent, great and glorious, patient yet unchallengeable, we adore and worship you.
Translation
We worship you as fruit-fullness, as strength, as might, as over powering force. Homage be to you, O beholder; behold me, O beholder, with intellectual brilliance.
Translation
Considering Thee as exceedingly refulgent, vigorous, supreme, all-conquering,we pay our reverence to Thee. Obeisance to Thee whom all desire to behold. O Beholder of all, please see us. With nourishment, prominence, splendor and the knowledge of the master of vedic speech.
Translation
O God, we pay Thee reverence calling Thee Omnipresent, Wise, Adorable and Patient!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५०−(अम्भः) म० १४। आप्लृ व्याप्तौ-असुन्। व्यापकं ब्रह्म (अमः) अम गतौ-असुन्। ज्ञानस्वरूपम् (महः) पूजनीयम् (सहः) सहनशीलम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४७ ॥
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