Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 57
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
    0

    दे॒वं ब॒र्हिर्वारि॑तीनामध्व॒रे स्ती॒र्णम॒श्विभ्या॒मूर्णम्रदाः॒ सर॑स्वत्या स्यो॒नमि॑न्द्र ते॒ सदः॑। ई॒शायै॑ म॒न्युꣳ राजा॑नं ब॒र्हिषा॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वम्। ब॒र्हिः। वारि॑तीना॑म्। अ॒ध्व॒रे। स्ती॒र्णम्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। ऊर्ण॑म्रदा॒ऽइत्यूर्ण॑ऽम्रदाः। सर॑स्वत्या। स्यो॒नम्। इ॒न्द्र॒। ते॒। सदः॑। ई॒शायै॑। म॒न्युम्। राजा॑नम्। ब॒र्हिषा॑। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवम्बर्हिर्वारितीनामध्वरे स्तीर्णमश्विभ्यामूर्णम्रदाः सरस्वत्या स्योनमिन्द्र ते सदः । ईशायै मन्युँ राजानं बर्हिषा दधुरिन्द्रियँ वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवम्। बर्हिः। वारितीनाम्। अध्वरे। स्तीर्णम्। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। ऊर्णंम्रदाऽइत्यूर्णंऽम्रदाः। सरस्वत्या। स्योनम्। इन्द्र। ते। सदः। ईशायै। मन्युम्। राजानम्। बर्हिषा। दधुः। इन्द्रियम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 57
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. 'वार' शब्द वृ वरणे धातु से बनकर यहाँ वरणीय परमात्मा का वाचक है [वारितात्मन् वरणीये परमात्मनि इतिर्गतिर्येषां ] (वारितीनाम्) = परमात्मा में विचरनेवाली 'वरतराणां' अतएव श्रेष्ठ जीवनवाले प्रजाओं को (अध्वरे) = इस हिंसारहित जीवन-यज्ञ में (देवम्) = प्रकाशमय (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय (स्तीर्णम्) = आच्छादित हुआ है। २. यह परमेश्वर में विचरनेवाला व्यक्ति (अश्विभ्याम्) = प्राणापान से प्राणसाधना के द्वारा (ऊर्णम्रदाः) = [ऊर्ण आच्छादने] ज्ञान को ढकनेवाले वृत्र का मर्दन करनेवाला बना है। ३. प्रभु कहते हैं कि हे इन्द्र-वृत्र का संहार करनेवाले 'आत्रेय' (ते) = तेरा (सदः) = निवासस्थान सरस्वत्या ज्ञानाधिदेवता से (स्योनम्) = बड़ा सुखकर हुआ है। मनुष्य ज्ञानप्रधान जीवनवाला हो तो संसार में वह अज्ञानजनित क्लेशों से बचकर बड़े सुखी जीवनवाला होता है। ४. (ईशायै) = ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (मन्युम्) = ज्ञान को (राजानम्) = दीप्ति को अथवा आत्मनियन्त्रण व व्यवस्था को, (बर्हिषा) = वासनाशून्य हृदय के साथ (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति को (दधुः) = प्राणापान व सरस्वती इसमें धारण करते हैं। इनको धारण करके वह ईश का ही छोटा रूप बन जाता है। ५. वसुवने वस्तुओं की प्राप्ति के लिए वसुधेयस्य वीर्य का (व्यन्तु) शरीर में व्यापन करे। ६. प्रभु कहते हैं कि इसी उद्देश्य से तू (यज) = यज्ञशील बन ।

    भावार्थ - भावार्थ - ईश का छोटा रूप बनने के लिए हम ज्ञानी बनें, नियमित व नियन्त्रित जीवनवाले हों, हृदय को वासनाशून्य बनाएँ और सब इन्द्रियों की शक्ति को स्थिर रक्खें, क्षीण न होने दें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top