यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 7
ऋषिः - गयप्लात ऋषिः
देवता - स्वर्ग्यानौर्देवता
छन्दः - यवमध्या गायत्री
स्वरः - षड्जः
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सु॒नाव॒मा रु॑हेय॒मस्र॑वन्ती॒मना॑गसम्। श॒तारि॑त्रा स्वस्तये॑॥७॥
स्वर सहित पद पाठसु॒नाव॒मिति॑ सु॒ऽनाव॑म्। आ। रु॒हे॒य॒म्। अस्र॑वन्तीम्। अना॑गसम्। श॒तारि॑त्रा॒मिति॑ श॒तऽअ॑रित्राम्। स्व॒स्तये॑ ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुनावमा रुहेयमस्रवन्तीमनागसम् । शतारित्राँ स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठ
सुनावमिति सुऽनावम्। आ। रुहेयम्। अस्रवन्तीम्। अनागसम्। शतारित्रामिति शतऽअरित्राम्। स्वस्तये॥७॥
विषय - शतारित्रा नौ:
पदार्थ -
१. ‘गय:प्लात' ही कह रहा है कि मैं (सुनावम्) = उत्तम नाव पर (आरुहेयम्) = आरुढ़ होऊँ। उस नाव पर जो २. (अस्रवन्तीम्) = स्रुत नहीं हो रही है। इस शरीररूप नाव में सोम का सुरक्षित न होना ही इसका चूना है। ३. (अनागसम्) = यह नाव आगस् से रहित हैं, दोषरहित है। ये मल ही दोष हैं, उनसे यह शून्य है। ४. (शतारित्राम्) = जिसके अरित्र सौ वर्ष तक उत्तमता से कार्य करनेवाले हैं। ऐसी इस नाव पर मैं स्वस्तये उत्तम जीवन व कल्याण के लिए आरुढ होऊँ। ऐसी नाव पर आरोहण करके ही मैं संसाररूप 'अश्मन्वती नदी' को पार कर सकूँगा।
भावार्थ - भावार्थ - यह शरीररूप नाव अत्यन्त निर्दोष होगी तभी यह 'सुनाव' हमें इस संस्मृतिरूप नदी से पार उतारनेवाली होगी।
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