Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 37
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
    0

    यु॒क्ष्वा हि दे॑व॒हूत॑माँ॒२ऽ अश्वाँ॑२ऽ अग्ने र॒थीरि॑व। नि होता॑ पू॒र्व्यः स॑दः॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्ष्व। हि। दे॒व॒हूत॑मा॒निति॑ देव॒ऽहूत॑मान्। अश्वा॑न्। अ॒ग्ने॒। र॒थीरि॒वेति॑ र॒थीःऽइ॑व। नि। होता॑। पू॒र्व्यः। स॒दः॒ ॥३७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्ष्वा हि देवहूतमाँऽअश्वाँऽअग्ने रथीरिव । नि होता पूर्व्यः सदः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युक्ष्व। हि। देवहूतमानिति देवऽहूतमान्। अश्वान्। अग्ने। रथीरिवेति रथीःऽइव। नि। होता। पूर्व्यः। सदः॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 37
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र की प्रार्थना के अनुसार शरीर में उत्तम इन्द्रियाश्वों को जोतकर यह भारद्वाज' बड़े विशिष्ट रूपवाला बन जाता है- 'विरूप' हो जाता है। इस विरूप से प्रभु कहते हैं कि हे (अग्ने) = अपनी अग्रगति को सिद्ध करनेवाले जीव ! तू (हि) = निश्चय से (अश्वान् युक्ष्व) = इस शरीर में उन घोड़ों को जोत जो सदा उत्तम कर्मों में व्याप्त होनेवाले हैं तथा (देवहूतमान्) = तुझमें अतिशयेन दिव्य गुणों का आह्वान करनेवाले हैं, अर्थात् तुझे दिव्य गुणों से भर देनेवाले हैं। २. (रथीः इव) = तू एक उत्तम रथ-स्वामी के समान बन [रथोऽस्यास्तीति-ईर= मत्वर्थे]। जैसे एक उत्तम सारथि घोड़ों को न आलसी होने देता है और न ही उन्हें मार्ग-भ्रष्ट होने देता है, उन्हें लक्ष्य स्थान की ओर अग्रसर करता हुआ लक्ष्य पर पहुँचकर ही विश्राम लेता है, इसी प्रकार तू भी इन इन्द्रियाश्वों को न अकर्मण्य होने दे और न विषयासक्त होने दे। इनके द्वारा निरन्तर उन्नति करता हुआ तू भी मोक्ष तक पहुँच। ३. (होता) = इस संसार में दानपूर्वक अदन करनेवाला बन-यज्ञ - शेष का सेवन करनेवाला बन, अथवा अपने में ज्ञान की आहुति देनेवाला बन। ४. (पूर्व्यः) = तू सर्वप्रथम स्थान में पहुँचा हुआ होकर ही (निषद:) = नम्रता से आसीन हो। जब तक तू मोक्षरूप परम स्थान में न पहुँच जाए तब तक तेरा 'यज्ञों को करना - ज्ञान की दीप्ति को अपने में भरना' रूप पुरुषार्थ समाप्त न हो, तू बीच में ही बैठ न जाए। तू सबसे अग्र स्थान में पहुँचकर ही दम ले।

    भावार्थ - भावार्थ - विशिष्ट रूपवाला वही बनता है जोकि १. अपने में दिव्यता का अवतरण करता है। २. दानपूर्वक अदन करता है। ३. लक्ष्य स्थान पर पहुँचकर ही विश्रान्त होता है। ४. इन्द्रियाश्वों को पूर्णतया वश में करके उन्हें मार्ग-भ्रष्ट नहीं होने देता और आगे-आगे बढ़ता चलता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top