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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 38
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    स॒म्यक् स्र॑वन्ति स॒रितो॒ न धेना॑ऽ अ॒न्तर्हृ॒दा मन॑सा पू॒यमा॑नाः। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽ अ॒भिचा॑कशीमि हिर॒ण्ययो॑ वेत॒सो मध्ये॑ऽ अ॒ग्नेः॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्यक्। स्र॒व॒न्ति॒। स॒रितः॑। न। धेनाः॑। अ॒न्तः। हृ॒दा। मन॑सा। पू॒यमा॑नाः। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। अ॒भि। चा॒क॒शी॒मि॒। हि॒र॒ण्ययः॑। वे॒त॒सः। मध्ये॑। अ॒ग्नेः ॥३८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्यक्स्रवन्ति सरितो न धेनाऽअन्तर्हृदा मनसा पूयमानाः । घृतस्य धारा अभि चाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्येऽअग्नेः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्यक्। स्रवन्ति। सरितः। न। धेनाः। अन्तः। हृदा। मनसा। पूयमानाः। घृतस्य। धाराः। अभि। चाकशीमि। हिरण्ययः। वेतसः। मध्ये। अग्नेः॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 38
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के अनुसार जब एक व्यक्ति इन्द्रियाश्वों को उत्तम सारथि की भाँति पूर्णतया वश में करके चलता है तब उसका ज्ञान इस प्रकार बढ़ता है कि उसमें (धेनाः) = [वाक्-नि० १।११] ज्ञान की वाणियाँ (सरितः न) = नदियों की भाँति (सम्यक् स्रवन्ति) = उत्तमता से प्रवाहित होती हैं। ये ज्ञान की वाणियाँ (अन्तः) = उसके अन्दर (हृदा) = हृदय में निवास करनेवाली श्रद्धा से तथा (मनसा) = मननशक्ति से, ज्ञानवर्धक तर्क-वितर्क से (पूयमाना:) = पवित्र की जाती हैं, अर्थात् एक जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान की वाणियों का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करता है और अपने उस ज्ञान को तर्क-वितर्क से सदा शुद्ध बनाये रखता है। तर्क उसके ज्ञान में किसी मलिनता को नहीं आने देता। श्रद्धा से उसका ज्ञानांकुर सिक्त होकर बढ़ता है तो तर्क से उसके ज्ञान-वृक्ष के पत्तों में कीड़े नहीं लगते। २. अब यह 'विरूप' प्रत्येक पदार्थ का विशिष्ट प्रकार से निरूपण करनेवाला कहता है कि मैं अपने अन्दर (घृतस्य) = मलिनता का क्षरण करनेवाली ज्ञान दीप्तियों की (धारा:) = वाणियों को [ धारा- वाक्- नि० ] अथवा धाराओं को अभिचाकशीमि देखता हूँ। इस प्रकार इस विरूप को अपने अन्दर प्रकाश दिखता है। ३. (अग्नेः) = प्रकाशमय अन्तःकरणवाले, अग्रेणी पुरुष के (मध्ये) = हृदयाकाश में (हिरण्ययः) = वह ज्योतिर्मय (वेतसः) = सब बुराइयों को दूर फेंकनेवाला [वी=क्षेपण] परमात्मा निवास करता है। वस्तुतः ज्ञान की चरमसीमा ही तो प्रभु हैं अतः ज्ञान को निरन्तर बढ़ानेवाला पुरुष प्रभु की ओर बढ़ रहा है और अन्त में यह प्रभु को पा लेता है। हृदयासीन प्रभु का यह दर्शन करता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हममें ज्ञान की वाणियाँ बहें, अर्थात् हम निरन्तर स्वाध्याय करें। श्रद्धा व तर्क से ज्ञान को निर्मल करें। जब इस ज्ञान के प्रकाश को हम अपने में देखेंगे तब हृदय में उस प्रभु का दर्शन करेंगे जो ज्योतिर्मय हैं और सब बुराइयों को परे फेंक देते हैं।

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