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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - सतः पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    28

    प्र॑जान॒त्यघ्न्ये जीवलो॒कं दे॒वानां॒ पन्था॑मनुसं॒चर॑न्ती। अ॒यं ते॒गोप॑ति॒स्तं जु॑षस्व स्व॒र्गं लो॒कमधि॑ रोहयैनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽजा॒न॒ती । अ॒घ्न्ये॒ । जी॒व॒ऽलो॒कम् । दे॒वाना॑म् । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽसं॒चर॑न्ती ।अ॒यम् । ते॒ । गोऽप॑ति: । तम् । जु॒ष॒स्व॒ । स्व॒:ऽगम् । लो॒कम् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । ए॒न॒म् ॥३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजानत्यघ्न्ये जीवलोकं देवानां पन्थामनुसंचरन्ती। अयं तेगोपतिस्तं जुषस्व स्वर्गं लोकमधि रोहयैनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽजानती । अघ्न्ये । जीवऽलोकम् । देवानाम् । पन्थाम् । अनुऽसंचरन्ती ।अयम् । ते । गोऽपति: । तम् । जुषस्व । स्व:ऽगम् । लोकम् । अधि । रोहय । एनम् ॥३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    नियोगविधान का उपदेश।

    पदार्थ

    (अघ्न्ये) हे निष्पापस्त्री ! तू (जीवलोकम्) जीवित मनुष्यों के समाज को (प्रजानती) अच्छे प्रकारजानती हुई और (देवानाम्) विद्वानों के (पन्थाम्) मार्ग पर (अनुसंचरन्ती) निरन्तरचलती हुई है। (अयम्) यह [नियुक्त पति] (ते) तेरी (गोपतिः) वाणी का रक्षक [वंशचलाने की बात निबाहनेवाला] है, (तम्) उसको (जुषस्व) सेवन कर (एनम्) इसको (स्वर्गम् लोकम्) स्वर्गलोक [सुख के समाज] में (अधि) अधिकारपूर्वक (रोहय)प्रकट कर ॥४॥

    भावार्थ

    कुल की वृद्धि के मर्मको जाननेहारी धर्मशीला स्त्री नियुक्त पति से यथेष्ट कुलवर्धक सन्तान अपने लियेऔर उस पुरुष के लिये उत्पन्न करे और इस प्रकार वे दोनों अपने-अपने कुलों कोबढ़ाकर अपने वचन की रक्षा करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(प्रजानती) प्रकर्षेण जानाना (अघ्न्ये) हेअहन्तव्ये। निष्पापे (जीवलोकम्) जीवितानां समाजम् (देवानाम्) विदुषाम् (पन्थाम्)पन्थानम् (अनुसंचरन्ती) निरन्तरं गच्छन्ती (अयम्) नियुक्तः पतिः। दधिषुः (ते) तव (गोपतिः) वाचो रक्षकः (जुषस्व) सेवस्व। प्रीणीहि (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (लोकम्)समाजम् (अधि) अधिकृत्य (रोहय) प्रादुर्भावय। प्रापय (एनम्) पुरुषम् ॥

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    विषय

    घर को स्वर्ग बनाना

    पदार्थ

    १. हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये नारि! तू (जीवलोकं प्रजानती) = जीवति प्राणियों को जाननेवाली हो-उनका ध्यान करनेवाली हो। (देवानां पन्थाम् अनुसंचरन्ती) = देवों के मार्ग पर चलती हुई हो-दिव्य गुणोंवाली बनने का प्रयत्न कर। २. (अयम्) = यह (ते) = तेरा पति (गोपति:) = इन्द्रियों का स्वामी है-जितेन्द्रिय है, (तं जुषस्व) = इस जितेन्द्रिय पति को प्रीतिपूर्वक सेवति करनेवाली हो। (एनम्) = इसको (स्वर्ग लोकम् अधिरोहय) = स्वर्गलोक में आरूढ़ करनेवाली हो। इस जितेन्द्रिय पुरुष का यह घर स्वर्ग बने। स्वर्ग बनाने का उत्तरदायित्व पत्नी पर ही तो है।

    भावार्थ

    पत्नी गौ के समान अहन्तव्य है। यह सन्तानों का ध्यान करती है-दिव्यगणों को धारण करती है। अपने जितेन्द्रिय पति का प्रीतिपूर्वक धारण-सेवन करती हुई यह घर को स्वर्ग बनाती है।

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    भाषार्थ

    (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये विधवे ! तू (जीवलोकम्) जीवित लोगों के रीति-रिवाज को (प्रजानती) जानती हुई, और (देवानाम्) देवकोटि के लोगों के (पन्थाम्) मार्ग पर (अनु संचरन्ती) निरन्तर या तदनुकूल चलती हुई, (तम्) उस का (जुषस्व) प्रीति से सेवन कर, जो कि (अयम्) यह (ते गोपतिः) तेरी इन्द्रियों का पति बना है। और तू (एनम्) इस मृत-पति को (स्वर्ग लोकम्) स्वर्ग लोक की ओर जाने के लिये (अधि रोहय) चिताधिरूढ़ करने की स्वीकृति दे।

    टिप्पणी

    [विधवा सदा अघ्न्या है। मृतपति के पश्चात् उसे जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है। देवकोटि के लोगों का मार्ग यही है। विधवा चाहे तो नियोग या पुनर्विवाह कर सकती है। यह मार्ग देवों द्वारा अनुमोदित है। स्वर्ग = स्वर्ग नाम सुखविशेषभोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है (सत्यार्थ प्रकाश, स्वमन्तव्यामन्तव्य (नं० ४२)। अर्थात् भावी जन्म में सुख भोगने के लिये। अथवा इस नवपति को तू स्वर्गीय सुख पर आरूढ़ कर, निज प्रेममय व्यवहारों द्वारा]

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    विषय

    स्त्री-पुरुषों के धर्म।

    भावार्थ

    हे (अघ्न्ये) अघ्न्या, कभी न मारने योग्य गौ के समान तू भी कभी न मारने योग्य, नित्य पालन करने योग्य स्त्रि ! तू (जीवलोकं प्रजानती) जीवित लोगों को भली प्रकार जानती हुई और (देवानां) देव, दानशील, विद्वान्, श्रेष्ठ पुरुषों के (पन्थाम्) मार्ग, शिष्टाचार को (अनु संचरन्ती) पालन करती हुई यदि तू अपने इन्द्रियों को वश न कर सके तो (अयम्) यह प्रत्यक्ष में स्थित नियुक्त पति (ते) तेरे लिये (गोपतिः) गोपति के समान स्वयं जितेन्द्रिय पुरुष है। (तं जुषस्व) उसको प्रेम से सेवन कर। और (एनम्) इसको ही (स्वर्गं लोकम् अधिरोहय) स्वर्गलोक, सुखमय-लोक को प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O woman, you are inviolable, never to be hurt in any way. You know the ways and mores of the living world, and you follow the paths of the divinities. This man (who offered his hand in marriage to you) is now the protector of your person, mind and senses. He is your husband, love him, and with your love, rise and raise him to the heights of happiness in the world.

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    Translation

    Foreknowing O inviolable one, the world of the living, moving together (with him) upon the road of the gods - this is thy herdsman; enjoy him; make him ascend to the heavenly world.

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    Translation

    O never punishable woman, you knowing the path of learned men and the ways of organs and adhering to that accept the living husband. This your husband is the master over his limbs and you serve him with love. You make him rise to happiness (through the house-hold life).

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    Translation

    Knowing the world fully well, O sinless woman, treading the path of the sages, joyfully serve this husband of thine, who is the guardian of thy vow of married life and give him intense joy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(प्रजानती) प्रकर्षेण जानाना (अघ्न्ये) हेअहन्तव्ये। निष्पापे (जीवलोकम्) जीवितानां समाजम् (देवानाम्) विदुषाम् (पन्थाम्)पन्थानम् (अनुसंचरन्ती) निरन्तरं गच्छन्ती (अयम्) नियुक्तः पतिः। दधिषुः (ते) तव (गोपतिः) वाचो रक्षकः (जुषस्व) सेवस्व। प्रीणीहि (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (लोकम्)समाजम् (अधि) अधिकृत्य (रोहय) प्रादुर्भावय। प्रापय (एनम्) पुरुषम् ॥

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