यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 17
ऋषिः - त्रिशिरा ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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प्र॒जाप॑तिष्ट्वा सादयत्व॒पां पृ॒ष्ठे स॑मु॒द्रस्येम॑न्। व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्व पृथि॒व्यसि॥१७॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। अ॒पाम्। पृ॒ष्ठे। स॒मु॒द्रस्य॑। एम॑न्। व्यच॑स्वतीम्। प्रथ॑स्वतीम्। प्रथ॑स्व पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिष्ट्वा सादयत्वपापृष्ठे समुद्रस्येमन् । व्यचस्वतीम्प्रथस्वतीम्प्रथस्व पृथिव्यसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। त्वा। सादयतु। अपाम्। पृष्ठे। समुद्रस्य। एमन्। व्यचस्वतीम्। प्रथस्वतीम्। प्रथस्व पृथिवी। असि॥१७॥
विषय - पृथिवी व शं विस्तारिणी
पदार्थ -
१. पत्नी के लिए ही कहते हैं कि (प्रजापतिः) = सब प्रजाओं का पति प्रभु (त्वा) = तुझे (अपां पृष्ठे) = कर्मों के पृष्ठ पर, अर्थात् कर्मों पर (सादयतु) = बिठाये, अर्थात् तेरा जीवन सदा कर्मों में व्यापृत रहे । २. (समुद्रस्य) = तू आनन्दमय प्रभु के एमन् प्राप्तव्य स्थान को प्राप्त हो । अर्थात् तेरा लक्ष्य उस प्रभु को प्राप्त करना है। ३. (व्यचस्वती) = [व्यचस्- विस्तार] ज्ञान के विस्तारवाली तथा (प्रथस्वती) = हृदय के विस्तारवाली सन्तति को (प्रथस्व) = तू विस्तृत करनेवाली हो, अर्थात् सदा क्रियाशीलता के द्वारा प्रभु की ओर चलती हुई तू उस सन्तान को जन्म दे जो अधिक-से-अधिक विस्तृत ज्ञानवाली हो और जिसका हृदय विशाल हो। ४. ऐसी सन्तति को जन्म देनेवाली ही तू (पृथिवी) = पृथिवी (असि) = है। जैसे यह पृथिवी उत्तमोत्तम ओषधियों को जन्म देती है, इसी प्रकार तू उत्तम सन्ततियों को जन्म देती हुई वंश का विस्तार करनेवाली है। [पृथिवी प्रथ विस्तारे ] ।
भावार्थ - भावार्थ- पत्नी क्रियाशील हो, प्रभु के मार्ग पर चले। ज्ञानी, विशाल हृदय सन्तति को जन्म दे । वंश का विस्तार करनेवाली हो।
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