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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 53
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    16

    इ॒मम॑ग्ने चम॒संमा वि जि॒ह्वरः॑ प्रि॒यो दे॒वाना॑मु॒त सो॒म्याना॑म्। अ॒यं यश्च॑म॒सोदे॑व॒पान॒स्तस्मि॑न्दे॒वा अ॒मृता॑ मादयन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । अ॒ग्ने॒ । च॒म॒सम् । मा । वि । जि॒ह्व॒र॒: । प्रि॒य: । दे॒वाना॑म् । उ॒त । सो॒म्याना॑म् । अ॒यम् । य: । च॒म॒स: । दे॒व॒ऽपान॑: । तस्मि॑न् । दे॒वा: । अ॒मृता॑: । मा॒द॒य॒न्ता॒म् ॥३.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममग्ने चमसंमा वि जिह्वरः प्रियो देवानामुत सोम्यानाम्। अयं यश्चमसोदेवपानस्तस्मिन्देवा अमृता मादयन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । अग्ने । चमसम् । मा । वि । जिह्वर: । प्रिय: । देवानाम् । उत । सोम्यानाम् । अयम् । य: । चमस: । देवऽपान: । तस्मिन् । देवा: । अमृता: । मादयन्ताम् ॥३.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    घर की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् ! (इमम्) इस (चमसम्) खाने योग्य अन्न को (वि) बिगाड़ कर (मा जिह्वरः) मत नष्ट कर, वह [अन्न] (देवानाम्) विद्वानों का (उत) और (सोम्यानाम्) ऐश्वर्यवालों का (प्रियः) प्रिय है। (अयम्) यह (यः) जो (चमसः) अन्न (देवपानः) इन्द्रियों कारक्षक है, (तस्मिन्) उस में (अमृताः) अमर [न मरे हुए पुरुषार्थी] (देवाः)व्यवहारकुशल लोग (मादयन्ताम्) [सबको] तृप्त करें ॥५३॥

    भावार्थ

    मनुष्य शुद्ध अन्न आदिपदार्थ के सेवन से विद्वान् और ऐश्वर्यवान् होकर शरीररक्षा करके सबको सुखीरक्खें ॥५३॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१६।८ ॥

    टिप्पणी

    ५३−(इमम्) उपस्थितम् (चमसम्) अत्यविचमि०। उ० ३।११७। चमु अदने-असच्। भक्षणीयं पदार्थम् (वि) विकृत्य (मा जिह्वरः) ह्वृ कौटिल्ये-णिचि चङि लुङि रूपम्। कुटिलं नष्टं मा कार्षीः (प्रियः) प्रीतिकरः (देवानाम्) विदुषाम् (उत) अपि च (सोम्यानाम्)ऐश्वर्ययोग्यानाम् (अयम्) (यः) (चमसः) भक्षणीयपदार्थः (देवपानः) पारक्षणे-ल्युट्। इन्द्रियरक्षणः (तस्मिन्) पदार्थे (देवाः) व्यवहारकुशलाः (अमृताः)अमराः। पुरुषार्थवन्तः (मादयन्ताम्) तर्पयन्तु सर्वान् ॥

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    विषय

    शरीररूप चमस्

    पदार्थ

    १. प्रगतिशील जीव को 'अग्नि' कहते हैं। यह प्रगतिशील जीव अपने इस शरीर को (चमस्) = सोमपात्र बनाता है। इस शरीररूप चमस् में वह सोम [वीर्य] को सुरक्षित रखता है। जैसे घृतपूर्ण चम्मच कुछ हेड़ा हो जाए तो घृत के गिरने की आशंका हो जाती है, उसीप्रकार इस शरीररूप चमस् के भी टेढ़ा होने से इसमें कुटिलता के आने से-सोम का नाश हो जाता है, अत: मन्त्र में कहते हैं कि हे अग्ने-प्रगतिशील जीव। (इमं चमसम्) = इस सोम के पात्रभूत शरीर को (मा विजिहर:) = तु कुटिल मत होने दे। यदि यहाँ कुटिल वृत्तियाँ पनप उठी तो सोम का रक्षण सम्भव न रहेगा। सोम के रक्षण से ही तो यह शरीर (देवानाम) = देवों का होता है, उत और यह शरीर (सोम्यानाम्) = सौम्य-शान्त पुरुषों का होता है, अर्थात् सोम के सुरक्षित होने पर हम देववृत्तिवाले व सौम्य स्वभाव के होते हैं। यह (चमस्) = देवों व सौम्य पुरुषों का (प्रियः) = अत्यन्त प्रिय होता है, कान्तिसम्पन्न होता है। २. (अयम्) = यह जो (चमस:) = सोमपात्र बना हुआ शरीर (देवपान:) = देवों के सोमपान का स्थान बनता है। [पिबन्ति अस्मिन् इति] (तस्मिन्) = उस शरीर में (देवा:) = देव लोग (अमृता:) = रोगरूप मृत्युओं से आक्रान्त न होते हुए तथा विषय वासनाओं के पीछे न मरते हुए (मादयन्ताम्) = हर्ष का अनुभव करें। इस सोमपात्रभूत शरीर में देव नीरोगता व निर्मलता के आनन्द का अनुभव करते हैं।

    भावार्थ

    कुटिलवृत्तियों से ऊपर उठकर हम शरीर में सोमरक्षण के द्वारा इस शरीर को देवों व सौम्य पुरुषों का प्रिय शरीर बनाएँ और नीरोग व निर्मलवृत्ति के बनकर आनन्द का अनुभव करें।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्निहोत्र की अग्नि! मेरे (इमं चमसम्) इस यज्ञिय चमस को (मा वि जिह्वरः) अपनी ज्वाला द्वारा विकृत न कर। यह यज्ञिय-चमस (देवानाम् उत सोम्यानाम्) देवों और गृहस्थी-पितरों को (प्रियः) प्रिय है। (यः अयं चमसः) जो यह यज्ञिय-चमस (देवपानः) देवों के भी खान-पान का साधन है, (तस्मिन्) उस में (अमृताः देवाः) मोक्षाभिलाषी देव भी (मादयन्ताम्) कामना वाले हों।

    टिप्पणी

    [अग्निहोत्र का विधान सब के लिये है। जरावस्था में अग्निहोत्र का बन्धन छूट जाता है। अग्नि में यज्ञिय-चमस द्वारा आहुति डालते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि अग्नि की ज्वाला से यह चमस विकृत न हो जाय। देव बनना चाहनेवाले गृहस्थी, वानप्रस्थ धारण कर लेने पर भी, अग्निहोत्र करते हैं; और सोम (= वीर्य) का सदुपयोग करनेवाले गृहस्थी भी सदा अग्निहोत्र करते हैं, यह अग्निहोत्र इन दोनों के लिये प्रिय है। देवलोग भी बिना अग्निहोत्र किये खान-पान नहीं करते। अग्निहोत्र के पश्चात् ही वे खान-पान करते हैं। देव वे हैं, जो कि मोक्षाभिलाषी होकर वानप्रस्थी हो जाते हैं।]

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    विषय

    स्त्री-पुरुषों के धर्म।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! अग्रणी ! सेनापते ! तू (इमम्) इस (चमसम्) पृथ्वी के भोग्य पदार्थों के भोग करने वाले राजा के प्रति (मा वि जिह्वरः) कुटिलता का वर्ताव मत कर। यह (देवानां प्रियः) देव, समस्त विद्वानों और राजाओं का (उत) और (सोम्यानाम्) सोम, ज्ञान से सम्पन्न विद्वानों का (प्रियः) प्यारा है। (अयम्) यह (यः) जो (देवपानः) देवों, विद्वानों का रक्षक (चमसः) स्वयं भी नाना भोग्य पदार्थों का भोक्ता है। (तस्मिन्) उसके आश्रय पर रहने वाले (अमृताः) अमृतरूप, मृत्युरहित दीर्घायु (देवाः) देवगण, विद्वान् पुरुष (मादयन्ताम्) हर्षित और आनन्दित हो। यज्ञ चमस में भी शब्दसाम्य से श्लेष पूर्वक इसकी योजना स्पष्ट है।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘एष’ (च०) ‘मादयन्ते’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Agni, leading light of life, pray do not distort and vitiate this chamas, ladle of life’s yajna (full of exciting gifts for the fire of life). It is the darling of Devas and lovers of soma, those who create as well as enjoy the ecstasy of yajnic living. It is the ladle in which and from which the divinities receive the nectar of life. Let the immortal Devas here in this life rejoice in their acts of creativity and the consequent fruits.

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    Translation

    This bowl, O Agni, do not warp; (it is) dear to the gods and the delectable (Fathers); this bowl here for the gods to drink from - in it let the immortal gods revel. (of.Rg.X.16.8)

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    Translation

    The fire does not upset this chamas, the body of man (which is the means of enjoying worldly pleasures and suffering from worldly pains). This body is favorite to Devas, the organs including mind and spirit and the vital airs which keep it refreshed. This body is the meant of the preservation of the organs etc. and let them being immortal play in pleasure in it.

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    Translation

    O learned person, don’t spoil and destroy this eatable food. The learned and greatmen love it. This food is the nourisher of our organs. Aged, learned persons derive pleasure through it.

    Footnote

    See Rig, 10-16-8.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५३−(इमम्) उपस्थितम् (चमसम्) अत्यविचमि०। उ० ३।११७। चमु अदने-असच्। भक्षणीयं पदार्थम् (वि) विकृत्य (मा जिह्वरः) ह्वृ कौटिल्ये-णिचि चङि लुङि रूपम्। कुटिलं नष्टं मा कार्षीः (प्रियः) प्रीतिकरः (देवानाम्) विदुषाम् (उत) अपि च (सोम्यानाम्)ऐश्वर्ययोग्यानाम् (अयम्) (यः) (चमसः) भक्षणीयपदार्थः (देवपानः) पारक्षणे-ल्युट्। इन्द्रियरक्षणः (तस्मिन्) पदार्थे (देवाः) व्यवहारकुशलाः (अमृताः)अमराः। पुरुषार्थवन्तः (मादयन्ताम्) तर्पयन्तु सर्वान् ॥

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