यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 8
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - मित्रावरुणौ देवते
छन्दः - निचृद गायत्री
स्वरः - षड्जः
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आ नो॑ मित्रावरुणा घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षतम्। मध्वा॒ रजा॑सि सुक्रतू॥८॥
स्वर सहित पद पाठआ। नः॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। घृ॒तैः। गव्यू॑तिम्। उ॒क्ष॒त॒म्। मध्वा॑। रजा॑ꣳसि। सु॒क्र॒तू॒ इति॑ सुऽक्रतू ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम् । मध्वा रजाँसि सुक्रतू ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। नः। मित्रावरुणा। घृतैः। गव्यूतिम्। उक्षतम्। मध्वा। रजाꣳसि। सुक्रतू इति सुऽक्रतू॥८॥
विषय - माधुर्य
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का 'गय: प्लात' सब प्रकार के क्रोधादि को छोड़कर 'विश्वामित्र'- सभी से स्नेह करनेवाला बनता है और प्रार्थना करता है-हे (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण देवो ! 'मित्र - स्नेह की देवता है' वरुण' द्वेष निवारण की। हे स्नेह व द्वेषनिवृत्ति की भावनाओ ! (नः) = हमारे (गव्यूतिम्) = जीवनमार्ग को, इन्द्रियों के प्रचार क्षेत्र को (घृतैः) = [घृ क्षरणदीप्त्योः] मलों के क्षरण तथा ज्ञान के दीपनों से (उक्षतम्) = सर्वथा सिक्त कर दो। स्नेह व द्वेष निवृत्ति ही वस्तुत: सब मलों के ध्वंस के द्वारा हमें शरीर में नीरोग व मन में निर्मल और प्रसन्न बनाती है तथा हमारे मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त करने में सहायक है। २. हे (सुक्रतू) = शोभन कर्मोंवाले मित्रावरुणो! आप (रजांसि) = [ रजः कर्मणि भारत] हमारे सब कर्मों को (मध्वा) = माधुर्य से सिक्त करने की कृपा करो। मित्र व वरुण की आराधना हमारे सब कार्यों के अन्दर माधुर्य का सञ्चार करनेवाली होगी। हमारा आना-जाना, बोलना - चालना सब मधुर होगा तभी तो हमारा 'विश्वामित्र' यह नाम चरितार्थ होगा।
भावार्थ - भावार्थ- हमारा जीवनमार्ग घृत-मलक्षरण व ज्ञानदीप्ति से सिक्त हो तथा हमारे सब कर्म माधुर्य को लिये हुए हों।
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