अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 70
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
16
पुन॑र्देहिवनस्पते॒ य ए॒ष निहि॑त॒स्त्वयि॑। यथा॑ य॒मस्य॒ साद॑न॒ आसा॑तै वि॒दथा॒ वद॑न्॥
स्वर सहित पद पाठपुन॑: । दे॒हि॒ । व॒न॒स्प॒ते॒ । य: । ए॒ष: । निऽहि॑त: । त्वयि॑ । यथा॑ । य॒मस्य॑ । सद॑ने । आसा॑तै । वि॒दथा॑ । वद॑न् ॥३.७०॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनर्देहिवनस्पते य एष निहितस्त्वयि। यथा यमस्य सादन आसातै विदथा वदन्॥
स्वर रहित पद पाठपुन: । देहि । वनस्पते । य: । एष: । निऽहित: । त्वयि । यथा । यमस्य । सदने । आसातै । विदथा । वदन् ॥३.७०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहाश्रम में मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(वनस्पते) हे सेवकोंके रक्षक [परमात्मन् !] [वह श्रेष्ठ गुण] (पुनः) निश्चय कर के (देहि) दे, (यःएषः) जो यह [श्रेष्ठ गुण] (त्वयि) तुझ में (निहितः) दृढ़ रक्खा है। (यथा) जिस सेयह [जीव] (यमस्य) न्याय के (सदने) घर में (विदथा) ज्ञानों को (वदन्) बताता हुआ (आसातै) बैठे ॥७०॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर केसर्वव्यापक उत्तम गुणों को अवश्य प्रयत्न से प्राप्त करके न्याय के साथ संसारमें उपकार करे ॥७०॥
टिप्पणी
७०−(पुनः) अवधारणे (देहि) प्रयच्छ श्रेष्ठगुणम् (वनस्पते) वनसेवने-अच्। हे वनानां सेवकानां पालक परमेश्वर (यः) श्रेष्ठगुणः (एषः) (निहितः)दृढं, धृतः (त्वयि) (यथा) येन प्रकारेण (यमस्य) न्यायस्य (सदने) गृहे (आसातै)लेटि रूपम्। आसीत्। उपविशेत् (विदथा) ज्ञानानि (वदन्) कथयन्। उपदिशन् ॥
विषय
मुक्तात्मा का ज्ञानोपदेश के लिए समय-समय पर आना
पदार्थ
१. हे वनस्पते प्रकाश की किरणों के स्वामिन् प्रभो। (यः एष:) = जो यह मुक्त जीव (त्वयि निहित:) = शरीर को छोड़कर आपमें निहित हुआ है, इसे (पुनः देहि:) = फिर हमारे लिए प्रास कराइए। २. (यथा) = जिससे (यमस्य सादने) = उस सर्वनियन्ता आपके आश्रय में रहता हुआ (विदथा वदन्) = हमारे लिए ज्ञानों का उपदेश करता हुआ (आसातै) = आसीन हो।
भावार्थ
मुक्तात्मा इस संसार में पुन: आएँ और प्रभु के आश्रय में निवास करते हुए वे हमारे लिए ज्ञानोपदेश करें।
भाषार्थ
(वनस्पते) हे ब्रह्मचर्याश्रम के समग्र वन के स्वामिन् आचार्य ! (यः) जो (एषः) यह ब्रह्मचारी (त्वयि) आप को (निहितः) सौंपा गया है, उसे (पुनः) फिर (देहि) हमारे सुपुर्द कर दीजियेगा। (यथा) ताकि (यमस्य) राष्ट्रनियन्ता राज द्वारा शासित (सादने) गृहस्थोपयोगी गृहों में, (विदथा वदन्) विद्याओं और विद्वानों का कथन और उपदेश करता हुआ (आसातै) यह निवास करे।
टिप्पणी
[वेदों की दृष्टि में ब्रह्मचर्याश्रम वनों में होने चाहियें, और उन वनों पर स्वामित्व उस-उस आचार्य का होना चाहिये। ब्रह्मचर्याश्रम की व्यवस्था और वन्य उपजों पर उस-उस आचार्य का अधिकार हो, ताकि वन्य फलों और वन्य भूमि पर कृषि द्वारा आश्रम का खर्च चलता रहे। नागरिक सम्पत्तियों पर राष्ट्रनियन्ता राजा की व्यवस्था होनी चाहिये। शिक्षा व्यवस्था पर आचार्यो का ही नियन्त्रण होना चाहिये।]
विषय
स्त्री-पुरुषों के धर्म।
भावार्थ
हे (वनस्पते) वनस्पते ! महावृक्ष के समान सब पर अपनी कृपा, छाया रखने हारे सर्वशरण परमेश्वर (यः एषः) जो यह पुरुष (त्वयि) तुझमें (निहितः) निलीन हो जाता है इस देह को छोड़ कर तेरे पास पहुंच जाता है तू उसको (पुनः देहि) पुनः शरीर प्रदान कर (यथा) जिससे (यमस्य) सर्वनियन्ता के (सादने) प्राप्त करने में या उसके शरण में रहता हुआ ही वह मुक्त, परोपकारी जन सर्वसाधारण को (विदथानि) ज्ञानों का (वदन्) उपदेश करता हुआ (आसातै) इस लोक में विद्यमान रहे। पं० ह्विटनी को इस मन्त्र में वृक्ष के खोखल में मुर्दा गाड़ने का स्वप्न दीखा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Vanaspate, lord of love, beauty and goodness, give us this love and dedication again which abides deep and safe at heart in you so that man may abide in the house of Yama, the world of justice and noble action, knowing, pursuing and also speaking of knowledge and karma to others.
Translation
Give back, O forest tree, him who is deposited here with thee, that in Yama’s seat he may sit speaking counsels.
Translation
This fire (Vanaspati) returns to giver whatever has been offered in it (in Yajna). So that the Yajmana may remain in the world which is the home of All-controlling God, preching the various knowledge and acts (to people).
Translation
O God, send back on Earth, this emancipated soul dwelling in Thee, so that it may remain in this world, preaching knowledge to ordinary mortals, remaining under Thy shelter!
Footnote
This verse preaches the return of soul to the Earth. The period of salvation cannot be unlimited, as the fruit of the efforts of a soul with limited powers cannot be unlimited. If there be no return from salvation, a time may come when all souls would be emancipated, and the world-come to a standstill. Maharshi Dayanand has fully dilated upon this subject in the Satyarth Prakash. Whitney interprets the verse as putting the corpse in the hollow of a tree and Sayana as burying the bones of a dead man beneath a tree. Both the explanations are irrational and unacceptable.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७०−(पुनः) अवधारणे (देहि) प्रयच्छ श्रेष्ठगुणम् (वनस्पते) वनसेवने-अच्। हे वनानां सेवकानां पालक परमेश्वर (यः) श्रेष्ठगुणः (एषः) (निहितः)दृढं, धृतः (त्वयि) (यथा) येन प्रकारेण (यमस्य) न्यायस्य (सदने) गृहे (आसातै)लेटि रूपम्। आसीत्। उपविशेत् (विदथा) ज्ञानानि (वदन्) कथयन्। उपदिशन् ॥
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