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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 49
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः
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    या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूः शि॒वा वि॒श्वाहा॑ भेष॒जी। शि॒वा रु॒तस्य॑ भेष॒जी तया॑ नो मृड जी॒वसे॑॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या। ते॒। रु॒द्र॒। शि॒वा। त॒नूः। शि॒वा। वि॒श्वाहा॑। भे॒ष॒जी। शि॒वा। रु॒तस्य॑। भे॒ष॒जी। तया॑। नः॒। मृ॒ड। जी॒वसे॑ ॥४९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ते रुद्र शिवा तनूः शिवा विश्वाहा भेषजी । शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    या। ते। रुद्र। शिवा। तनूः। शिवा। विश्वाहा। भेषजी। शिवा। रुतस्य। भेषजी। तया। नः। मृड। जीवसे॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 49
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    पदार्थ -
    १. हे (रुद्र) = राष्ट्र के दुःखों को दूर करनेवाले राजन् ! (या) = जो (ते) = तेरी शिवा कल्याणकर (तनूः) = विस्तृत राजनीति है [द०] वह (शिवा) = सचमुच कल्याणकर हो । २. (विश्वाहा) = सदा (भेषजी) = कष्टों की औषधरूप हो, अर्थात् सब कष्टों को दूर करनेवाली हो। ३. (शिवा) = वह कल्याणकर नीति (रुतस्य) = रोगों की (भेषजी) = औषध हो, सब रोगों को दूर करनेवाली हो। ४. (तया) = अपनी उस नीति से (नः) = हमें (मृड) सुखी कीजिए तथा ५. (जीवसे) = हमारे दीर्घ जीवन का कारण बनो ।

    भावार्थ - भावार्थ - राजा की राजनीति ऐसी सुन्दर हो कि उससे १. प्रजा के कष्ट दूर हों । ३. वह कल्याणकर होती हुई सब रोगों को दूर करनेवाली हो। २. उससे प्रजा के जीवन सुखी हों। ४. प्रजा दीर्घजीवी बने ।

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