अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 12
ऋषिः - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
93
ये सूर्यं॒ न तिति॑क्षन्त आ॒तप॑न्तम॒मुं दि॒वः। अ॒राया॑न्बस्तवा॒सिनो॑ दु॒र्गन्धीं॒ल्लोहि॑तास्या॒न्मक॑कान्नाशयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठये । सूर्य॑म् । न । तिति॑क्षन्ते । आ॒ऽतप॑न्तम् । अ॒मुम् । दि॒व: । अ॒राया॑न् । ब॒स्त॒ऽवा॒सिन॑: । दु॒:ऽगन्धी॑न् । लोहि॑तऽआस्यान् । मक॑कान् । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये सूर्यं न तितिक्षन्त आतपन्तममुं दिवः। अरायान्बस्तवासिनो दुर्गन्धींल्लोहितास्यान्मककान्नाशयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठये । सूर्यम् । न । तितिक्षन्ते । आऽतपन्तम् । अमुम् । दिव: । अरायान् । बस्तऽवासिन: । दु:ऽगन्धीन् । लोहितऽआस्यान् । मककान् । नाशयामसि ॥६.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गर्भ की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो [उल्लू आदि] (दिवः) आकाश से (आतपन्तम्) चमकते हुए (अमुम्) उस (सूर्यम्) सूर्य को (न) नहीं (तितिक्षन्ते) सहते हैं। (अरायान्) [उन] अलक्ष्मीवालों, (बस्तवासिनः) बकरे समान वस्त्रवालों, (दुर्गन्धीन्) दर्गन्धवालों, (लोहितास्यान्) रुधिर मुखवालों, (मककान्) टेढ़ी गतिवालों को (नाशयामसि) हम नष्ट करते हैं ॥१२॥
भावार्थ
मनुष्य उल्लू, चिमगादड़ आदि जन्तुओं को, जिनसे दुर्गन्ध फैलती है, हटावें ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(ये) उलूकादयो जन्तवः (सूर्यम्) (न) निषेधे (तितिक्षन्ते) तिज क्षमायां स्वार्थे सन्। सहन्ते (आतपन्तम्) सर्वतो दीप्यमानम् (अमुम्) प्रसिद्धम् (दिवः) आकाशात् (अरायान्) अश्रीकान् (बस्तवासिनः) बस्त गतिहिंसायाचनेषु-घञ्, वस आच्छादने-घञ्, इनि। छाग इव वस्त्रोपेतान् (दुर्गन्धीन्) गन्धस्येदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः। पा० ५।४।१३५। बाहुलकाद् गन्धस्य इकारादेशः। दुष्टगन्धोपेतान् (लोहितास्यान्) रुधिरोपेतमुखान् (मककान्) मकि भूषे गतौ च-अच्, नुमभावः। कुत्सिते। पा० ५।३।७४। क प्रत्ययः। कुत्सितगतीन् (नाशयामसि) ॥
विषय
ये सूर्यं न तितिक्षन्ते
पदार्थ
१.(ये) = जो (कृमि दिव:) = द्युलोक से (आतपन्तम्) = सर्वत: ताप करते हुए (अमुं सूर्यम्) = उस सूर्य को न (तितिक्षन्ते) = नहीं सहन करते, अर्थात् गर्मी से नष्ट हो जाते हैं, उन (अरायान्) = श्री के विनाशक-श्रीरहित (वस्तवासिन:) = चर्म में निवास करनेवाले-त्वचा पर चिपट जानेवाले (दुर्गन्धीन्) = दुष्ट गन्धवाले (लोहितास्यान्) = लाल-लाल मुखवाले, अर्थात् रुधिर लिस मुखबाले (मककान्) = कुत्सित गतिवाले कृमिर्यों को (नाशयामसि) = विनष्ट करते हैं।
भावार्थ
सूर्य की गर्मी में जो नष्ट हो जाते हैं, उन अलक्ष्मी के कारणभूत, चमड़े में - चिपटनेवाले, दुर्गन्धयुक्त, रक्तमुख कृमियों को हम नष्ट करते हैं।
भाषार्थ
(ये) जो (दिवः) द्युलोक से (आतपन्तम्) सर्वत्र ताप करते हुए (अमु१) इस (सूर्यम्) सूर्य को (न तितिक्षन्ते) नहीं सह सकते, उन (अरायान्) अरातियों दुश्मनों को, जोकि (बस्तवासिनः) भेड़ के चमड़ की वास वाले (दुर्गन्धीन्) दुर्गन्ध वाले, तथा (लोहितास्यान) खूनी मुखों वाले (मककान्) मकक१ नामक श्वापद हैं, उन्हें (नाशयामसि) हम नष्ट करते हैं।
टिप्पणी
[यह मन्त्र भी वानप्रस्थियों तथा वनवासियों सम्बन्धी है। श्वापद सूर्य के प्रकाश को नहीं सह सकते, अतः ये दिन के समय छिपे रहते हैं। श्वापदों के शरीरों से दुर्गन्ध आती है। शिकार को खाने से इन के मुख रक्त से लिपे रहते हैं। इन श्वापदों को मन्त्र में मकक कहा है]। [१. मककान्= मा + ककान्; कक लौल्ये (भ्वादिः), लौल्य= चञ्चलता। श्वापद दिन में सूर्य के प्रकाश में छिपे रहते हैं, चञ्चल अर्थात् चलते नहीं, विचरते नहीं,। लौल्य= Roam about (आप्टे)।]
विषय
कन्या के लिये अयोग्य और वर्जनीय वर और स्त्रियों की रक्षा।
भावार्थ
(ये) जो (दिवः) आकाश से (आतपन्तम्) सब ओर प्रकाश फेंकते हुए, तपते हुए (सूर्यम्) सूर्य के समान शत्रुओं को परिताप देने वाले, (अमुम्) उस राजा के प्रताप को (न तितिक्षन्ते) नहीं सहन करते ऐसे (अरायान्) दरिद्र, नीच, (बस्तवासिनः) चाम ओढ़ने वाले, (दुर्गन्धीन्) दुर्गन्ध पदार्थों के सेवी (लोहितास्यान्) रुधिर से मुंह लाल किये, (मककान्) हीनाचार वाले पुरुषों को हम (नाशयामसि) विनष्ट करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवता। उत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ३, ४-९,१३, १८, २६ अनुष्टुभः। २ पुरस्ताद् बृहती। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ११, १२, १४, १६ पथ्यापंक्तयः। १५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी। १७ त्र्यवसाना सप्तपदा जगती॥
इंग्लिश (4)
Subject
Foetus Protection
Meaning
Those that cannot survive in the light of the sun shining from yon heaven above, those destructive germs and parasites of sheep skin, awfully smelling, blood¬ mouthed, those germs and insects we destroy.
Translation
Those who cannot tolerate the Sun, burning down from the sky, those troublesome mosquitoes we destroy. We destroy those troublesome mosquitoes, who cannot tolerate the sun burning down from the sky, live on goats, and are evil-smelling and bloody-mouthed.
Translation
We, the physicians destroy all those trouble-some germs which cannot tolerate this sun that shines to warm us from the space and which are known as—Bastavasinah (the germs having goat-like mouth), Durgandhinah (the germs which release bad smell), Lehithsyah (the germs which have red mouth) and Mamakah (the germs which have reverse movement).
Translation
All those who cannot bear the Sun who warms us yonder from the sky, and hide themselves at night, penniless, wretched people, who dress themselves in goat’s skin, malodorous, with bloody mouths, such characterless persons, we drive away.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(ये) उलूकादयो जन्तवः (सूर्यम्) (न) निषेधे (तितिक्षन्ते) तिज क्षमायां स्वार्थे सन्। सहन्ते (आतपन्तम्) सर्वतो दीप्यमानम् (अमुम्) प्रसिद्धम् (दिवः) आकाशात् (अरायान्) अश्रीकान् (बस्तवासिनः) बस्त गतिहिंसायाचनेषु-घञ्, वस आच्छादने-घञ्, इनि। छाग इव वस्त्रोपेतान् (दुर्गन्धीन्) गन्धस्येदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः। पा० ५।४।१३५। बाहुलकाद् गन्धस्य इकारादेशः। दुष्टगन्धोपेतान् (लोहितास्यान्) रुधिरोपेतमुखान् (मककान्) मकि भूषे गतौ च-अच्, नुमभावः। कुत्सिते। पा० ५।३।७४। क प्रत्ययः। कुत्सितगतीन् (नाशयामसि) ॥
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