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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 54
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - द्विपदार्षी गायत्री सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    14

    भव॑द्वसुरि॒दद्व॑सुः सं॒यद्व॑सुरा॒यद्व॑सु॒रिति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भव॑त्ऽवसु: । इ॒दत्ऽव॑सु: । सं॒यत्ऽव॑सु: । आ॒यत्ऽव॑सु: । इति॑ । त्वा॒ । उप॑ । आ॒स्म॒हे॒ । व॒यम् ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भवद्वसुरिदद्वसुः संयद्वसुरायद्वसुरिति त्वोपास्महे वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भवत्ऽवसु: । इदत्ऽवसु: । संयत्ऽवसु: । आयत्ऽवसु: । इति । त्वा । उप । आस्महे । वयम् ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] तू (भवद्वसुः) धन प्राप्त करानेवाला, (इदद्वसुः) श्रेष्ठ पुरुषों को ऐश्वर्यवान् करनेवाला, (संयद्वसुः) पृथिवी आदि लोकों को नियम में रखनेवाला और (आयद्वसुः) निवास साधनों का फैलानेवाला है, (इति) इस प्रकार से (वयम्) हम (त्वा उप आस्महे) तेरी उपासना करते हैं ॥५४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! परमेश्वर की उपासना से परस्पर सुधार करो, उसने तुम्हारे लिये सुवर्ण आदि धन, श्रेष्ठ पुरुष पृथिवी आदि लोक और अनेक सुख के साधन उत्पन्न किये हैं ॥५४॥

    टिप्पणी

    ५४−(भवद्वसुः) भू सत्तायां प्राप्तौ च-शतृ। भवन्ति प्राप्नुवन्ति वसूनि धनानि यस्मात् सः (इदद्वसुः) इदि परमैश्वर्ये-शतृ, नकारलोपश्छान्दसः। इन्दन्ति परमैश्वर्यवन्तो भवन्ति वसवः श्रेष्ठा यस्मात् सः (संयद्वसुः) यम-नियमे-क्विप्। संयमयति वसून् पृथिव्यादिलोकान् यः सः (आयद्वसुः) आङ्+यमु उपरमे-क्विप्। आयच्छते विस्तारयति वसूनि निवाससाधनानि यः सः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    उरुः पृथुः भवद्धसु:

    पदार्थ

    १.हे प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (उरु:) = सर्वोत्तम [Excellent] (प्रथ:) = सर्वमहान् [Important] (सुभूः) = उत्तम शक्तिरूप में सब पदार्थों में वर्तमान (भुव:) = सबका उत्पत्ति-स्थान (इति) = इस रूप में (उपास्महे) = उपासित करते हैं। २. हे प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको प्रथ:-सर्वज्ञ विस्तृत वर:-सर्वश्रेष्ठ, वरणीय व्यच: सर्वव्यापक, (लोक:) = सर्वद्रष्टा (इति) = इस रूप में (उपास्महे) = उपासित करते हैं। ३. हे प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको भवद्वसुः-[भवन्ति वसूनि यस्मात्] सब वसुओं का उद्भव, (इदवसः) = [इन्दन्ति वसवः श्रेष्ठाः यस्मात्] श्रेष्ठों को ऐश्वर्यशाली बनानेवाला, (संयवसः) = पृथिवी आदि सब वसुओं का नियमन करनेवाला, (आयद्वसुः) = सब निवास-साधनों का विस्तार करनेवाला [आयच्छति विस्तारयति इति] (इति) = इस रूप में (उपास्महे) = उपासित करते है। ४. हे (पश्यत) = सर्वद्रष्टः प्रभो! (ते नमः अस्तु) = आपके लिए नमस्कार हो। (पश्यत) = हे सर्वद्रष्टः! (मा पश्य) = आप मेरा पालन कीजिए [Look-after] मुझे 'अन्नाद्य, यश, तेज व ब्रह्मवर्चस्' प्रास कराइए।

    भावार्थ

    प्रभु उरु हैं, पृथु हैं, भवद्वसु हैं। ये सर्वद्रष्टा प्रभु मुझे अन्नाद्य, यश, तेज व ब्रह्मवर्चस् प्राप्त कराएं।

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    भाषार्थ

    (भवद्वसुः) वसुओं को पैदा करने वाला, (इदद्वसुः) वसुओं में ऐश्वर्ये स्थापित करने वाला, (संयद्वसुः) वसुओं का संयमन करने वाला, (आयद्वसुः) वसुओं में प्रयत्नशील, उन में गति देने वाला१ तू है (इति) यह जान कर (वयम्) हम (त्वा) तेरी (उपास्महे) उपासना करते हैं।

    टिप्पणी

    [भवद्वसुः = भवति वसवः यस्मात् सः। वसवः२ = पृथिवी, अग्नि, अन्तरिक्ष, वायु; द्युलोक, आदित्य; नक्षत्र समूह, चन्द्रमाः। इदद्वसुः= इदि (परमैश्वर्ये) + शतृ + वसुः । आयद्= आ+यती प्रयत्ने+क्विप्; आ+अय् (गतौ) + शतृ]। [१. बृहदा० उप० अध्याय ३, ब्राह्मण ९, खण्ड ३। २. प्रयत्नशील, अथवा उन में गति देने वाला।]

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! (वयम्) हम (त्वा) आपको (भवद्वसुः) समस्त उत्पन्न होने हारे चर अचर पदार्थों में वसने हारे सर्वान्तर्यामी ‘भवद्-वसु’ (इदद्वसुः) परम ऐश्वर्यवान् सूर्यादि पदार्थों में भी वास करने हारे, ‘इदद् वसु’ (संयद्वसुः) समस्त ऐश्वर्य को एकत्र एक काल में धारण करने वाले ‘संयद्-वसु’ और (आयद् वसुः) समस्त लोकों को वश करने हारे. केन्द्रस्थ महा सूर्यों के भी भीतर शक्ति रूप से बसने वाले ‘आयद्-वसु’ (इति) इन नामों, गुणों और रूपों से भी (त्वा उपास्महे) तेरी उपासना करते हैं।

    टिप्पणी

    (। ०। ०॥) उभयोर्विद्वोः स्थाने ‘नमस्ते अस्तु’ इति अन्नाद्येने’तच मन्त्रद्वयं वैदिकैः परिपठ्यते।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ५२, ५३ प्राजापत्यानुष्टुभौ, ५४ आर्षी गायत्री, शेषास्त्रिष्टुभः। पञ्चर्चं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Savita, Aditya, Rohita, the Spirit

    Meaning

    Creator of wealth, value and grandeur of wealth, controller and ordainer of wealth, and the winner of stability of wealth, thus do we worship and adore you.

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    Translation

    We worship you as becoming wealth, as wealth of this and that sort, as the controller of wealth and as the bringer of wealth.

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    Translation

    We pay our reverence to Thee as Thou art rich,abundant in worldly and ultramundane wealth controlling all the wealth and protector of all the wealth.

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    Translation

    O God, we pay Thee reverence calliag'Thee,-the Bestower of opulence, the Ameliorator of the virtuous, the Controller of planets, and the Diffuser of the resources of habitation!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५४−(भवद्वसुः) भू सत्तायां प्राप्तौ च-शतृ। भवन्ति प्राप्नुवन्ति वसूनि धनानि यस्मात् सः (इदद्वसुः) इदि परमैश्वर्ये-शतृ, नकारलोपश्छान्दसः। इन्दन्ति परमैश्वर्यवन्तो भवन्ति वसवः श्रेष्ठा यस्मात् सः (संयद्वसुः) यम-नियमे-क्विप्। संयमयति वसून् पृथिव्यादिलोकान् यः सः (आयद्वसुः) आङ्+यमु उपरमे-क्विप्। आयच्छते विस्तारयति वसूनि निवाससाधनानि यः सः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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