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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 57
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठाः॑ श॒र्वाऽअ॒धः क्ष॑माच॒राः। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नील॑ग्रीवा॒ इति॒ नील॑ऽग्रीवाः। शि॒ति॒कण्ठा॒ इति॑ शिति॒ऽकण्ठाः॑। श॒र्वाः। अ॒धः। क्षमाचरा इति॑ क्षमाऽच॒राः। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒ज॒न इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः शर्वा अधः क्षमाचराः । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नीलग्रीवा इति नीलऽग्रीवाः। शितिकण्ठा इति शितिऽकण्ठाः। शर्वाः। अधः। क्षमाचरा इति क्षमाऽचराः। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 57
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    पदार्थ -
    १. (नीलग्रीवा:) = विविध विद्याओं से सुभूषित गर्दनवाले, २. (शितिकण्ठा:) = शुद्ध कण्ठस्वरवाले, ३. (शर्वा:) = [ शृणन्ति] शत्रुओं का संहार करनेवाले रुद्र, अर्थात् राजपुरुष, ४. (अध:) = सर्वदा अधोदृष्टिवाले, अर्थात् अपनी शक्ति आदि का गर्व न करनेवाले, सदा ५. (क्षमाचरा:) = सहनशक्ति के साथ विचरनेवाले हैं, प्रजा से मूर्खतावश दी गई गालियों से उत्तेजना में नहीं आ जाते। ६. (तेषाम्) = उनके (धन्वानि) = अस्त्रों को सहस्त्रयोजने हज़ारों योजनों की दूरी तक (अवतन्मसि) = विस्तृत करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - राजपुरुष १. उद्धत न होकर विनीत हो । २. प्रजा की गालियों से तैश में न आनेवाले हों।

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