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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 51
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    21

    उच्छ्वञ्च॑मानापृथि॒वी सु ति॑ष्ठतु स॒हस्रं॒ मित॒ उप॒ हि श्रय॑न्ताम्। ते गृ॒हासो॑घृत॒श्चुतः॑ स्यो॒ना वि॒श्वाहा॑स्मै शर॒णाः स॒न्त्वत्र॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽश्वञ्च॑माना । पृ॒थि॒वी । तु । ति॒ष्ठ॒तु॒ । स॒हस्र॑म् । मित॑: । उप॑ । हि । श्रय॑न्ताम् । ते । गृ॒हास॑: । घृ॒त॒ऽश्चुत॑:। स्यो॒ना:। वि॒श्वाहा॑ । अ॒स्मै॒ । श॒र॒णा: । स॒न्तु॒ । अत्र॑ ॥३.५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्छ्वञ्चमानापृथिवी सु तिष्ठतु सहस्रं मित उप हि श्रयन्ताम्। ते गृहासोघृतश्चुतः स्योना विश्वाहास्मै शरणाः सन्त्वत्र ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽश्वञ्चमाना । पृथिवी । तु । तिष्ठतु । सहस्रम् । मित: । उप । हि । श्रयन्ताम् । ते । गृहास: । घृतऽश्चुत:। स्योना:। विश्वाहा । अस्मै । शरणा: । सन्तु । अत्र ॥३.५१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 51
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों और सन्तानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (उच्छ्वञ्चमाना) फूलतीहुई (पृथिवी) पृथिवी (सु) अच्छे प्रकार (तिष्ठतु) ठहरी रहे, (सहस्रम्) सहस्रप्रकार से (मितः) फैले हुए स्थान [दुर्ग आदि] (हि) अवश्य (उप श्रयन्ताम्) आश्रयलेवें। (ते) यह (गृहासः) घर (घृतश्चुतः) घी से सींचनेवाले, (स्योनाः) सुख करनेहारे और (शरणाः) शरण देनेवाले (विश्वाहा) सब दिन (अत्र) यहाँ पर (अस्मै) इसपुरुष के लिये (सन्तु) होवें ॥५१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य हैकि पृथिवी को भले प्रकार उपकारी करके अच्छे-अच्छे दृढ़ सुखदायक स्थान बनावें॥५१॥

    टिप्पणी

    ५१−(उच्छ्वञ्चमाना) म० ५०। पुलकितावयवा (पृथिवी) (सु) (तिष्ठतु) (सहस्रम्)सहस्रप्रकारेण (मितः) डुमिञ् प्रक्षेपणे-क्विप्, तुक्। प्रक्षिप्ता विस्तृतादुर्गादिनिवासाः (हि) निश्चयेन (उपश्रयन्ताम्) आश्रिता भवन्तु (ते) दृश्यमानाः (गृहासः) गृहाः (घृतश्चुतः) श्चुतिर् क्षरणे-क्विप्। घृतेन क्षारयितारः।सेक्तारः (स्योनाः) सुखकराः (विश्वाहा) सर्वाण्यहानि (अस्मै) पुरुषाय (शरणाः)शरण-अर्शआद्यच्। आश्रयभूताः (सन्तु) (अत्र) अस्मिंल्लोके ॥

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    विषय

    घृतश्चुतो गृहास:

    पदार्थ

    १. (उत् स अञ्चमाना) = उत्साहयुक्त हुई-हुई-उत्तमता से गति करती हुई (पृथिवी) = शक्तियों का विस्तार करनेवाली माता (सुतिष्ठतु) = उत्तमता से स्थित हो। यह उदास होकर खाट पकड़कर न बैठे जाए। (इह) = निश्चय से इस घर में (सहस्त्रं मित:) = सहन संख्याक धन (उपनयन्ताम्) = आश्रय करें। २. (ते) = वे (गृहास:) = घर (घृतश्चुत:) = घृत का क्षरण करनेवाले हों। इन घरों में घृत की धाराएँ बहें। ये घर (विश्वाहा) = सदा (अत्र) = यहाँ-इस जीवन में (अस्मै) = इस अकेले रह गये जन के लिए (स्योना:) = सुख देनेवाले तथा (शरणा:) = रक्षिता (सन्तुः) = हों। बच्चों के पिता चले भी गये हैं तो भी अन्य मामा, चाचा आदि लोग सहायक बने रहें। वे अपनी जिम्मेवारी को पहले से अधिक समझते हुए अपने कर्तव्य को उत्तमता से निभाएँ।

    भावार्थ

    माता के पुरुषार्थ व बुद्धिपूर्वक व्यवहार से घर में धनों की कमी न हो। घर पूर्ववत् घृत के बाहुल्यवाले बने रहें और अन्य बान्धवजन सहारा दिये रक्खें।

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    भाषार्थ

    (उच्छवञ्चमाना) उद्गति अर्थात् उन्नति को प्राप्त होती हुई (पृथिवी) पृथिवी (सु तिष्ठतु) उत्तम स्थिति को प्राप्त करती है। (सहस्रम्) हजारों (मितः) पैमाने में बने घर (उप हि श्रयन्ताम्) पृथिवी पर आश्रय पाते हैं। (ते) वे (गृहासः) पैमाने में मापे हुए घर (घृतश्चुतः) दुग्ध-घृतों के प्रवाहों से सम्पन्न (विश्वाहा स्योनाः) सब दिनों में सुखदायी (सन्तु) हो। और (अत्र) इस भूमि में (अस्मे) इस जीवित प्राणिवर्ग के लिये (शरणाः सन्तु) आश्रयरूप हों।

    टिप्पणी

    [अत्र=यह पद दर्शाता है कि इन गृहों का वर्णन इस पृथिवी पर बने गृहों का वर्णन है, परलोक के गृहों का नहीं। अथर्ववेद के अंग्रेजी अनुवादक “ह्विटनी” ने ‘अत्र’ का अर्थ किया है ‘There’ जो कि नितान्त अनुचित है। “There” करके “ह्विटनी” ने सूचित किया है कि मन्त्र में परलोक के गृहों का वर्णन है।]

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    विषय

    स्त्री-पुरुषों के धर्म।

    भावार्थ

    (उत् ष्वञ्चमाना) ऊपर उठे शरीर वाली, खूब पुलकित शरीर अर्थात् खूब ओषधि और कृषि आदि से सम्पन्न (पृथिवी) पृथिवी (सु तिष्ठतु) उत्तम रीति से विराजमान रहें। (सहस्रम्) हज़ारों लोग (मितः=मिथः) परस्पर मिलकर (उप) पास (श्रयन्ताम्) इस पर अपना बसेरा करें। (ते) वे (गृहासः) गृह (घृतश्चुतः) घृत आदि पुष्टिकारक पदार्थों को देने वाले (स्योनाः) सुखकारक और (अस्मै) इस स्वामी के लिये (विश्वाहा) सब प्रकार से (अत्र) इस लोक में (शरणाः) शरणप्रद (सन्तु) हों।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘घृतश्चुतो भवन्तु’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Waxing and blooming, let the earth be stable and peaceful. Let a thousand homes and people abide at peace and observe measured ways of life. And let those homes, abundant in ghrta and prosperity, full of comfort and joy, be a happy haven for this man for all time.

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    Translation

    Let the earth kindly remain swelling up, for let a thousand props support it; let these houses, dripping with ghee, pleasant, be forever a refuge for him there. (Rg. X.18.12.Var.)

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    Translation

    Let this earth remain having and swelling and thousands of Jivas take their shelters in it. May these shelters in it be quite comfortable, givers of flow of ghee etc. and alround abodes for this jiva.

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    Translation

    May the Earth prosper through cultivation. May thousands of persons dwell together on it. May these houses, the suppliers of nutritious diet and comfort, afford refuge for ever in this world to their lord.

    Footnote

    See Rig, 10-18-12.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५१−(उच्छ्वञ्चमाना) म० ५०। पुलकितावयवा (पृथिवी) (सु) (तिष्ठतु) (सहस्रम्)सहस्रप्रकारेण (मितः) डुमिञ् प्रक्षेपणे-क्विप्, तुक्। प्रक्षिप्ता विस्तृतादुर्गादिनिवासाः (हि) निश्चयेन (उपश्रयन्ताम्) आश्रिता भवन्तु (ते) दृश्यमानाः (गृहासः) गृहाः (घृतश्चुतः) श्चुतिर् क्षरणे-क्विप्। घृतेन क्षारयितारः।सेक्तारः (स्योनाः) सुखकराः (विश्वाहा) सर्वाण्यहानि (अस्मै) पुरुषाय (शरणाः)शरण-अर्शआद्यच्। आश्रयभूताः (सन्तु) (अत्र) अस्मिंल्लोके ॥

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