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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 19
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    22

    यद्वो॑ मु॒द्रंपि॑तरः सो॒म्यं च॒ तेनो॑ सचध्वं॒ स्वय॑शसो॒ हि भू॒त। ते अ॑र्वाणः कवय॒ आ शृ॑णोतसुवि॒दत्रा॑ वि॒दथे॑ हू॒यमा॑नाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । व॒: । मु॒द्रम् । पि॒त॒र॒: । सो॒म्यम् । च॒ । ते॒नो॒ इति॑ । स॒च॒ध्व॒म् । स्वऽय॑शस: । हि । भू॒त । ते । अ॒र्वा॒ण॒: । क॒व॒य॒: । आ । शृ॒णो॒त॒ । सु॒ऽवि॒द॒त्रा: । वि॒दथे॑ । हू॒यमा॑ना: ॥३.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वो मुद्रंपितरः सोम्यं च तेनो सचध्वं स्वयशसो हि भूत। ते अर्वाणः कवय आ शृणोतसुविदत्रा विदथे हूयमानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । व: । मुद्रम् । पितर: । सोम्यम् । च । तेनो इति । सचध्वम् । स्वऽयशस: । हि । भूत । ते । अर्वाण: । कवय: । आ । शृणोत । सुऽविदत्रा: । विदथे । हूयमाना: ॥३.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पितरः) हे पितरो ! [रक्षक महात्माओ] (यत्) जो कुछ [कर्म] (वः) तुम्हारा (मुद्रम्) हर्षदायक (च) और (सोम्यम्) सोम्य [प्रियदर्शन उत्तम गुणयुक्त] है, (तेनो) उससे ही [हमें] (सचध्वम्) तुम सींचो [बढ़ाओ] और (हि) अवश्य (स्वयशसः) अपने आप यशवाले (भूत) होओ। (अर्वाणः) शीघ्रगामी, (कवयः) बुद्धिमान्, (सुविदत्राः) बड़े धनी और (विदथे)ज्ञानसमाज में (हूयमानाः) पुकारे गये (ते) वे तुम (आ) आकर (शृणोत) सुनो ॥१९॥

    भावार्थ

    विद्वान् महात्मा लोगअपने शान्तिदायक कर्मों से संसार की रक्षा करके यशस्वी होवें ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(यत्) यत्किञ्चित् कर्म (वः) युष्माकम् (मुद्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। मुदहर्षे-रक्। हर्षकरम् (पितरः) हे रक्षकाः पित्रादयः (सोम्यम्) प्रियदर्शनम्।उत्तमगुणविशिष्टम् (च) (तेनो) तेन-उ। तेनैव कर्मणा (सचध्वम्) षच समवाये सेचने च।संगच्छध्वम्। सिञ्चत (स्वयशसः) आत्मयशस्विनः (हि) अवश्यम् (भूत) भवत (ते) तेयूयम् (अर्वाणः) ऋ गतौ-वनिप्। विज्ञानिनः। शीघ्रगामिनः (कवयः) मेधाविनः (आ)आगत्य (शृणोत) शृणुत (सुविदत्राः) बहुधनाः (विदथे) ज्ञानसमाजे (हूयमानाः) ॥

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    विषय

    'अर्वाणः, कवयः, सुविदत्राः पितरः

    पदार्थ

    १. हे (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त पितरो ! (यत्) = जो (वः) = आपका (मुद्रम्) = आनन्दजनक (सोम्यं च) = और सोम के रक्षण की अनुकूलतावाला अतएव सौम्य स्वभाव का साधनभूत ज्ञान है (तेनो) [तेन उ] = उस ज्ञान के साथ ही (सचध्वम्) = आप हमें प्राप्त होओ। आप (हि) = निश्चय से (स्वयशसः भूत) = अपने ज्ञान व कर्मों के कारण यशस्वी हो। आपके सम्पर्क में हमें भी उत्तम ज्ञान व कर्मों की प्रेरणा प्राप्त होगी। २. (ते) = वे आप (अर्वाण:) = [अर्व to kill] वासनाओं का संहार करनेवाले, कवयः क्रान्तदर्शी व ज्ञानी हो। आभृणोत-आप हमारी पुकार को अवश्य सुनिए। (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (हूयमान:) = पुकारे जाते हुए आप हमारे लिए (सुविदत्रा:) = उत्तम ज्ञानधनों के द्वारा त्राण करनेवाले होते हो।

    भावार्थ

    पितरों से प्राप्त होनेवाला ज्ञान हमें 'आनन्द व सौम्यता प्राप्त करनेवाला होता है। ये पितर वासनाओं का संहार करनेवाले, क्रान्तदशी व उत्तम ज्ञान व धन से हमारा रक्षण करनेवाले हैं।

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    भाषार्थ

    (पितरः) हे पितरो! (यद्) जो (वः) आप की (मुद्रम्) प्रसन्नमुद्रा, (च) और (सोम्यम्) आप का सोम्य स्वभाव है, (तेन स्वयशसः) उन निज गुणों के द्वारा आप यशस्वी (भूत हि) हुए हैं, (सचध्वम्) आप हमें अपना सत्संगी कीजिये। (अर्वाणः) हमारी ओर आने वाले (सुविदत्राः कवयः) हे सुविज्ञ तथा वेदकाव्यों के मर्मज्ञ पितरो! (विदथे) ज्ञानगोष्ठियों में (हूयमानाः) निमन्त्रित हुए (ते) वे आप, (आ शृणोत) हमारी प्रार्थनाओं को पूर्णतया सुनिये।

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    विषय

    स्त्री-पुरुषों के धर्म।

    भावार्थ

    हे (पितरः) पालक जनो ! वृद्ध पुरुषो ! माता पिता गुरु-जनो ! (वः) आप लोगों का (यद्) जो (मुद्रम्) हर्षजनक या मुद्रास्वरूप और (सोम्यं च) सोम्य, सोम, शिष्यों के देने योग्य ज्ञान या सोम, ब्रह्मानन्द परमेश्वर से प्राप्त भजन रस है (तेनो) उसके सहित आप लोग (स्वयशसः) स्वयं यशस्वी और वीर्यवान् होकर (सचध्वम्) हमें प्राप्त होओ और उसी से (हि) निश्चय ले (भूत) आप सामर्थ्यवान् बने रहो। (ते) वे नाना प्रकार के आप लोग (अर्वाणः) उत्तम मार्ग से गति करने वाले (कवयः) क्रान्त प्रज्ञावान्, मेधावी (सुविदत्राः) उत्तम दानशील या उत्तम ज्ञानसम्पन्न आप लोग (विदथे) ज्ञानमय यज्ञ में (हूयमानाः) बुलाये जाकर (आ शृणोत) हमारे वचनों को सुनो।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘भूतम्’ इति प्रायशः। (तृ०) ‘अर्वाश्चः’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Pitaras, parental seniors, honoured and beatified by these achievements, join us with the gracious joy of your heart and accept the honour and adoration which is your rightful due. Progressive visionaries of the past, present and future, pray listen to our call and, thus invoked and invited, be generous benefactors for us all in our joint creative enterprise for progress and development.

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    Translation

    What of you is joyous, O Fathers and delectable there will be at hand, for ye are of own splendor, do ye, rapid poets, listen, beneficent, invoked at the council.

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    Translation

    O elders, you grace us with that which is glorious and generous in yourselves. You are conspicuous by your own fame. May those of you who are industrious, sharp sighted and wealth-possessing, when invited, hear of us in our yajna.

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    Translation

    O elders, whatever act of yours is pleasant and noble, let us advance following in its wake, and be verily gracious in yourselves! Give ear and listen to our prayer, ye energetic sages, intellectual, wealthy, invoked in our learned assembly.

    Footnote

    Teachers, father, mother.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(यत्) यत्किञ्चित् कर्म (वः) युष्माकम् (मुद्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। मुदहर्षे-रक्। हर्षकरम् (पितरः) हे रक्षकाः पित्रादयः (सोम्यम्) प्रियदर्शनम्।उत्तमगुणविशिष्टम् (च) (तेनो) तेन-उ। तेनैव कर्मणा (सचध्वम्) षच समवाये सेचने च।संगच्छध्वम्। सिञ्चत (स्वयशसः) आत्मयशस्विनः (हि) अवश्यम् (भूत) भवत (ते) तेयूयम् (अर्वाणः) ऋ गतौ-वनिप्। विज्ञानिनः। शीघ्रगामिनः (कवयः) मेधाविनः (आ)आगत्य (शृणोत) शृणुत (सुविदत्राः) बहुधनाः (विदथे) ज्ञानसमाजे (हूयमानाः) ॥

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